उलूक टाइम्स

बुधवार, 3 जुलाई 2019

शुभकामनाएं पाँचवें वर्ष में कदम रखने के लिये पाँच लिंको के आनन्द


बकबक-ए-उलूक

समझ में 
नहीं आता है 

जब कभी 
किसी बात पर 

कुछ 
कहने के लिये 
कह दिया जाता है 

ऐसे ही 
किसी क्षण 

एक 
पहाड़ 
बना दिया गया 

राई 
का दाना 
बहुत घबराता है 




पता 
ही नहीं 
चल पाता है 
भटकते भटकते 

एक गाँव 
कब और कैसे 

शहरों 

के बीच घुस के 
घिर घिरा जाता है 

कविता 
कहानी की 
बाराहखड़ी 
से डरते हुऐ 

किताबों के 
पन्नों के 
सपनों के बीच 

खुद को 
खुद ही 
दबा ले जाता है 

हकीकत 
जान लेवा होती है 

सब को 
पता होती है 

कोई
पचा लेता है 

कोई
पचा दिया जाता है 

समझना 
आसान भी है 
कठिन को 

समझना 
बहुत कठिन है 
सरल को भी 

लिखना 
लिखाना भी 

कभी
यूँ ही 
उलझा
ले जाता है 

कैसे बताये 
पूछने वाले को 

बकवास 
करने वाले से 
जब सीधा सपाट 
कुछ लिखने को 
बोला जाता है 

बस चार लाईन 
लिखने की ही 
आदत नहीं है 
‘उलूक’ की 

हर सीधे को 
जलेबी जरूर 
बना ले जाता है 


पाँच लिंको के आनन्द के 

पाँचवे साल में 
कदम
रखने के अवसर पर 

पता नहीं क्यों 

‘ठुमुक चलत राम चंद्र बाजत पैजनियाँ’ 

और
धीरे धीरे कदम
आगे बढ़ाता हुआ 

छोटा सा नन्हा सा
 ‘राम’
याद आता है 

राजा दशरथ 
और
रानियों से भरे 
दरबार में

लोग मोहित हैं 

हर कोई 
तालियाँ बजाता है 

शुभकामनाएं 

इसी तरह से 

हर आने वाला
देता हुआ 

‘राम’
के साथ बढ़ते हुऐ 

‘राम राज्य’
 की ओर 
चलना चाहता है 

पुन:
शुभकामनाएं 

पाँच लिंको के आनन्द
 । 

गुरुवार, 27 जून 2019

खूबसूरत लिखे के ऊपर खूबसूरत चेहरे के नकाब ओढ़ाये जायेंगे फिर ईनाम दिलवाये जायेंगे



सुपुर्द-ए-खाक
हो गये हों

या
जल कर
राख हो गये हों

ढूँढ कर

निकाल कर
लाये जायेंगे 

राख और मिट्टी
हो गये कुछ खास

फिर से

जमीन से खोद कर
धुलवाये जायेंगे

विज्ञान के
सारे ज्ञान का तेल

निकाल कर
पेल ले जायेंगे

पर छोड़ेंगे नहीं

मरे हुऐ भी

फिर से
जिन्दा
करवाये जायेंगे

अभी

बस
भूतों के
पीछे पड़े हैं

पाँच साल
रुकिये
भविष्य तय
कर करा कर

फंदे के
अंदर घसीट
लटका कर
ही जायेंगे

बाकि
काम तो
चलता ही रहता है

सत्तर साल
मिले हैं
आगे के

बराबरी
करने के लिये

अभी तो
सारा वही कुछ

पुराना
खोद कर
धो पोछ कर

नया बना

गा गा
कर लोरियाँ बनायेंगे

चेहरे
सामने के
चेहरे
आईने के

दिखते रहेंगे
देखते चले जायेंगे

चेहरे
असली
पीछे के

कोशिश करेंगे

जितना
हो सके
छुपायेंगे

कविता लिखेंगे

चेहरे बुनेंगे

साम्य
कुछ
जरूर बैठायेंगे

कर्म
किसने
देखने सुनने हैं

कभी
खुल भी गये

तो
थोड़ा सा
होंठों में
मुस्कुरायेंगे

कुछ को
ईनाम देंगे

कुछ को
शाबाशी मिलेगी

थोड़े कुछ
लिखने वाले रोड़े

गालियाँ
भी खायेंगे

गिरोह
शराफत के
दिखेंगे
जगह जगह

कुछ
हरों में
कुछ
पीलों में
गिने जायेंगे

कुछ
अलग होगा
कहीं किसी जगह
की सोच
बनाये रखेंगे

देखेंगे

हर जगह

राष्ट्रीय चरित्र
एक जैसा
‘उलूक’

जापान
के लोगों
के उदाहरण

जरूर
पेश किये जायेंगे

लिखना
जरूरी है
जो
जरूरी है

लोग
खूबसूरत हैं

गजब का
लिखते हैं

नाम है

पर

क्या
 सच के साथ

खड़े हो पायेंगे?

चित्र साभार: www.istockphoto.com

बुधवार, 19 जून 2019

बरसों लकीर पीटना सीखने के लिये लकीरें कदम दर कदम

बरसों
लकीर पीटना

सीखने
के लिये लकीरें

समझने
के लिये लकीरें

कहाँ
से शुरु
और
कहाँ
जा कर खतम

समझ लेना
नहीं समझ पाना

बस लकीरें

समझते हुऐ
शुरु होने और
खतम होने का है

बस वहम और वहम

जो घर में है
जो मोहल्ले में है
जो शहर में है

वही सब
हर जगह में है

और
वही हैं
सब के
रहम-ओ-करम

सबके
अपने अपने
झूठ हैं जो सच हैं

सबके
अपने सच हैं
जरूरत नहीं है
बताने की

सबने
खुद को दी है
खुद की ही कसम

लिखना लिखाना
चाँद सूरज तारे दिखा ना

जरूरत
नहीं होती है
देखने की
दर्द-ए-लकीर पीट चल

मत किया कर रहम

पिटती लकीर है
मजे में फकीर है
सो रहा जमीर है
अमीर अब और अमीर है

कलम
लिखती नहीं है
निकलता है
उसका दम

कविता कहानी
शब्दों की जवानी

कितने
दिलाती है ईनाम

कौन है
भगवान
इधर का
और कौन है
उधर का

इन्तजार कर

भक्ति में
कहीं किसी की
कुछ तो रम

बड़े बड़े
तीरंदाज हैं
दिखाते हैं
समझाते हैं
नबाब हैं

हरकतें
दिख जाती हैं
टिप्पणी में
किस जगह से
किस सोच
के आप हैं

शोर
करते चलिये
नंगों के लिये
हमाम हर जगह हैं
नहीं होते हैं कम

अंधा ‘उलूक’ है
देखता बेवकूफ है
ना जाने क्या क्या
शरम बेशरम

लिखता
जरूर है

कविता
कहानी
लिखने का

नहीं उसे
सहूर है

पता नहीं
कौन पाठक है

पाँच हजार
पाँवों के निशान

रोज दिखते
जरूर 
 हैं 
उनको नमन ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

