उलूक टाइम्स

सोमवार, 21 अगस्त 2023

कुछ तो सुन संजीदा ऐ डफर

 


सांप और उसके जहर को क्या लिखना
महसूस कर और सिहर
तेंदुआ शहर में घूम रहा है
दिखा कल अखबार में है एक खबर
बहुत कुछ हो रहा है हमारे आस पास
कुछ तो सुन संजीदा ऐ डफर

अवकाश में चला गया है
पेंशन भी आ गयी है पहली खाते में इधर
काम पर लेकिन अब लगा है बना रहा है बम
साथ में है सुना है जफ़र
उड़ाने का इरादा है उसका सब कुछ
जिससे मिला उसे हमेशा ही सिफर

कभी इधर की थाली का रहा बैगन
लुडकता इधर से उधर
आज उधर दिख रहा है यही बैगन
लुडकता उधर से इधर

इधर था
तो इधर की खोद देता था जड़ें सारी होकर बेफिकर
उधर भी
खोद ही रहा होगा जड़ें किसी की अभी नहीं आई है कोई खबर

बरबाद कर दूंगा
तो बस एक मुहिम है सोच है
दिखाना तो है २०२४ का एक शहर
हर शय पर है हर घर में है हर जगह है
बर्बाद कर दूंगा का नुमाइंदा दिखाने को कहर

बस ‘उलूक’ को पता है
उसका राम है उसका अल्लाह है उसका जीजस है
और सब एक है बाकी सांप है और है जहर
सांप है तो जहर भी है काटता भी है तो मरता भी है
सुबह से लेकर शाम तक जिंदगी और मौत है
लेकिन कड़क धूप है तो है दोपहर

चित्र साभार : https://www.clipartmax.com/

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

सामने ‘उलूक’ को देख कर खुजली से भर जाता है लेकिन बाद में कही और जा कर खुजलाता है


होती है खुजली कोई अनोखी बात नहीं होती है
किसको किससे होती है किसको कब होती है और
किसको कहां होती है में जरूर कुछ बात होती है

सामने से दिखे आता हुआ कोई  
खुजली हो और खुजला ना सके कोई
गलत बात होती है
रास्ता संकरा होने से इधर उधर कहीं जा ना सके कोई
चहरे पर नजर आना शुरू हो जाए खुजली
आ रही है देख कर भी मुस्कुरा ना सके कोई
कैसे कहे कोई ये बाते बस इत्तेफाक होती हैं

बहुत ही खतरनाक होती है कुछ खुजली
अचानक शुरू हो लेती है कहीं पर भी कभी भी
गजब की खुजली होती है और बेबात होती है

कोई किसी को नहीं बताता है कि खुजलाता है
कोई किसी को नहीं दिखाता है कि खुजलाता है
खुजली को महसूस भर कर लेता है थोड़ा सा
दिमाग में अपने ही कुछ दही जमाता है
मौके का इंतज़ार करता है खुजलाने वाला
लोहा गरम देख कर हमेशा हथौड़ा चलाता है

खुजली हुई थी बहुत जोर से हुई थी
खुजला लिया गया है साफ़ साफ़ पता चल जाता है
एक नोटिस छोटा झंडा फहराने का
और एक नोटिस झंडे पर ज़रा  सा टेड़ा डंडा लगाने का
एक डंडे वाला हाथ में जब थमा जाता है

‘उलूक’ कुछ दवा क्यों नहीं खाता है
कुछ ईलाज अपना क्यों नहीं करवाता है
बहुत से लोगों को किसलिए होने लगती है खुजली
जब भी कभी उन्हें तू
सामने से मुस्कुराता हुआ आता नजर आ जाता है ?

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/



 

मंगलवार, 15 अगस्त 2023

आजादी के मायने सबके लिये उनके अपने हिसाब से हैं बस हिसाब बहुत जरूरी है

 


आजादी दिखने दिखाने तक ही ठीक नहीं है
आजादी है कितनी है उसे लिखना भी उतना ही जरूरी है

जब मिली थी आजादी सुना है एक कच्ची कली थी 
आज के दिन पूरा खिल गयी है फूल बन गयी है
स्वीकार कर लेना है
आज की मजबूरी है

बात देश की करते हैं नौजवान आजकल के 
झंडा फहराते हैं एक संगठन का
समझाते है राष्ट्र तिरंगे के फहराने के समय
अपनी अपनी श्रद्धा है अपनी अपनी जी हजूरी है 

