उलूक टाइम्स

सोमवार, 9 नवंबर 2015

जब पकाना ही हो तो पूरा पकाना चाहिये बातों की बातों में बात को मिलाना आना चाहिये

अब
चोर होना
अलग बात है

ईमानदार होना
अलग बात है

चोर का
ईमानदार होना
अलग बात है

चोरी करने
के लिये
कुछ सामने
से होना
अलग बात है

बिना कुछ
उठाये
छिपाये भी
चोरी हो जाना
अलग बात है

कहने का
मतलब
ऐसे तो कुछ
भी नहीं है
पर
वैसे कहो
तो कुछ है
और
नहीं भी है

बात कहने में
क्या जाता है
बातें बताना
अलग बात है
बातें बनाना
अलग बात है

जैसे बात
दिशा बताने
की हो तो भी
बिल्कुल
जरूरी नहीं है
दिशा का ज्ञान हो

बच्चे का
चेहरा हो
शरीर
जवान हो
अधेड़ की
सोच हो
बुढ़ापे की
झुर्रियों
के पहले
से ही छिपे
हुऐ निशान हो

इसकी जीत में
उसकी हार हो
किसी के लिये
हार और जीत
दोनो बेकार हों

समय के
निशानों पर
छिपाये
निशान हों

जन्मदिन हो
जश्न हो
शहर हो
प्रदेश हो
ईमानदार
का ईमान हो
झूठ बस
बे‌ईमान हो

ईमानदारी
पर भाषण हो
झूठ का
सच हो
सच का
झूठ हो
शासन का
राशन हो
योगा का
आसन हो
बात का
बात से
बात पर
प्रहार हो
मुस्कुराता

अंदर
ही अंदर
अंदर का
व्यभिचार हो

पर्दा खुला
रहने रहने
तक तो
कम से कम
नाटक हो
और
जोरदार हो ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 7 नवंबर 2015

किसी के पढ़ने या समझने के लिये नहीं होता है लक्ष्मण के प्रश्न का जवाब होता है बस राम ही कहीं नहीं होता है

क्या जवाब दूँ
मैं तुझे लक्ष्मण
मैं राम होना भी
नहीं चाहता हूँ
आज मेरे अंदर
का रावण बहुत
विकराल भी
हो  गया है
और मुझे राम से
डर लगने लगा है
राम आज मुझे
पल पल हर पल
नोच रहा है
किस से कहूँ
नहीं कह सकता
राम राम है
जय श्री राम है
मेरा ही राम है
लक्ष्मण तुम को
शक्ति लगी थी
और तुम्हारे पास
प्रश्न तब नहीं थे
अब हैं बहुत हैं
लक्ष्मण तुम और
तुम्हारे जैसे और
कई अनगिनत
अभिमन्यू हैं
जो तीर नहीं हैं
पर चढ़ाया गया है
जिन्हे कई बार
गाँडीव पर अर्जुन ने
तुम्हें समझा बुझा कर
तुम बने भी हो तीर
चले भी हो तीर
की तरह कई बार
इतना बहुत है कि
आज के जमाने में
कोई ना मरता है
ना घायल होता है
तुम्हारे जैसे तीरों से
कायरों के टायरों पर
सड़क के निशान
नहीं पड़ते हैं लक्ष्मण
रोज बहुत लोगों के
अंदर कई राम मरते हैं
कोई नहीं बताता है
किसी से कुछ नहीं
कह पाता है
बहुत बैचेनी होती है 

और तुम भी पूछ बैठे
ऐसे में ऐसा ही कुछ
और पता चला
आजकल राम
तुम्हारे साथ भी
वही करता है जो
सभी के साथ
उसने हमेशा से किया है
सभी को राम से प्रेम है
सभी को जय श्री राम
कहना अच्छा लगता है
कोई खेद नहीं होता है
राम राम होता है लक्ष्मण
प्रश्न करना हमेशा
दर्दमय होता है
उत्तर देना उस से भी
ज्यादा दर्द देता है
जब प्रश्न अलग होता है
राम अलग होता है
और पूछने वाला
लक्ष्मण होता है ।

 चित्र साभार: forefugees.com

नहीं दिखा कुछ दिन कहाँ गया पता चला खुजलाने गया है

कब किस चीज
से कहाँ खुजली
मचना शुरु हो जाये
कौन जानता है
कौन किसे
जा कर बताये
कौन किसे
क्या समझाये
देखने से खुजली
छूने से खुजली
सुनने से खुजली

इन सब पचड़ों
को छोड़ो भी

कुछ दिनों से
कुछ अजीब सी
खुजली हो रही है

कुछ तार बेतार के
खुजली के खुजली से
भी तो जोड़ो जी


हो रही है तो हो रही है
खुजला रहे हैं बैठ कर
कहाँ हो रही है
क्यों हो रही है
सोचने समझने में
लग गये कलम ही
छूट गई हाथ से
क्यों छूटी कुछ सोचो
मनन करो हर बात
पर शेखचिल्ली का
चिल्ला तो मत फोड़ो जी