गुरुवार, 13 जून 2019

अपने अपने मतलब अपनी अपनी खबरें अपना अपना अखबार होता है बाकी बच गया इस सब से वो समाचार होता है

कागज
पर लिखा

जमीन का
कुछ भी

उसके लिये
बेकार होता है

चाँद तारों
पर जमा जमाया

जिसका
कारोबार होता है

दुनियाँ
जहाँ पर
नजर रखता है

बहुत ज्यादा
समझदार होता है

घर की
मोहल्ले की बातें

छोटे लोगों का
रोजगार होता है

बेमतलब
कुछ भी
कह डालिये

तुरंत
पकड़ लेता है
कलाकार होता है

मतलब
की छान

बचा
लौटा देता है

जितने
से उसका
सरोकार होता है

भीड़
के शोर का
फर्क नहीं पड़ता है

चुगलखोर
आदत से
लाचार होता है

दिख
नहीं रहा है

कुछ कह
नहीं रहा है

का मतलब

सुधर जाने
का संकेत
नहीं होता है

ऊपर नीचे
होता हुआ
बाजार होता है

गिरोह
यूँ ही नहीं
बनता है
एक जैसों का

चोर
का साथी
गिरहकट जैसी

पुरानी
कहावत के लिये

पुराना सरदार
जिम्मेदार होता है

तकनीक
का जमाना है

हाथ
साफ होते हैं

कोयले का
व्यापार होता है

‘उलूक’
की खींसे
होती नहीं हैं

क्या निपोरे

चुगलखोरी
की अपनी
आदत से

बस
लाचार होता है ।

चित्र साभार: apps.apple.com

शनिवार, 1 जून 2019

बकवास अपनी कह कह कर किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं

बहुत कुछ है 
लिखने के लिये बिखरा हुआ 
समेटना ठीक नहीं इस समय
रहने देते हैं

होना कुछ नहीं है हिसाब का 
बेतरतीब ला कर 
और बिखेर देते हैं 
बहे तो बहने देते हैं

दीमकें जमा होने लगी हैं फिर से
नये जोश नयी ताकतों के साथ 
कतारें कुछ सीधी कुछ टेढ़ी 
कुछ थमने देते हैं 

आती नहीं है नजर 
मगर होती है खूबसूरत 
आदेश कतारबद्ध होने के 
रानी को 
घूँघट के पीछे से देने देते हैं

तरीके लूटने के नये 
अंगुलियाँ अंगुलीमाल के लिये 
साफ सफाई हाथों की जरूरी है 
डेटोल डाल कर धोने देते हैं 

बज रही हैं दुंदुभी रण की 
कोई नहीं है कहीं दूर तक 
शोर को गोलियों के 
संगीत मान चुके सैनिकों को 
सोने देते हैं 

दहाड़ सुनते हैं 
कुछ कागज के शेरों की 
उन्हें भी शहर के जंगलों की 
कुछ कागजी कहने देते हैं 

लिखना क्या सफेद कागज पर 
काली लकीरों को 
नावें बना कर रेत की नदी में 
तेजी से बहने देते हैं 

गाँधी झूठ के पर्याय 
खुल के झूठ बोलते रहे हैं सुना है 
सच तोलने वालों को चलो अब 
खुल के उनके अपने नये बीज 
बोने देते हैं

सच है दिखता है 
उनके अपने आईने से जो भी 
उन्हें सम्मानित कर ही देते हैं 

अखबार के पन्ने सुबह के 
बता देते हैं 
पढ़ने वालों में से कुछ रो ही लेते हैं 
तो रोने देते हैं 

बकवास करने में लगे कर 
जारी हों लाईसेंस 
सेंस में रहना अच्छा नहीं 
नाँनसेंस ‘उलूक’ जैसे 
अपनी कह कह कर 
किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं । 

चित्र साभार: clipartimage.com/

शनिवार, 25 मई 2019

खुजली कान के पीछे की और पंजा ‘उलूक’ की बेरोजगारी का


पहाड़ी
झबरीले 

कुछ काले
कुछ सफेद

कुछ
काले सफेद

कुछ मोटे कुछ भारी
कुछ लम्बे कुछ छोटे
कुत्तों के द्वारा
घेर कर ले जायी जा रही

कतारबद्ध
अनुशाशित
पालतू भेड़ों
का रेवड़

गरड़िये
की हाँक
के साथ

पथरीले
ऊबड़ खाबड़

ऊँचे नीचे
उतरते चढ़ते
छिटकते
फिर
वापस लौटते

मिमियाते
मेंमनों को
दूर से देखता

एक
आवारा जानवर

कोशिश
करता हुआ

समझने की

गुलामी
और आजादी
के बीच के अन्तर को

कोशिश करता हुआ 
समझने की

खुशी और गम
के बीच के
जश्न और
मातम को

घास के मैदानों के
फैलाव के
साथ सिमटते
पहाड़ों की
ऊँचाइयों के साथ

छोटी होती
सोच की लोच की
सीमा खत्म होते ही
ढलते सूरज के साथ

याद आते
शहर की गली के
आवारा साथियों
का झुँड

मुँह उठाये
दौड़ते
दिशाहीन
आवाजों में
मिलाते हुऐ
अपनी अपनी
आवाज

रात के
राज को
ललकारते हुऐ

और

इस
सब के बीच

जम्हाई लेता
पेड़ की ठूँठ पर
बैठा
‘उलूक’

सूँघता
महसूस
करता हुआ

तापमान

मौसम के
बदलते
मिजाज का

पंजे से
खुजलाता हुआ

यूँ ही
कान के पीछे के
अपने ही
किसी हिस्से को

बस कुछ
बेरोजगारी

दूर
कर लेने की
खातिर
जैसे।

चित्र साभार: www.kissanesheepfarm.com

मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
----------------------------

पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
-----------------------------


खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
---------------------------------


बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
-------------------------------


बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------


पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------------


शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
----------------------


‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
-------------------------------