ना सैंतालीस मैं पैदा हुऐ ना गांधी से रूबरू कभी
धोती लाठी नंगा बदन तीन बंदरों की टोली
समझने की कोशिश भर रही
गांधी वांगमय समझ में आया या ना आया
सच को समझने की कोशिश भर रही
कह ले कोई कितना फितूरी है

समय दिख रहा है दिखा रहा है सारा सब कुछ
ठहरे स्वच्छ जल में बन रही तस्वीर की तरह
लाल किले पर बोले गए शब्द कितने आवरण ओढे
तैरते सच की उपरी परत पर
देख सुन रही है एक सौ चालीस करोड जनता
दो हजार चौबीस के चुनाव के परीक्षाफल
चुनाव होना ही क्यों है उसके बाद
किसने कह दिया जरूरी है

‘उलूक’ चश्मा सिलवाता क्यों नहीं अपने लिये
पता नहीं क्यों उनके जैसा
टी वी अखबार वालों के पास होता है जैसा
पता नहीं क्या देखता है क्या सुनता है

आँख से अंधा कान से बहरा
पैदा इसी जमीन से हुआ
कुछ अजीब सा हो गया
इस में कहीं ना कहीं कोई तो गड़बड़ है
कागज़ कागज़ भर रहा है लेकिन
कलम कुछ बिना स्याही है
और सफ़ेद है कोरी है | 

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

रविवार, 6 अगस्त 2023

फटी सोच से फटी किताब में लिखे गए कुछ फटे शेर 'उलूक' ले कर के आता है

 


 कितना कुछ कुलबुलाता है
भटक कर अँगुलियों के पोरों तक आ जाता है
कलम की नोक तक सुरसुराता हुआ
सामने पड़े सफ़ेद पर बस फ़ैल जाता है

खून लाल होता है कहा जाता है
सफ़ेद होकर कब पानी में बदल जाता है
कहीं जिक्र नहीं करता है कोई
इंसान होने में अब किसे फक्र हो पाता है

कूंची लिए हाथ में कसमसाता है
रंगों से इन्द्रधनुष बनाना चाहता है
एक रंग काफी होता है
पागल बादशाह  जब जाल अपना फैलाता है

सीधे तू चोर है कभी भी नहीं कहना चाहिए
 ना ही किसी से सीधे कहा जाता है
अलीबाबा के समय चालीस रहे होंगे
अब तो पांच सौ चालीस से देश चल पाता है

सीवर जरूरी नहीं सब बहा कर ले जाए
बहुत कुछ सब के हिस्से का बचा रह जाता है
सफाई और गन्दगी के बीच की लाइन खींचना ठीक नहीं
अब माना जाता है
सब कुछ हम्माम हो चला  है देख रहे हैं खुद को नहाते हुए इसी में
कौन हडबड़ाता है
गांधी को सोचना और उसकी बात करने वाला
अब एक निहायती गंवार माना जाता है

खोदना जरूरी है सारी खूबसूरत इमारतों को एक बार
और ये उसे करना है
तू किसलिए लरबराता है
ईट बहुत  है औकात बताने  के लिए
क्यों पगलाता है
चर्च मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारा अगर भरभराता  है

बहुत सारी गन्दगी है बहुत बदबूदार है
फेंकना भी होता है हर कोई फेंकना भी चाहता है
‘उलूक’ आसान नहीं होता है शब्द नहीं होते हैं पास में
एक वाक्य तक नहीं बनाया जाता है |
 

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/


सोमवार, 31 जुलाई 2023

टाईटैनिक के डूब लेने का मुहूरत कहीं ना कहीं तो लिखा होता है


 
माना कि कोई
कितना भी सांप हो लेता है
एक लम्बे समय तक कुण्डली मार लेने के बाद  
सीधे हो कर लौटना आसान नहीं होता है

सांप होना काटने की आदत होना
अलग अलग बातें होती हैं
और हर सांप जहरीला हो
ये भी जरूरी नहीं होता है

सावन का महीना 
शिव के लिए होता है
सांप बस गले में लपटने के लिए भी होता है
भस्म मलने के लिए होती है
भस्मासुर हर पहर का
उसी पहर में भस्म नहीं होता है
जिसमे उसे मलने के लिए शिव खडा होता है

अजीब सी बातें हैं अजीब सी आदतें हैं
अजीब सा समा है अजीब से मेहमा है
क्या होता है अगर तजुर्बा नहीं होता है

शब्द हुंकार के डमरू में सुनाई देते हैं
उसके लिए कान खड़े हों
ये भी कहीं लिखा नहीं होता है

एक लंबा समय लगता है पूँछ को टेडे होने में
सीधे कर लेने के सपने देख लेने  का
कोई समय नहीं होता है