अंदाज आया पता चला
कुछ नहीं लौटा पाने
की खुजली है
अब भिखारी लौटाये
भी तो क्या
कुछ चिल्लर
और किसे
कौन लेगा और
लौटाया भी जाये
तो किसे लौटाया जाये

ध्यान सारा एक ही
जगह पर लगना
शुरु हो गया और
इसी में गजब हो गया
गजब क्या हुआ
बाबा रामदेव की
मैगी का भोग हो गया
मत समझ बैठियेगा
पर हुआ कुछ ऐसा ही
जैसे योग हो गया

पहले क्यों नहीं
आया होगा ये
लौटाने पलटाने
वाला खेल
अब देखिये जिसे भी
उसी ने बना ली है
अपनी पटरी और
ले जोर शोर से छाती
पीट पीट कर चलाना
शुरु कर चुका है
उसके ऊपर अपनी रेल

जो भी है अब तो
खुजलाने में बहुत
मजा आने लगा है
जिसे देखो वो कुछ
ना कुछ लौटाने
में लगा है

‘उलूक’ तू वैसे भी
हमेशा उल्टे बाँस
बरेली जाने के जुगाड़
में लगा ही रहता है
लगा रह मजे से
खुजलाने में
साथ में बजाता
भी चल एक कनिस्तर
गाता हुआ कुछ गीत
ऐसा महसूस करें तेरी
उस खुजली को सभी
जिसे खुजलाते खुजलाते
तुझे भी खुजली खुजली
खेलने में अब बहुत
ज्यादा मजा आने लगा है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

बंदरों के नाटक में जरूरी है हनुमान जी और राम जी का भी कुछ घसीटा

बंदर ने बंदर
को नोचा और
हनुमान जी ने
कुछ नहीं सोचा
तुझे ही क्यों
नजर आने
लगा इस सब
में कोई लोचा
भगवान राम जी
के सारे लोगों
ने सारा कुछ देखा
राम जी को भेजा
भी होगा जरूर
चुपचाप कोई
ना कोई संदेशा
समाचार अखबार
में आता ही है हमेशा
बंदर हो हनुमान हो
चाहे राम हो
आस्था के नाम पर
कौन रुका कभी
और किसने है
किसी को रोका
मौहल्ला हो शहर हो
राज्य हो देश हो
तेरे जैसे लोगों
ने ही
हमेशा ही
विकास के पहिये
को ऐसे ही रोका
काम तेरा है देखना
फूटी आँखों से
रात के चूहों के
तमाशों को
किसने बताया
और किसके कहने
पर तूने दिन का
सारा तमाशा देखा
सुधर जा अभी भी
मत पड़ा कर
मरेगा किसी दिन
पता चलेगा जब
खबर आयेगी
बंदरों ने पीटा
हनुमान ने पीटा
और उसके बाद
बचे खुचे उल्लू

उलूक को राम
ने भी जी भर कर
तबीयत से पीटा ।

चित्र साभार:
www.dailyslave.com

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

आ जाओ अलीबाबा फिर एक बार खेलने के लिये चोर चोर


रोज जब चोरों से सामना होता है 
अलीबाबा तुम बहुत याद आते हो

सारे चोर खुश नजर आते हैं
जब भी चोर चोर खेल रहे होते हैं
और जोर जोर से चोर चोर चिल्लाते हैं

चोर अब चालीस ही नहीं होते हैं
मरजीना अब नाचती भी नहीं है

अशर्फियाँ तोलने के तराजू
और अशर्फियाँ भी अब नहीं होते हैं

खुल जा सिमसिम अभी भी कह रहे हैं लोग
खड़े हैं चट्टानों के सामने से
इंतजार में खुलने के किसी दरवाजे के

अलीबाबा बस एक तुम हो
कि दिखाई ही नहीं देते हो

आ भी जाओ 
इससे पहले हर कोई
निशान लगाने लगे दरवाजे दरवाजे
इस देश में

और पैदा होना शुरु हों गलतफहमियाँ
लुटने शुरु हों घर घर में ही घर घर के लोग

डर अंदर के फैलने लगें बाहर की तरफ
मिट्टी घास और पेड़
पानी बादल और काले सफेद धुऐं में भी

रहम करो
ले आओ कुछ ऐसा जो ले पाये जगह
खुल जा सिमसिम की
और पिघलना शुरु हो जायें चट्टाने

बहने लगे वो सब
जो मिटा दे सारे निशान और पहचान

सारी कायनात एक हो जाये
और समा जाये सब कुछ कुछ कुछ ही में

आ भी जाओ अलीबाबा
इस से पहले कि देर हो जाये 
और ‘उलूक’ को नींद आ जाये
एक नये सूरज उगने के समय ।