चित्र साभार: https://pngtree.com

रविवार, 19 मई 2019

बेवकूफ है ‘उलूक’ लूट जायज है देश और देशभक्ति करना किसने कहा है मना है

भटकता
क्यों है

लिख
तो रहा है

पगडंडियाँ
ही सही

इसमें
बुरा क्या है

रास्ते चौड़े
बन भी रहे हैं
भीड़ के
लिये माना

अकेले
चलने का भी
तो कुछ अपना
अलग मजा है

जरूरी
नहीं है
भाषा के
हिसाब से

कठिन
शब्दों में
रास्ते लिखना

रास्ते में ही
जरूरी है चलना

किस ने कहा है

सरल
शब्दों में
कठिन
लिख देना

समझ
में नहीं
आये
किसी के

ये
उसकी
अपनी
आफत है

अपनी बला है

शेर है
पता है
शेर को भी

किसलिये
फिर बताना

किसी
और को भी

जब
जर्रे जर्रे
पर शेर

लिख
दिया गया है

खुदा से
मिलने गया
है इन्सान

या
इन्सान से
मिलने को

खुदा
खुद रुका है

पहली
बार दिखा है

मन्दिर के
दरवाजे तक

गलीचा
बिछाया गया है

कितना
कुछ है
लिखने के लिये

हर तरफ
हर किसी के

अलग बात है

अब
सब कुछ
साफ साफ
लिखना मना है

एक
पैदा हो चुकी
गन्दगी के लिये

स्वच्छता
अभियान

छेड़ा
तो गया है

मगर
खुद शहीद
हो लेना

गजब
की बात है

इतनी
ऊँची उड़ान
से उतरना

फिर से
जन्म लेना है

कमल होना
खिलना कीचड़ में

ब्रह्मा जी
का आसन
बहुत सरल है

ऐसा कुछ सुना है

 बेवकूफ है ‘उलूक’

लूट जायज है

देश और
देशभक्ति करना

किसने कहा है

मना है ।

चित्र साभार: https://insta-stalker.com

मंगलवार, 14 मई 2019

ना शेर है ना समझ है समझने की शेर को बस खुराफाती ‘उलूक’ की एक खुराफात है दिखाने की कोशिश उतार कर मुखौटा बेशरम हो चुके एक नबाब का

अच्छा
है
सबसे

खुद
से
बात कर

खुद
को
समझाना

मतलब
कही गयी
अपनी ही
बात का

सारे
अबदुल्ला

नाच रहे हों जहाँ

दीवाने
हो कर

बेगानी शादियों में

मौका होता है

बैण्ड के
शोर के बीच

खुद से
खुद की
मुलाकात का

कभी
नंगे किये जायें

सारे शब्द
ऐसे ही
किसी शोर में

उधाड़ कर
खोल
उनके भी

उतार कर

निचोड़ कर
रखते हुऐ

धूप में
सुखाने के लिये

मुखौटे
बारी बारी

एक
एक शरीफ
किरदार का

लहसुन
और
प्याज मानकर

खोलते
चले जायें परतें

समय
के साथ बढ़ते
पनपते सड़ते
मतलब शब्दों के

देखकर
सामने से खेल
हजूरे आला

और
खिदमतदारों
से
बजबजाये
दरबार का

‘उलूक’
लिखना
ना लिखना

रोज
लिखना
कभी कभी
लिखना

नहीं
बदलना है
सोच का

संडास में
बह रही

गंगा जमुनी
तहजीब के

साफ सफाई
के बहाने से

घर घर
की बातों के

छुपे छुपाये
हबी 

सुनहरे
लूटने
लुटाने के

हिंदुस्तानी
हिंदू मुसलमाँ
होते हिसाब का ।

 चित्र साभार: https://in.pinterest.com/pin/32299322314263872/?lp=true

गुरुवार, 9 मई 2019

लिखना जरूरी है होना उनकी मजबूरी है कभी लिखने की दुकान के नहीं बिके सामान पर भी लिख


ये

लिखना भी

कोई
लिखना है

उल्लू ?

कभी

आँख
बन्द कर के

एक
आदमी में

उग आये

भगवान
पर
भी लिख

लिखना
सातवें
आसमान
पहुँच जायेगा

लल्लू

कभी

अवतरित
हो चुके

हजारों
लाखों

एक साथ में

उसके

हनुमान
पर भी
लिख

सतयुग
त्रेता द्वापर

कहानियाँ हैं

पढ़ते
पढ़ते
सो गया

कल्लू ?

कभी
पतीलों में

इतिहास
उबालते

कलियुग
के शूरवीर

विद्वान
पर
भी लिख

शहीदों
के जनाजे
के आगे

बहुत
फाड़
लिये कपड़े

बिल्लू

कभी
घर के
सामान

इधर उधर
सटकाने में
मदद करते

बलवान
पर
भी लिख

विष
उगलते हों

और

साँप
भी
नहीं हों

ऐसा
सुने और
देखे हों

कहीं
और भी

तो
चित्र खींच

चलचित्र
बना
फटाफट

यहाँ
भी डाल

निठल्लू

पागल होते

एक
देश के
बने राजा के

पगलाये

जुबानी
तीर कमान

पर
भी लिख

बे‌ईमानों
को
मना नहीं है

गाना
बाथरूम में

गा
लिया कर
नहाते समय

वंदे मातरम

‘उलूक’

मैं
निकल लूँ

अखबारों
में
रोज की
खबर में

शहर के
दिख रहे

नंगों
और
शरीफों के

शरीफ
और नंगे
होने के

अनुमान

पर
भी लिख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com



रविवार, 5 मई 2019

यार यस यस को समझ और यस यस करने की आदत डाल कुछ बनना है अगर तो बाकी सब पर मिट्टी डाल