रेत पर बने महल कई सालों तक यूं ही खड़े रह सकते हैं
किसने कह दिया
इस बार की आंधी ने पहले से अगर आगाह कर भी दिया होता है

हजारों कश्तियां होती हैं समुन्दर में कही ना कहीं
जहां और जब डूबना होता है
वो समाचार अखबार में कभी भी
बहुत पहले से नहीं होता है

‘उलूक’ इंतज़ार कर 
खुश हो कर सोच ले
इस बार नहीं तो अगले किसी बार

टाईटैनिक के डूब लेने का मुहूरत
कहीं ना कहीं तो लिखा होता है|


चित्र साभार:
https://www.deviantart.com/


रविवार, 18 जून 2023

समझ में आना बंद हो गया



बकबकाना बंद हो गया
इधर से छोड़ उधर से आना जाना बंद हो गया
किताब अपनी खुद की दिखती नहीं हाथ में
कलम कान के पीछे लगाना बंद हो गया

बड़बड़ाना बंद हो गया
माथे में सलवटें बनती नहीं हैं
हवा में यूं ही हाथ हिलाना बंद हो गया

कहना सुनाना बंद हो गया
लिखना लिखाना बंद हो गया
जोर लगा कर हैइशा कोई फ़ायदा नहीं
कुछ भी सोच में आना बंद हो गया

हड़बड़ाना बंद हो गया सकपकाना बंद हो गया
सुकून शब्दकोष में सो गया
नीद बेहोशी सी हो गयी
सपनों का आना बंद हो गया

फड़फड़ाना बंद हो गया
हवा हवा हो गयी पानी पानी हो गया
आईने में चेहरा नजर आना बंद हो गया

महकना महकाना बंद हो गया
रेत फ़ैलाने लगा शहर दर शहर
रेगिस्तान का ठिकाना बंद हो गया

चहचहाना बंद हो गया
उल्लुओं का रेला बढ़ता चला गया
कौन किस से मिले कारवाँ कैसे बने
मिलना मिलाना बंद हो गया

दिमाग बंद कर खुद का
पकाने लगा खुद खुदा और उसकी भीड़ का सिपाही
‘उलूक’ का पकाना बंद हो गया |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/



मंगलवार, 2 मई 2023

बस यूँ ही



रोज खुलती हैं खिड़कियाँ
कुछ हवा होती है कुछ धूल होती है
झिर्रियों से झांकती है जिंदगी
सांस होती है फिजूल होती है

लिखना भूल जाने का मतलब
लिखना नहीं आना नहीं होता है
कुछ
अहसास लिख जाते है
कुछ को लिख दिये का अहसास होता है

अजीब मौसम हैं अजीब बारिशें है
बादल कहीं नहीं होता है
इतना बरसता है आदमी 
पानी पानी हो शर्मसार होता है

उसको इसका सब पता होता है
इसको उसका सब पता होता है
अपने पते पर लापता लोगों को
बस अपना कुछ पता 
नहीं होता है

इधर मुक्ति पालो उधर बंधुआ हो लेती है सोच
सबको पता होता है
खुले दिमाग मरीचिका होते हैं
कोई कहता नहीं 
है मगर गुलाम होता है

सनद रहेगी वक्त पर काम भी आयेगी
बस लिखना जरुरी होता है
रेत है हर तरफ
आंधी में लिखा सब कुछ सामने से ही उड़ा होता है

वो रेतते हैं गले गले भरे शब्दों के
शराफत का यही कायदा होता है
खून से लिखते हैं आजादी
जर्रे जर्रे में जिसने सब हलाल किया होता है

खौलता है तो क्या होता है खौलने दे
  कुछ नहीं 
कहीं होता है
देख और देखता चल 'उलूक' सब देख रहे हैं
बस कुछ देखना ही होता है |  

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 29 अप्रैल 2023

भीड़ से निकल बस्ती नहीं शहर लिख दे



एक लहर उठती है उठे
कहर लिख दे
एक लहर बैठती है बैठे
ठहर 
लिख दे

भीड़ से निकल
बस्ती नहीं शहर लिख दे
कोशिश कर
कुछ मीठा सा जहर लिख दे

नशे में रह
मत निकल बाहर
बहर लिख दे
रेत के टीले कहीं मैदान कहीं
लहर लिख दे

मांग कुछ
थोड़ा सा कोशिश कर
महर लिख दे
सूखे खेत के बीच
जा बड़ी सी एक 
नहर लिख दे

कुछ तो लिख
रोज नहीं कभी
एक 
पहर लिख दे
किस को पड़ी है
‘उलूक’ गर
गहर लिख दे |

चित्र साभार: http://clipart-library.com/poison-cliparts.html

महर = वह धनराशि है जो विवाह के समय वर या वर का पिता, कन्या को देता है।

कहर= गुस्सा, क्रोध।

बहर= आकाश, आस्मान।

गहर= पृथ्वी-तल में पाया जानेवाला कोई ऐसा गहरा गड्ढा, जो प्राकृतिक कारणों से बना हो

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

कुछ रूह होती हैं कुछ रूह भूत होती हैं

कुछ रूह होती हैं
सहला देती हैं रूह को बस यूँ ही
कुछ बदल देती हैं समां
यूँ ही आस पास का
लगता है कहीं होती हैं

गोश्त और गोश्त में
कहां कोई फर्क नजर आता है
गोश्त कुछ रूह से महकी हुई
मगर जरुर होती हैं

शुक्रिया कहने की जरुरत
कहां कब रह जाती है
आसपास एक नहीं
जब चाहने वाली कई रूह होती हैं

अब रूह कहें आत्मा कहें
राम और रहीम की भी होती हैं
बहस कुछ गोश्त पर छपी
हमेशा होती हैं और जरुर होती हैं

हजार रूह के बीच
बस एक दो कुछ अजीब होती हैं
गोश्त और रूह से अलहदा
कुछ थोड़ा सा भूत होती हैं

हजारों ख्वाहिशे होती हैं
रूह भी कभी कभी रोती है
उलूक जाना लकड़ियों में है
जलना लकड़ियों में है
खबरें होती हैं
और हमेशा मगर
किसी गोश्त की होती हैं |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/ 




शनिवार, 31 दिसंबर 2022

लम्हे

 


कुछ लम्हे मुट्ठी के अंदर
कुछ लम्हे मुट्ठी के बाहर
कुछ लम्हे बिछे सड़क में
कुछ लम्हे तो हो गए शायर


लम्हे लम्हे सिमटा जीवन
लम्हे लम्हे बिखरा जीवन
किसने पकड़े किसने जकड़े
लम्हे बहके लम्हे संभले
मन ही मन


लम्हे दर लम्हे पीड़ा
लम्हे दर लम्हे दुख
कर बस कर वंदन
लम्हे दर लम्हे खुशियां
लम्हे दर लम्हे चंदन
चन्दन


लम्हे चिढ़ के लम्हे गुस्सों के
लम्हे मार पीट के
गिन मधुबन
लम्हे चीर फाड़ के
लम्हे प्यार बाँट के
जोड़ घटा
शबनम शबनम


लम्हे के पीछे मन
लम्हे के आगे तन
लम्हों से बिखरा आँगन
लम्हे पाठक के
बस नव वर्ष का स्वागतम |

चित्र साभार: https://www.youtube.com/watch?v=iFHpIMzVO3Y

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शनिवार, 19 नवंबर 2022

स्वागत है: शहर आपके कदमों की बस आहट से आबाद है

 


सबसे सही आदमी सुना है आज शहर में है
शहर सुना है मगर खुद कहीं बहर में है

ये सुनना सुनाना सुन लीजिये अच्छी बात नहीं है
सही आदमी है शहर मे है एक छोटी बात नहीं है

सारे बुद्धिजीवी हैं सुना है बुलाये गए हैं बड़ी बात है
सूची बनाई गयी है एक बुद्धिजीवियों की क्या बात है

सारे समाधान हो जाएँगे आज ही रात में कत्ल की रात है
एक ही के सर सजेगा ताज मरेगा कोई नहीं गज़ब की बात है

इस शहर में हर घर में होते हैं सुना लिखे पढ़े हर कोई बेबाक है
कुछ छांटने में लग लेते हैं कुछ सूची बनाते हैं उन्हे अंदाज है

कुछ होते हैं तेरे जैसे भी ‘उलूक’ आज से नहीं सदियों से बर्बाद हैं
करते कराते कुछ नहीं है बस हो रहे कुछ कहीं पर लिख लिखा कर आबाद हैं |

चित्र साभार: https://www.hindustantimes.com/

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

कुछ रखना कुछ बकना ना कहे कोई घड़ा चिकना हो गया


उगलते उगलते उगलना निगलना हो गया
बहकते बहकते बहकना संभलना हो गया

आज का कल में कल का परसों में बदलना हो गया
फिसलना दिन और रात का  महीना निकलना हो गया

आसमां में सुराग हाथ मे पत्थर सोच लेना बहलना हो गया
ख़यालो ही ख़यालो में कुछ थोड़ा खयाली उछलना हो गया