यार

यस यस
को समझ

और

यस यस
करने की
आदत डाल

कुछ
बनना है
अगर

तो बाकी
सब पर
मिट्टी डाल

बुद्धिजीवी
होने का
प्रमाणपत्र है

है तो
निकाल

नहीं
भी है
अगर

तो भी
कोई
नहीं है
बबाल

समझ
ले बस

यार

यस यस
करने की
आदत डाल

यारों
का यार
होता है

नंगा
सबसे
बेमिसाल
होता है

चाहिये
होता है

तो बस

एक
मिट्टी रंगा
एक
रुमाल होता है

चल निकाल

यार

यस यस
करना

बड़े
कमाल
का कमाल
होता है

सब कुछ देख
सब कुछ समझ

कुछ मत बोल

कुछ
छंद लिख
कुछ
बंद लिख

कुछ
कविता कर
कुछ
गीत लिख

कुछ
टिप्पणी कर
कुछ
टिप्पणी पर
कुछ निकाल

कुछ
गिनना होता है
कुछ
बीनना होता है

यार

यस यस
युग है

कुत्ता भी
बनना पड़े

तो बनना होता है

भौंकना
खुद का
किसी के लिये

इससे बड़ा
कौन सा
भौंकना
होता है

यार

यस यस युग है

ये सारे
बुद्धिजीवी

यस यस
कर रहे हैं

‘उलूक’
की बुद्धि

भ्रष्ट
हो चुकी है

यार

यस यस
नहीं
कर रहा है

तुझे
कुछ बनना है

यार

यस यस
करना सीख

समझा कर

कलियुग नहीं है

यार

यस यस युग है

जरूरत
नहीं है
मत माँग
कोई भीख

बस यार

यस यस
करना सीख

यार

यस यस
को समझ

और

यस यस
करने की
आदत डाल

कुछ
बनना है
अगर

तो
बाकी
सब पर
मिट्टी डाल ।

ग्रह पूर्वा और इससे लगे ग्रहण को पूर्वाग्रह ग्रसित बताने का ठेकेदार नजर में आ गया

कुछ
दिनों से

लगातार
हो रही

खुजली
के इलाज
के बावत

किसी
चिकित्सक
के पास
जाने का

मन
बनाते बनाते

‘उलूक’

एक
“चिट्ठा ज्योतिष”
के चिट्ठे से


टकरा गया

नौ
ग्रहों का
छोड़कर
अगला


एक 
दसवें ग्रह
का बहीखाता

 साथ
में लेकर
आ गया

ग्रह
पूर्वा
के नाम से
जाना
जाने वाला

कुछ
लोगों को
लोगों के
पीछे लगाना

अगर
आप को
आ गया

तो
समझ लीजिये

जमाना
आपकी
मुट्ठी में
आ गया

ग्रह
पूर्वा का
ग्रहण
लगाने वाले

किसी
ना किसी
मदारी के
बन्दर होते हैं

वो
बताते हैं

 और
समझाते भी हैं

उनकी
लाईन से
अलग चलने वाले

पूर्वा ग्रह
से ग्रसित
बना
दिये जायेंगे

डंका

बजा बजा
कर शोर
मचा गया

उनको
बेशरम होकर

 किसी भी
हमाम में
नाच लेने
का तरीका

बहुत अच्छी
तरह से आता है

कुछ तो
तुम भी डरो

कह कर

डरा गया

उनके
नाचने के
तरीके
और
हिसाब से

उनको
कहीं

किसी
अच्छी
जगह पर
बैठा कर

ईनाम
दिया जाता है

बता गया
दिखा गया

सरकार
के आते ही

ऐसे ही
सारे लोगों को

कहीं ना कहीं
बैठा
दिया जाता है

उदाहरण
बता गया

एक
उदाहरण

जैसे
मास्टर
कोई है

कुलपति
बना दिया
जाता है

किसे
पता होता है

ऐसे
मास्टर
साहब का

कहीं ना कहीं

 किसी
संगठन
में जाकर

पैसे देने
और
सर झुकाने

का खाता है

इसी ग्रह
पूर्वा के
बारे में
बात करने

और
इस ग्रह से

लोगों को
ग्रसित
करने वाले
कुछ लोग

कुछ
सम्मानित लोगों

और
उनके किसी
फ्रंट में

जगह
बना लेते हैं

फिर
वहीं से
गुर्राते हैं

लोगों में
ग्रहण
लगाते हैं

कुछ
ना कह

और
कर
सकने
वाले लोग

पूर्वा
ग्रह
ग्रसित
हो जाते हैं

हमारी सुनो

हमारे
कहे से कहो

सोच
अपनी होना
ठीक नहीं

समझा गया

‘उलूक’
देखता हैं

उलूक
समझता है

ऐसे
सभी शरीफ
लोगों को

अपने 

आस पास के

पता
नहीं चला
बहुत दूर का

ऐसा ही
एक शरीफ

शरीफों
का रिश्तेदार


‘उलूक’
से
आकर

कब 

टकरा गया ।


चित्र साभार: https://www.aesc.org

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

बन्द कर ले दिमाग अपना, एक दिमाग करोड़ों लगाम सपना खूबसूरती से भरा है, किस बात की देरी है

मजबूरी है

बीच
बीच में
थोड़ा थोड़ा

कुछ
लिख देना
भी जरूरी है

उड़ने
लगें पन्ने

यूँ ही
कहीं खाली
हवा में

पर
कतर देना
जरूरी है

हजूर
समझ ही
नहीं पाते हैं

बहुत
कोशिश
करने के
बाद भी

कि यही
जी हजूरी है

फितूरों से
भरी हुयी है

दुनियाँ
यहाँ भी और वहाँ भी

कलम
लिखने वाले की
खुद ही फितूरी है

उलझ
लेते हैं फिर भी
पढ़ने पढ़ाने वाले

जानते हुऐ

टिप्पणी
ही यहाँ

बस
एक लिखे लिखाये
की मजदूरी है

आदत
नहीं है
झेलना
जबरदस्ती
फरेबियों को

रोज देखते हैं
समझते हैं

रिश्तेदार
उनके ही जैसे
आस पास के

टटपूँजियों से
बनानी दूरी है

‘उलूक’
दिमाग अपना
खोलना ही क्यूँ है

लगी
हुयी है भीड़
आँखे कान नाक
बन्द करके

इशारे में
कहीं भी
किसी
अँधे कूँऐं में
कूद लेने
की तैयारी

किस
पागल ने
कह दिया
अधूरी है ।

चित्र साभार: https://free.clipartof.com/details/1833-Free-Clipart-Of-A-Controlling-Puppet-Master

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

कुछ शब्दों के अर्थ तभी खोजने जायें जब उन्हे आपकी तरफ उछाल कर कोई आँखें बड़ी कर गोल घुमाये



कौन
जायज 

कौन
नाजायज 

प्रश्न
जब 

औलाद
किस की 

पर
आ कर 
खड़ा हो जाये

किस तरह
खोज कर

जायज उत्तर
को लाकर

इज्जत के साथ
बैठाया जाये

कौन समझाये
किसे समझाये

लिखने
लिखाने से
कब पता चल पाये

कौन
जायज
नाजायज

और
कौन
नाजायज
जायज

सिक्का
उछालने
वाले के

सिक्के में
हर तरफ
तस्वीर
जब
 एक हो जाये

चित भी
उसकी

पट भी
उसके ही
किसी
उसकी
हो धमकाये

जिसका
वो
खुद

जायज होना

नाजायज
बता

सामने वाले को

जायज
समझाये

जायजों
की कतार में

अनुशाशितों के
भाई भतीजे
चाचा ताऊ का

प्रमाण पत्र
जायज होने के
बटवाये

जिसमें
लिखा जाये

लाईन
को
बाहर से खड़े
देखते

बाकी बचे खुचे

अपने आप

नाजायजों में
गिनती
किये जायें

जो
दिखायी दे

उसपर
ध्यान
 ना लगाये

कुछ सोच से
परे भी

सोच
रखने के

योग
ध्यान अभ्यास
सिखाने पढ़ाने

वालों की
शरण में जाये

कल्याण करे

खुद का पहले

जायजों के
करे धरे
नाजायज से

ध्यान हटवाये

एकरूपता


की
सारे देश में

जायजों
की
कक्षाएं
लगा लगा कर

भक्ति पढ़ाये

नाजायज
पर
पर्दा
फहराये

जायज
होने के

पुरुस्कारों
के साथ

प्रतिष्ठित
किसी
मुकाम पर

आसीन
हो जाये

फिर

घोषित
जायजों को
एक तरफ
करवाये

और
अघोषित
नाजायजों

की वाट
लगवाये

समझ में
आ रहा है

कहते
रहते हैं

‘उलूक’

जैसे
नाजायज

हर
ठूँठ पर बैठे

ऐसे
नालायक को

हट हट
करते हुऐ

जायजों
के

सिंहारूढ़
होने के
जयकारों में

अपनी
जायज
आवाज मिलायें

निशान
लगाये
नाजायजों को

मिलजुल
कर
आँख दिखायें

हो सके
तो

मंच पर
किसी
चप्पल से
पिटवायें ।

चित्र साभार: https://drawception.com


सोमवार, 15 अप्रैल 2019

शरीफ के ही हैं शरीफ हैं सारे जुबाँ खुलते ही गुबार निकला



गाँव में शरीफों से बच रही है रजिया
बात नहीं बताने की
इज्जत उतारने वाला
शहर में भी एक शरीफ ठेकेदार निकला

शरीफों को आजादी है
संस्कृति ओढ़ने की और बिछाने की
दिनों से शरीफ साथ में है पता भी ना चला
और रोज ही शराफत से एक नया अखबार निकला
शरीफों को सिखा दी है शरीफ ने कला

शराफत से गिरोहबाजी करने की 
गिरोह शरीफों का गिरोह शरीफों के लिये
एक शरीफ का ही
शराफत का बाजार निकला

जिन्दगी निकल जाती है
गलतफहमी में इसी तरह बेवकूफों की
एक नहीं दो नहीं  कई कई बार फिर फिर
बेशरम अपनी ही इज्जत खुद अपने आप उतार निकला

‘उलूक’ जरूरत है
खूबसूरत सी हर तस्वीर के पीछे से भी देखने की
फिर ना कहना अगली बार भी
एक सियार शेर का लबादा ओढ़ कर
घर की गली से सालों साल कई कई बार निकला।

चित्र साभार: http://getdrawings.com

रविवार, 14 अप्रैल 2019

कुछ भी करिये कैसा भी करिये घर के अन्दर करिये बाहर गली में आ कर उसके लिये शरमाना नहीं होता है

गिरोहों
से घिरे हुऐ
अकेले को

घबराना
नहीं होता है

कुत्तों
के पास

भौंकने
के लिये

कोई
बहाना
नहीं होता है

लिखना
जरूरी है

सच
ही बस
बताना
नहीं होता है

झूठ
बिकता है

घर की
बातों को
कभी भी
कहीं भी

सामने से
लाना नहीं
होता है

जैसा
घर में होता है

और
जैसा
बताना
नहीं होता है

नंगई को
टाई सूट
पहना कर
नहलाना
नहीं होता है

भगवान के
एजेंटों को
कुछ भी
समझाना
नहीं होता है

मन्दिर
में ही हो पूजा

अब
उतनी
जरूरी 

नहीं होती है

भगवान
का ही जब
अब कहीं
ठिकाना 

नहीं होता है

कुछ
भी करिये

कैसा
भी करिये

करने
कराने को

देशभक्ति से

कभी भी
मिलाना
नहीं होता है

कुछ
पाने के लिये

किसी को
कुछ दे
कर आ जाना

हमाम में
नंगा होकर
नहाना
नहीं होता है

कुछ
पीटते हैं

ढोल

ईमानदारी का

ठेका लेकर

सारे
ईमानदारों
की ओर से

भगवान
और उनके
ऐजेंटों को

कुछ
बताना
नहीं होता है

उनसे कुछ
पूछने के लिये

इसीलिये
किसी को भी

कहीं आना
कहीं जाना
नहीं होता है

चोरों
उठाईगीरों
बे‌ईमानों को

खड़े
रहना होता है

उनके
सामने से
तराजू के
दूसरे पलड़े पर

 ईमानदारी को
तोलने के लिये

बे‌ईमानी
का बाँट

रखवाना 

ही होता है

इसीलिये

सजा
देकर उनको

जेल में
डालने के लिये

कहीं
जेलखाना
नहीं होता है 


‘उलूक’
देशद्रोही
की चिप्पियाँ

दूसरों में
चेपने के लिये

खुद
हमाम में
जा कर नहाना
नहीं होता है

कुछ
भी करिये

कैसा
भी करिये

घर के अन्दर करिये

बाहर
गली में
आ कर

उसके लिये
शरमाना
नहीं होता है

चित्र साभार: https://www.youtube.com/watch?v=hzefdiwf-dg

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

खुले में बंद और बंद में खुली टिप्पणी करना कई सालों की चिट्ठाकारी के बाद ही आ पाता है

टिप्पणी
में

कहीं
ताला लगा
होता है

कहीं कोई

खुला
छोड़ कर भी
चला जाता है

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है

समझ में

सबके
सब आता है

दो चार
में से एक

'सियार'

जरा
ज्यादा तेज
हो जाता है

बिना
निविदा
पेश किये

ठेकेदारी ले लेना

ठीक नहीं
माना जाता है

आदमी
पिनक में

ईश्वरीय
होने की

गलतफहमी
पाल ले जाता है

अपनी
गिरह में

झाँकना
छोड़ कर

किसी
के भी
माथे पर

‘पतित’