कुछ  पढ़ना इधर कुछ पढ़ना उधर ऐसे ही टहलना हो गया
कहीं  देखना आईना कहीं देखना चेहरा हवा का बदलना हो गया

सफ़ेद लिखना सफ़ेद पर लिखना रोज़ का लिखना मुंह सिलना हो गया
अपनी बातें खुद से करना ‘उलूक’ जमाने से मिलना हो गया

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

31/10/2022 
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

इतना लिख कि लिख लिख कर कारवान लिख दे


चल रहने दे सब जमीन की बातें
कभी तो कोशिश कर थोड़ा सा आसमान लिख दे
लिखते लिखते घिस चुकी सोच
छोड़ एक दिन बिना सोचे पूरा एक बागवान लिख दे

ला लिखेगा जमा किया महीने भर का
जैसे एक दिन में कोई पूरा कूड़ेदान लिख दे
किसलिये करनी है इतनी मेहनत 
कौन कहता है तुझसे चल एक बियाबान लिख दे

सबको लिखना है सबको आता है लिखना 
तू अपना लिख पूरा इमतिहान लिख दे
किसने बूझना है लिखे को किसे समझना है 
आधा लिख चाहे पूरा दीवान लिख दे

होता रहा है होता रहेगा आना जाना यहां भी वहां भी 
रास्ते रास्ते निशान लिख दे
तू ना सही कोई और शायद कर ले कोशिश लौटने की फिर यहीं 
खाली उनवान लिख दे

आदत है तो है मगर ठीक नही है लिखना इस तरह से खीच कर 
पूरी लम्बी एक जुबान लिख दे
निकले कुछ तो मतलब कभी लिखे का तेरे ‘उलूक’ 
मत लिखा कर इस तरह कि दुकान लिख दे

चित्र साभार: https://www.indiamart.com/

बुधवार, 31 अगस्त 2022

साथ में लेकर चलें एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

 


खुद नहीं कर सकते अगर साथ में लेकर चलें
एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

जो चिल्ला सके सामने खड़े उस आदमी पर

जिसको नंगा घोषित
कर ले जाने के सारे पैंतरे उलझ चुके हों
ताश के बावन पत्तों के बीच कहीं किसी जोकर से

बस शराफत चेहरे की पॉलिश कर लेना बहुत जरूरी है ध्यान में रखना

सारे शराफत चमकाए हुऐ
एक साथ एक जमीन पर एक ही समय में

साथ में नजर नहीं आने चाहिये लेकिन 
बिजूका के अगल बगल आगे और पीछे 
हो सके तो ऊपर और नीचे भी

सारी मछलियों की आखें 
तीर पर चिपकी हुई होनी चाहिये
और अर्जुन झुकाए खड़ा हुआ होना जरूरी है अपना सिर
सड़क पर पीटता हुआ अपनी ही छाती

गीता और गीता में चिपके हुऐ
कृष्ण के उपदेशों को
फूल पत्ते और अगरबत्ती के धुऐं की निछावर कर
दिन की शुरुआत करने वाले
सभी बिजूकों का
जिंदा रहना भी उतना ही जरूरी है

जितना
रोज का रोज सुबह शुरु होकर शाम तक
मरते चले जाने वाले शरीफों की दुकान के
शटर और तालों की धूप बत्ती कर
खबर को अखबार के पहले पन्ने में दफनाने वाले खबरची की
मसालेदार हरा धनिया छिड़की हुई खबर का

सठियाये झल्लाये खुद से खार खाये ‘उलूक’ की बकवास
बहुत दिनों तक कब्र में सो नहीं पाती है
निकल ही आती है महीने एक में कभी किसी दिन

केवल इतना बताने को कि जिंदा रहना जरूरी है
सारी सड़ांधों का भी
खुश्बुओं के सपने बेचने वालों के लिये।


आज : दिनाँक 31/08/2022  7:36 सायं तक
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शनिवार, 16 जुलाई 2022

पर्व “हरेला” की बधाई और शुभकामनाओं के बहाने दो बात हरी हरी

 

एक लम्बे समय तक 
यूँ ही खुद ब खुद स्याही उगलती लेखनी
धीरे धीरे शाँत हो चली

कल ही किसी ने पूछ लिया लिख नहीं रहे हो आजकल
क्या बताता लिखा तो कभी भी नहीं था
बस उगल दिया करता था
वो सब जो पचता नहीं था और उसके लिये सोचना नहीं पड़ता था

समय ने जो रफ्तार पकड़ी
दिखाई देना सुनाई देना जैसा सब आदत में शामिल होने लगा
और
जरूरतेँ बदल गयी कलम की भी
बस कुछ हवा हवा और फुस्स फुस्स