चिप्पी
चिपकाना
चाहता है

गिरोह
बना कर
अपने जैसों के

किसी
को भी
घेर कर
लपेटना
चाहता है

इतना
उड़ना भी
ठीक नहीं

गालियाँ
नहीं देता
है कोई

का मतलब

गाली देना
नहीं आना

नहीं
हो जाता है

देश
शुरु होता है

घर से
मोहल्ले से
शहर से

छोटे छोटे
जेबकतरों से

निगाह
फेर कर

राम भजन
नहीं गाया
जाता है

करिये
किसी से
भी प्रेम

अपनी
औकात
देख कर ही

प्रेम
किया जाता है


मत बनिये
थानेदार

मत बनिये
ठेकेदार

हर कोई

दिमाग
अपने हाथ में

लेकर
नहीं आता है

थाना
न्यायालय
न्याय व्यवस्था

से ऊपर

अपने
को रखकर

तानाशाह

नहीं
बना जाता है

फटी
सोच से
झाँकता हुआ

फटा हुआ
दिमाग

बहुत
दूर से
नजर
आ जाता है

लोकतंत्र
का मतलब

गिरोह
बना कर

किसी की
उतारने की सोच

नहीं माना जाता है

इशारों में
कही बात
का मतलब

हर इशारा
करने वाला

अच्छी
तरह से
समझ जाता है

‘उलूक’
जानता है

'उल्लू का पट्ठा'
का प्रयोग

उल्लू
और
उसके
खानदान
के लिये ही
किया जाता है

और
सब जानते हैं

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है ।

चित्र साभार: https://pixy.org

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

कहाँ आँखें मूँदनी होती हैं कहाँ मुखौटा ओढ़ना होता है तीस मार खान हो जाने के बाद सारा सब पता होता है

फर्जी
सकारात्मकता
ओढ़ना सीखना

जरूरी होता है

जो
नहीं सीखता है

उसके
सामने से

खड़ा
हर बेवकूफ

उसका
गुरु होता है

सड़क
खराब है
गड्ढे पड़े हैं

कहना
नहीं होता है

थोड़ी देर
के लिये
मिट्टी भर के

बस
घास से
घेर देना
होता है

काफिले
निकलने
जरूरी होते हैं

उसके बाद

तमगे
बटोरने
के लिये

किसी
नुमाईश में

सामने से
खड़ा होना
होता है

हर जगह
कुर्सी
पर बैठा

एक मकड़ा

जाले
बुन
रहा होता है

मक्खियों
के लिये काम

थोड़ा थोड़ा

उसी के
हिसाब से

बंटा हुआ
होता है

पूछने वाले

पूछ
रहे होते हैं

अन्दाज
खून चूसे 
गये का 

किसलिये

मक्खियों को
जरा सा भी

नहीं
हो रहा
होता है

प्रश्न
खुद के
अपने

जब
झेलना

मुश्किल
हो रहा
होता है

प्रश्न दागने
की मशीन

आदमी
खुद ही
हो ले रहा
होता है

कुछ
नहीं कहना

सबसे अच्छा

और बेहतर
रास्ता होता है

बेवकूफों के

मगर
ये ही तो

 बस में
नहीं होता है

हर
होशियार

निशाने पर

तीर मारने
के लिये

धनुष

खेत में
बो रहा
होता है

किसको
जरूरत
होती है

तीरों की

अर्जुन
के नाम के

जाप करने
से ही वीर
हो रहा होता है

काम
कुछ भी करो

मिल जुल कर
दल भावना
के साथ
करना होता है

नाम
के आगे
अनुलग्न
लगा कर

साफ साफ
नंगा नहीं
होना होता है

‘उलूक’

जमाना
बदलते हुऐ

देखना
भी होता है

समझना
ही होता है

पता करना
भी होता है

कहाँ

आँखें
मूँदनी
होती हैं

कहाँ

मुखौटा
ओढ़ना
होता है ।

चित्र साभार: www.exoticindiaart.com

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

जिसके नाम के आगे नहीं लगाया जा सके पीछे से हटा कर कुछ उसकी जरूरत अब नहीं रह गयी है

जरा
सा भी

झूठ नहीं है

सच्ची में

सच

साफ
आईने
सा

यही है

जाति धर्म

झगड़े
फसाद
की जड़

रहा होगा
कबीर के
जमाने में

अब तो
सारी जमीन

कीटाणु
नाशक

गंगा जल से
धुल धुला कर

खुद ही
साफ
हो गयी है

नाम कभी
पहचान
नहीं हुऐ

जाति
नाम के पीछे

लगी हुयी
देखी गयी है

झगड़ा
ही खत्म

कर
गया ये तो

नाम
के आगे से
लग कर

सबकी

एक
ही पहचान

कर दी गयी है

पीछे से
धीरे धीरे

रबर से
मिटाना
शुरु कर
चुके हैं

देख लेना
बस कुछ
दिनों में

सारी
भीड़

एक नाम
एक जाति

एक धर्म
हो गयी है

काम
थोड़ा बढ़
गया है

मगर

आधार
पैन में
सुधार करने
के फारम में

नाम के
कॉलम
की जरूरत

अब रह भी
नहीं गयी है

सच में
सोचें

मनन करें

कितनी
अच्छी बात

ये हो गयी है

उलूक
तेरा कुछ
नहीं कर
पायेगा

वो भी

तेरे आगे
कुछ नहीं है

और तेरे
पीछे
भी नहीं है

रात
के अँधेरे में
पेड़ पर बैठ

चौकीदारी
बहुत कर
चुका तू

अब
सब जगह
हो गया

तू ही तू है

बस
तेरी ही
जरूरत
अब

कहीं
आगे

या पीछे

लगाने की

नहीं रह गयी है ।

चित्र साभार: blog.ucsusa.org

रविवार, 31 मार्च 2019

‘उलूक’ हर दिन अपने आईने में देखता है चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है

 
बकवास करने का अपना मजा
अपना एक नशा होता है
किसी की दो चार लोग सुन देते हैं
किसी के लिये मजमा लगा होता है

नशा करके बकवास करने वाले को
उसके हर फायदे का पता होता है
नशा करता है एक शराबी
पीना पिलाना उसके लिये जरूरी होता है

कहीं कुछ नहीं से निकाल कर
बातों बातों में सारा कुछ यूँ ही चुटकी में दे देता है
बातों के नशे में रहता है एक नशेड़ी ऐसा होता है
ये माजरा करोड़ों में एक होता है

बातें होनी हैं होती हैं अप्रैल की
मार्च के बाद का एक महीना हर साल में एक होता है
विदेशी  कैलेण्डर विदेशी सोच विदेशी बातों को
विदेशों में सोचना होता है

देशी बातों में बातें देश की होती हैं
एक दिन में बात का नशा नहीं होता है
सबकी बात सबके लिये बात होने के लिये
उसके पास बातों का जखीरा होता है

सालों साल से जिसके लिये
हर दिन हर महीना साल का एक अप्रैल होता है
फूल लेकर हाथ में बातों में उसको बाँध कर
वो फिर से हाजिर होता है

जोकर कहें जमूरा कहें मदारी कहें सपेरा कहें
‘उलूक’ हर दिन अपने आईने में देखता है
चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है ।

चित्र साभार: https://furniture.digitalassetmanagement.site

गुरुवार, 28 मार्च 2019

जो पगला नहीं पा रहे हैं उनकी जिन्दगी सच में हराम हो गयी है


मरते मरते उसने कहा "हे राम"
उसके बाद भीड़ ने कहा "राम नाम सत्य है"
कितनों ने सुना कितनों ने देखा

देखा सुना कहा बताया बहुत पुरानी बात हो गयी है
जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है सत्य अब राम ही नहीं रह गया है

जो समझ लिया है उसकी पाँचों उँगलियाँ घी में घुस गयी हैं
और सर कहीं डालने के लिये कढ़ाईयों की इफरात हो गयी है
वेदना संवेदना शब्दों में उकेर देने की दुकाने गली गली आम हो गयी हैं

एक दिन की एक्स्पायरी का लिखा लिखाया
उठा कर ले जा कर अपनी दीवार पर टाँक लेने वाली दुकाने
हनुमान जी के झंडे में लिखा हुआ जय श्री राम हो गयी हैं

मंदिर राम का रंग हनुमान का
स्कूलों की किताबों के जिल्द में गुलफाम हो गयी हैं

शिक्षक की इज्जत
उतार कर उसके हाथ में थमाने वाले छात्रों की पूजा
राम की पूजा के समान हो गयी है

मंत्री के साथ पीट लेना थानेदार को 
खबर बेकार की एक पता नहीं क्यों सरेआम हो गयी है

छात्रों का कालिख लगाना एक मास्टर के
और चुप रहना मास्टरों की जमात का
मास्टरों की सोच का पोस्टर बन बेलगाम हो गयी है

जरूरी है इसीलिये लिख देना रोज का रोज ‘उलूक’
जनता एक पागल के पीछे पगला गयी है
जो पगला नहीं पा रहे हैं उनकी जिन्दगी सच में हराम हो गयी है ।

चित्र साभार: web.colby.edu

रविवार, 24 मार्च 2019

हर कोई किसी गिरोह में है फिर कैसे कहें आजादी के बाद सोच भी आज आजाद हो गयी है


आजादी 

चुनने की
एक आजाद सोच

पहेली 

नहीं हो गयी है 

सोचने 

की बात है 

सोच
आज क्यों

विरुद्ध
सामूहिक
कर्म/कुकर्म
हो गयी है ।


बर्फी 
के ऊपर
चढ़ाई गयी

चाँदी का
सुनहरा
वर्क हो गयी है

स्वर्ग
हो गयी है
का विज्ञापन है

मगर
बेशर्म
नर्क हो गयी है

अपोहन
की खबर
कौन दे

किसे
सुननी है

व्यस्त
चुनावों में

गुलाम
नर्स हो गयी है

मरेगी
भी नहीं

जिंदा भी
नहीं रहने
दिया जायेगा

बिस्तरे
में पड़ी

बेड़ा गर्क
हो गयी है

गहन
चिकित्सा केंद्र में
है भी

तो भी

कौन सी
किस के लिये

शर्म हो गयी है 

ठंडे हो गये

ज्यादा
लोगों
के देश में

सिर्फ
दो लोगों
के लिये

हर खबर

गर्म
हो गयी है 

पूजा पाठ
नमाज समाज

सोचने
वालों के लिये

फाल्तू
का एक

कर्म
हो गयी है

मन्दिर
के साथ

मसजिद
की बात
करना

सबसे
बड़ा
अंधेर है

अधर्म
हो गयी है 

नंगा होना

नंगई करना

करने धरने
वालों की

सूची में
आने की
शर्त हो गयी है

लोक भी है
तंत्र भी है

लोकतंत्र
की बात

फिर
करनी क्यों

बात ही
व्यर्थ हो गयी है 

जीतना
उसी को है

आज
चुनाव
करवाने
की बात भी

फालतू
सा एक

खर्च
हो गयी है 

मर जायेंगे

लुटेरे
घर मोहल्ले के

हार
पर बात
कहना भी

खाने में

तीखी मिर्च
हो गयी है 

क्या
लिखता है

क्या
सोच है

‘उलूक’ तेरी

समझनी
भी
किसे हैं

बातें सारी

अनर्थ
हो गयी हैं

लूट में

हिस्सेदारी
 लेने वाली

सारी
जनता को

देखता भी
नहीं है

आज

सबसे
समर्थ हो
गयी है । 




शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पीना पिलाना बहकना बहकाना दौड़ेगा अब तो चुनावी मौसम हो गया है

आदमी
खुद में ही

जब

आदमी
कुछ कम
हो गया है

किसलिये
कहना है

रंग
इस बार
कहीं गुम
हो गया है

खुदाओं
में से

किसी
एक का

घरती
पर जनम
हो गया है

तो
कौन सा
किस पर

बड़ा
भारी
जुलम
हो गया है

मन्दिर
जरूरी नहीं

अब
वो भी

तुम
और हम
हो गया है

समझो

भगवान
तक को

इन्सान
होने का
भ्रम
हो गया है

झूठ
खरपतवार

खेतों में
सच के

सनम
हो गया है

काटना
मुश्किल
नहीं है

रक्तबीज
होने का
उसके

वहम
हो गया है

होली
के जाने का

क्यों रे
‘उलूक’