भ्रमित होना कोई गुनाह नहीं है होते चले गये
आईने बने पानी में बहते रहे बदलते चले गये

दिख रहा सच नहीं है
भीड़ ने एक नहीं कई बार चेताया बताया

देखो हमारी नजरों से
सब कुछ साफ साफ देखने लगोगे
अपनी आँखों से देखने पर हमेशा धोखा होता है
और आखें भीड़ हो ली धीरे धीरे

कोई नहीं ये चलता रहेगा

सच और झूठ
परिभाषाएँ बदलते रहेंगी समय के साथ
जैसे गाँधी कभी सच था आज झूठ हो लिया है
क्योंकि सच किसी और पलड़े में लटक कर झुक लिया है

आज हरेला है हरियाली का पर्व
हर किसी को बधाई और शुभकामनाएँ हरे के लिये

इसी हरियाली पर जब टटोला खुद को
तो हरा ही गायब नजर आया
कहाँ गायब हो गया होगा
फिर लगा शायद अँधा होना जरूरी होता होगा
सावन में देखने के लिये हरा

अरे
हरा देखना कहाँ है
हरा फैलाना है हरा बोना है
हरा बतियाना है हरा टापना है हरा छापना है

एसा नहीं है कि कलम उठती नहीं है
उठती है हमेशा उठती है बस अंतर हो गया है
अब कुछ उगला नहीं करती है क्योंकि सोच कर लिखना आदत नहीं है
उगलना आदत में शुमार था

बदहजमी शायद ठीक हो गयी है भीड़ के साथ
वैसे भी हर किसी के पास वैक्सीन है अपनी अपनी।
फिर भी आशावान हैं

समय बदलेगा
कलम फिर से उगलेगी स्याही
बिना सोचे कुछ देख कुछ सुन कर।
बकवास हमेशा एक तरह से हो कोई जरूरी नहीं
आज हरी बकवास हरेला पर्व के साथ।
शुभकामनाएँ हरी हरी।

चित्र साभार: https://www.ekumaon.com/

मंगलवार, 14 जून 2022

फिर से एक आधी बकवास पूरे महीने के आधे में ही सही कुछ तो खाँस

 




शर्म एक शब्द ही तो है
मतलब उसका भी है कुछ तब भी

और आधा सच होने मे कोई शर्म नहीं होनी चाहिये
होती भी नहीं है

पूर्णता किसे मिलती है?
 हाँ फख्र दिखता है आधे सच का
जिस पर मिलती हैं शाबाशियाँ
और पीटी जाती हैं तालियाँ

पूरा सच सिक्के के एक तरफ होता भी कहां है
हेड या टैल
दोनो और आधा आधा सच
सिक्का खड़ा भी हो जाये
तब भी दिखेगा एक तरफ का आधा सच ही

और आधे सच का खिलाड़ी
सबसे गजब का खिलाड़ी जो कभी गोल नहीं करता है
क्यों की गोल होने से खेल का परिणाम सामने से होता है
और खेल विराम लेता है

पूर्णता के साथ फिलम खतम करना कोई नहीं चाहता है
आधे भरे गिलास में भरी शराब पानी का करती इंतजार
सबसे बड़ा सपना होता है एक शराबी के लिये
शराबी को नशा होता है वो भी आधा
सुबह होती है यानि कि आधा दिन
और सपना टूट जाता है

जो हम करते हैं
उसे छोड़ कर सब कह देना
लेकिन कभी पूरा नहीं बस आधा आधा छोड़ देना
क्योंकि आधा ही पूर्ण है
पूर्ण मे‌ खुल जाता पूरा झोल है

‘उलूक’ बखिया उधेड़ लेकिन पूरी नहीं
पूरी उधड़ने से खिसक सकती है ढकी हुई झूठ कि पुतली
इसलिये आधा देख आधा फेँक आधा सेक
और मौज में काट ले जिंदगी

वैसे भी कौन सा मरना भी पूरा होता है
कहते हैं फिर जनम होता है
बाकी आधे का हिसाब किताब देने के लिये।


चित्र साभार: https://clipart.me/

सोमवार, 16 मई 2022

महीने की एक बकवास की कसम को कभी दो कर के भी तोड़ दिया जाता है



सब के पास होती है
अपनी कविता
सबही कवि होते हैं
कुछ लिख लेते हैं
कुछ बस सोच लेते हैं कविता

कुछ बो देते 
हैं
कुछ इन्तजार करते 
हैं
खेत के सूख लेने का

कुछ कविता के सपने देखते हैं
कुछ बिना कविता भी कवि हो लेते हैं
कुछ महाकवि के ताज पा जाते हैं
कुछ सदी के कवि हो जाते हैं

कुछ एक दिन की एक कविता कर चुक जाते हैं
कुछ बस कविता जी लेते हैं कुछ कविता सी लेते हैं
कुछ कविता उड़ा ले जाते हैं पतँग की डोर से
कुछ कविता जिता ले जाते हैं 
कविता दौड़ में  

कुछ
अपनी कविता को
पड़ोसी की कविता से मिलाते हैं
कुछ
अपने घर की कविता बाजार में  दे आते 
हैं

बहुत हैं
कविता बेच भी लेते हैं
कुछ उधार की कविताएं यूं ही सड़‌क पर बिखेर जाते हैं

अदभुद है
कविताओंं  का सँसार
गृह भी हैं यहाँ ब्लैक हॉल यही हैं
सूरज भी यहीं है पृथ्वी भी है
एस्टरोइड भी घूमते नजर आ जाते हैं

पूरा ग्रँथ तैयार हो जायेगा
अगर कोई बैठ के कविताओं के
गिरह खोलने के लिये कहीं बैठ जायेगा

कविताओं में
चुम्बक भी होते हैं
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव
कविताओं को खींचने और प्रतिकर्षित करने के काम आते हैं

दाऊद भी है यहां कश्मीर भी है आतंकवादी भी हैं
देशभक्ती पुलिस सेना और बंदूक भी
शब्दों के ऊपर मिलेगी 
भूनते मूँगफली और चना थोथा ही सही
बजते चलता रहता है 
साथ में थोथा घना

कविता को कतार में लगाना भी यहीं दिखाई देता है
कविता का बाजार सजाना भी यहीं दिखाई देता है

कविता एक लिखता है
कविता दूसरा पढ़‌ता है
तीसरा कविता पर मुहर लगाता है
चौथा दस्तखत कर ले जाता है
पाँचवा कविता अग्रसारित करता है
छटा कविता पर ही कविता कह जाता है

कविता की नदियाँ बहती हैं दूर नहीं जाना होता है
लिखी दिखी नहीं कविता के समुन्दर में तरतीब से रखी होती हैं

'उलूक’
कविता में बकवास और बकवास में कविता से उबर नहीं पाता है
कवि
कविता और कविता की किताबों को
उलटता पलटता बाजार में आता है
और चला जाता है
किसने कितनी कविता बेची किसने कितनी कविता खरीदी
हिसाब कहीं से भी नहीं मिल पाता है

सारे कवि लगे हुऐ दिखते 
हैं
मुफ्त की कविता खोदने में जहां
वहां उसे अपनी कविता की कब्र के लिये
दो गज जमीन ढूँढना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।

चित्र साभार: https://owlcation.com/humanities/Poems-about-Animals-Represtning-Death

शनिवार, 30 अप्रैल 2022

अल्विदा ‘ऐलैक्सा’

अल्विदा ‘ऐलैक्सा’ एक मई से अवकाश में जा रही हो आभार हौसला अफजाई के लिये एक लम्बे अर्से से आभासी दुनियाँ के आभासी पन्नों का साथ निभा रही हो
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गुरुवार, 31 मार्च 2022

फाईल होना ही बहुत है कभी खाली खोलने ही क्यों नहीं चले आते

 



बन्द दिमाग की झिर्री से दिखी थोड़ी सी रोशनी
किसलिये घबराते
महीने बन्द फाईल-ए-उलूक फिर पड़ी भी अगर खोदनी
सबको जा जा कर बताते

कतरा कतरा कतरा कतरा
बामुश्किल खींच तान कर कुछ बने चाहे बने सात चाहे बने सतरा
क्यों खिसियाते

कतर दी गयी सोच में बस डर बचा
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हर शय अब समझ लिया खतरा
एक चेहरा ओढ़ कर मुस्कुराते

कुछ परायों की दुआएं लपेटी कुछ अपनों की बद्दुआएं समेटी
अरे इस हाथ ले उस हाथ दे आते
कर्मों के हिसाब किताब किसे पता ऊपर वाला ही बनायेगा कमेटी
भाई मंदिर चले जाते घंटी बजाते

दवात स्याही कलम कागज बही खाते दिन हो गये अब
सपनों में भी नहीं आते
आभास भी आभासी हो चले कुछ लिखे का मतलब लोग
कुछ और ही लगाते

कुछ बने इसकी तरह कुछ उसकी तरह का कुछ
नहीं तो बीच का ही सही अलग सा कुछ
बता ले जाते