तुझे

क्या गम
हो गया है

पीना
पिलाना

बहकना
बहकाना

दौड़ेगा

अब तो

चुनावी
मौसम
हो गया है ।

चित्र साभार: https://miifotos.com

बुधवार, 20 मार्च 2019

चुनावी होली और होली चुनावी दो अलग सी बातें कभी एक साथ नहीं होती

बेमौसम
बरसात

ठीक भी
नहीं होती

होली में
पठाके की

बात ही
नहीं होती


रंग
बना रहा है

कई
साल से
खुद के चेहरे में

अपने
घर के
आईने से

उसकी
कभी बात
नहीं होती

फिर से
निकला है

ले कर
पिचकारी
भरी हुयी

अपनी
राधा
उसके ही
खयालात
में नहीं होती


बुरा
ना मानो
होली है

कहता
नहीं है

कभी किसी से

सालों साल

हर दिन
गुलाल
खेलने वाले की

खुद की
काली
रात नहीं होती

समझ में
आते हैं सारे रंग

कुछ
रंगीलों के ही

किसने कह दिया

रंग
सोचने में
लग रहे
जोर की

रंगहीन
हो चुके
मौसम में
कहीं बात
नहीं होती


‘उलूक’
रात के अंधेरे

और
सुबह के
उजाले में फर्क हो

सबके लिये
जरूरी नहीं

दूरबीन से
देखकर
समझाने वालों
की होली कभी

खुद के
घर के
आसपास
नहीं होती।



 चित्र साभार: http://priyasingh0602.blogspot.com/2014/09/the-festival-of-colors-holi-is-oneof.html

मंगलवार, 19 मार्च 2019

इस होली पर दिखा देता हजार रंग गिरगिट क्या करे मगर चुनाव उसके सामने से आ जाता है

होली

खेल
तो सही

थोड़ी सी

हिम्मत की
जरूरत है

सात रंग
तेरे
बस में नहीं

तेरी
सबसे बड़ी
मजबूरी है

बातों
में तेरे
इंद्र भी
दिखता है

धनुष भी

तू
किसी तरह
भाषण में
ले आता है

इन्द्र धनुष
लेकिन
कहीं भी

तेरे
आस पास
दूर दूर तक
नजर
नहीं आता है

रंग ओढ़ना

कोई
तुझसे सीखे

इसमें कोई
शक नहीं है

होने भी
नहीं देगा
तू

तेरे
शातिर
होने का

असर
और पता

मेरे
घर में

मेरे
अपनों की

हरकत से
चल जाता है

कुत्तों
की बात

इन्सानों
के बीच में

कहीं पर
होने लगे

अजीब
सी बात
हो जाती है

आठवाँ
आश्चर्य
होता है

जब
आदमी भी

किसी
के लिये

कुत्ते
की तरह
भौंकना

शुरु
हो जाता है

सारे रंग
लेकर
चले कोई
उड़ाने
भी लगे

किसे
परेशानी है

घर का
मुखिया
ही बस

एक लाल
रंग के लिये

वो भी
पर्दा
डाल कर

पीछे
पड़ जाता है

तो
रोना आता है

मुबारक
हो होली

सभी
चिट्ठाकारों को

टिप्पणी
करने
वालों

और
नहीं करने
वालों को भी

टिप्पणी
के साथ
मुफ्त
टिप्पणी
के ऑफर
के साथ

इन्सान
ही होता है

गलती
से चिट्ठा भी
लिखने लगता है

चिट्ठाकारों
में शामिल
भी हो जाता है

‘उलूक’
को तो
वैसे भी

नहीं
खेलनी है
होली

इस होली में

बिरादरी में
किसी का
मर जाना

त्यौहार ही
उठा
ले जाता है ।

चित्र साभार:
https://www.theatlantic.com/

रविवार, 17 मार्च 2019

हजार के ऊपर चार सौ और हो गयी बकवासें ‘उलूक’ के पागलखाने की

तमन्ना है

कई
जमाने से

आग
लगाने की

आदत
पड़ गयी

 मगर
अब तो
झक मारते

रद्दी
कागज फूँक

राख
हवा में
उड़ाने की

लकीरें
हैं खींचनी

आसमान
तक
पहुँचाने की

कलमें
छूट गयी
नीचे

मगर
हड़बड़ी में
ऊपर
जाने की

आदत
पड़ गयी
भूलने की

कहते कहते
झोला
उठाने की

लिखनी
हैं
कविताएं

आदमी
के अन्दर
के आदमी
को बचाने की

फितूर
बकवास का

नशा
बन गया

आदत
हो गयी

बस सफेद
पन्नों को

यूँ ही
धूप में
सुखाने की

क्या
जरूरत है

बेशरम

‘उलूक’
शरमाने की

तू
कुछ
अलग है

या
जमाना
कुछ और

अब
सीख
भी ले

लूट कर
जमाने को

लुटने
की कहानी
सुनाने की।

चित्र साभार: http://convictedrock.com

मंगलवार, 12 मार्च 2019

चिट्ठाजगत और घर की बगल की गली का शोर एक सा हुआ जाता है

अच्छा हुआ

भगवान
अल्ला ईसा

किसी ने

देखा नहीं
कभी

सोचता

आदमी
आता जाता है

आदमी
को गली का
भगवान
बना कर यहाँ

कितनी
आसानी से

सस्ते
में बेच
दिया जाता है

एक
आदमी
को
बना कर
भगवान

जमीन का

पता नहीं

उसका
आदमी
क्या करना
चाहता है

आदमी
एक आदमी
के साथ मिल कर

खून
को आज
लाल से सफेद

मगर
करना चाहता है

कहीं मिट्टी
बेच रहा है
आदमी

कहीं पत्थर

कहीं
शरीर से
निकाल कर

कुछ
बेचना चाहता हैं

पता नहीं
कैसे कहीं
बहुत दूर बैठा

एक आदमी

खून
बेचने वाले
के लिये
तमाशा
चाहता है

शरम
आती है
आनी भी
चाहिये

हमाम
के बाहर भी

नंगा हो कर

अगर
कोई नहाना
चाहता है

किसको
आती है
शरम
छोटी छोटी
बातों में

बड़ी
बातों के
जमाने में

बेशरम

मगर
फिर भी
पूछना
चाहता है

देशभक्त
और
देशभक्ति

हथियार
हो चले हैं
भयादोहन के

एक चोर

मुँह उठाये
पूछना चाहता है

घर में
बैठ कर

बताना
लोगों को

किस ने
लिखा है
क्या लिखा है

उसकी
मर्जी का

बहुत
मजा आता है

बहुत
जोर शोर से

अपना
एक झंडा लिये

दिखा
होता है
कोई
आता हुआ

लेकिन
बस फिर

चला भी
यूँ ही
जाता है

आसान
नहीं होता है
टिकना

उस
बाजार में

जहाँ

अपना
खुद का
बेचना छोड़

दूसरे की
दुकान में
आग लगाना

कोई
शुरु हो
जाता है

‘उलूक’

यहाँ भी
मरघट है

यहाँ भी
चितायें
जला
करती हैं

लाशों को
हर कोई
फूँकने
चला
आता है

घर
मोहल्ले
शहर में
जो होता है

चिट्ठाजगत
में भी होता है

पर सच

कौन है
जो देखना
चाहता है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com