फिर आना अगले महीने की अंतिम तारीख को ‘उलूक’
फाईलों के दिन हैं करोड़ों एक ही से
कमाये हैं जाते

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

कई दिन के सन्नाटे के बाद किसी दिन भौंपू बजा लेने में क्या जाता है

 



कुछ बहुत अच्छा लिखने की सोच में
बस सोचता रह जाता है

कुकुरमुत्तों की भीड़ में खुल के उगना
इतना आसान नहीं हो पाता है

महीने भर का कूड़ा
कूड़ेदान में ही छोड़ना पड़ जाता है

कई कई दिनों तक मन मसोस कर
बन्द ढक्कन फिर खोला भी नहीं जाता है

दो चार गिनती के पके पकायों को पकाने का शौक
धरा का धरा रह जाता है

कूड़ेदान रखे रास्तों से निकलना कौन चाहता है
रास्ते फूलों से भरे एक नहीं बहुत होते हैं

खुश्बू लिखे से नहीं आती है अलग बात है
खुश्बू सोच लेने में कौन सा किसी की जेब से
कुछ कहीं खर्च हो जाता है

समय समय की बात होती है
कभी खुल के बरसने वाले से निचोड़ कर भी 
कुछ नहीं निकल पाता है

रोज का रोज हिसाब किताब करने वाला
जनवरी के बाद फरवरी निकलता देखता है
सामने ही मार्च के महीने को मुँह खोले हुऐ
सामने से खड़ा हुआ पाता है

कितने आशीर्वाद छिपे होते हैं
कितनी गालियाँ मुँह छुपा रही होती है
शब्दकोष में इतना कुछ है अच्छा है सारा कुछ
सब को हर समय समझ में एकदम से नहीं आ जाता है

चार लाईन लिख कर अधूरा छोड़ देना बहुत अच्छा है
समझने वाला 
पन्ने पर खाली जगह देख कर भी
समझ ले जाता है 

पता नहीं कब समझ में आयेगा उल्लू के पट्ठे ‘उलूक’ को

आदतन कुछ भी नहीं लिखे हुऐ को
खींच तान कर हमेशा
कुछ बन ही जायेगा की समझ लिये हुऐ बेशरम

कई दिनों के सन्नाटे से भी निकलते हुऐ
भौंपू बजाने से बाज नहीं आता है।

चित्र साभार: https://www.clipartmax.com/

सोमवार, 31 जनवरी 2022

"नवीन चौरे" की उस कविता को सलाम जिसे सदी की कविता कहना जरूरी हो जाता है


कुछ भी
खौलने तक
नहीं पहुँच पाता है
गरम होना
बहुत बड़ी बात है

ठंडे रहने के फायदे में 
जब
इंसान होने से बचने के रास्ते
उँगलियों में कोई गिनाता है

गिनतियाँ सिखायी जाती हैं अब भी
भीड़ गिनना गुनाह है साथ में बताया जाता है

कई सदियों में
कोई
ऐसा भी निकल कर आता है
आँखें बन्द कर आँखों देखी कविताएं बोने वालों के लिये
मुँह छुपाने का आईना हो जाता है

आश्चर्य होता है

ऐसी
अदभुद कविता
जिसमें गणित विज्ञान से लेकर
तकनीक तक का असर
शब्द दर शब्द
बुना हुआ नजर आता है

भीड़ के बीच में भीड़ हो चुकी 
आत्मा से लेकर
परमात्मा होने के अहसास से
फिर कहाँ बचा जाता है

शब्द नहीं हैं पास में 
“नवीन चौरे” की कविता के लिये

शायद
इस सदी की 
सबसे उबलती
खौलती कविता से सामना हो चुका है
नासमझ होने के बावजूद
कुछ समझ में आ गया का अहसास हो जाता है

एक बकवास से
बन्द किया गया
पिछले साल के अंतिम दिन का बहीखाता

नये साल के पहले महीने की अंतिम तारीख को
एक कटी उँगली और उस पर लगे खून के
बहाने ही सही
कुछ हिलौरे मार जाता है

‘उलूक’
स्वीकार करता है
उसके खुद के
उसी भीड़ का एक हिस्सा होने का

आँखों को बन्द कर
आँखों देखे हाल सुनाती
अंधी कविताओं के समुंदर के बीच में

सदियों में
एक तूफान उबलते अशआरों का
जब इस तरह का कोई
दिल खोल के सामने से ले आता है
सलाम "नवीन चौरे" जुबाँ से निकल ही जाता है।

साभार: यू ट्यूब