चित्र साभार: www.bpiindia.com

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

राम ही राम हैं चारों ओर हैं बहुत आम हैं रावण को फिर किसलिये किस बात पर जलाया


विजया दशमी के जुलूस में
भगदड़ मचने पर 
पकड़ कर थाने लाये गये
दो लोगों से 
जब पूछताछ हुई 

एक ने अपने को लंका का राजा रावण बताया 

दस सिर तो नहीं थे 
फिर भी हरकतों से सिर से पाँव तक
रावण जैसा ही नजर आया 

और दूसरे की पहचान
बहुत आसानी से 
अयोध्या के भगवान राम की हुई 

जिनको बिना देखे भी 
सारे के सारे रामनामी दुपट्टे ओढ़े भक्तों ने 
आँख नाक कान बंद कर के 
जय श्री राम का नारा जोर शोर से लगाया 

दोनो ने अपना गाँव 
इस लोक में नहीं 
परलोक में कहीं होना बताया 

मजाक ही मजाक में उतर गये 
उस लोक से इस लोक में 
इस बार दशहरा 
पृथ्वी लोक में आकर
खुद ही देखने का प्लान 
उन्होने खुद नहीं 
उनके लिये ऊपर उनके ही
किसी चाहने वाले ने बनाया 
ऊपर वालों ने नीचे आने जाने में अड़ंगा भी नहीं लगाया 

भीड़ से पल्ला पड़ा जब 
राम और रावण का नीचे उतर कर 

भीड़ में से किसी ने अपने आप को राम का भाई 
किसी ने चाचा 
किसी ने बहुत ही नजदीक का ताऊ बताया 

रावण के बारे में पूछने पर 
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया 
इसने उससे और उसने किसी और से
पूछने की राय दे कर अपना 
मुँह इधर और उधर को किया 
सभी ने अपना अपना पीछा रावण को देखते ही छुड़ाया 

राम की बाँछे खिली 
सामने खड़ी सारी जनता से उनकी 
खुद की रिश्तेदारी मिली 

और 
रावण बेचारा
सोच में पड़े खड़ा रह पड़ा 
किसलिये और किस मुहूर्त में 

राम के साथ रामराज्य की ओर 
ऊपर से नीचे एक बार 
और 
अपनी जलालत देखने निकल पड़ा ? 

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

शव का इंतजार नहीं शमशान का खुला रहना जरूरी होता है

हाँ भाई हाँ
होने होने की
बात होती है
कभी पहले सुबह
और उसके बाद
रात होती है
कभी रात पहले
और सुबह उसके
बाद होती है
फर्क किसी को
नहीं पड़ता है
होने को जमीन से
आसमान की ओर
भी अगर कभी
बरसात होती है
होता है और कई
बार होता है
दुकान का शटर
ऊपर उठा होता है
दुकानदार अपने
पूरे जत्थे के साथ
छुट्टी पर गया होता है
छुट्टी लेना सभी का
अपना अपना
अधिकार होता है
खाली पड़ी दुकानों
से भी बाजार होता है
ग्राहक का भी अपना
एक प्रकार होता है
एक खाली बाजार
देखने के लिये
आता जाता है
एक बस खाली
खरीददार होता है
होना ना होना
होता है नहीं
भी होता है
खाली दुकान को
खोलना ज्यादा
जरूरी होता है
कभी दुकान
खुली होती है और
बेचने के लिये कुछ
भी नहीं होता है
दुकानदार कहीं
दूसरी ओर कुछ
अपने लिये कुछ
और खरीदने
गया होता है
बहुत कुछ होता है
यहाँ होता है या
वहाँ होता है
गन्दी आदत है
बेशरम ‘उलूक’ की
नहीं दिखता है
दिन में उसे
फिर भी देखा और
सुना कह रहा होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

बहुत बार मन गधा गधा हो जाता है गधा ही बस अपना सा लगता है और बहुत याद आता है

कई बार
लिखते समय
कई संदर्भ में

याद
आये हो
गधे भाई

बहुत दिन
हो गये

मुलाकात
किये हुऐ

याद किये हुऐ
बात किये हुऐ

कोई खबर
ना कोई समाचार

आज
तुम्हारी याद
फिर से है आई

जब से सुनी है

जानवर के
चक्कर में

आदमी की
आदमी से हुई है
खूनी रक्तरंजित हाथापाई

आये भी
कोई खबर कैसे तुम्हारी

ना किसी
खबरची ने
ना ही किसी
अखबार ने

तुममें
कोई दिलचस्पी

आज तक
महसूस ही
नहीं हुआ
कि हो कभी दिखाई

मुलाकात
होती तो
होती भी कैसे

ना
अरहर की दाल से ही
तुम्हें कुछ लेना देना

ना
मुर्गे से ही
होता है तुम्हारा कभी
कुछ सुनना कहना

गाय
और भैंस में से

एक भी
नहीं कही
जा सकती तुम्हारी

नजदीक की
या बहुत दूर की बहना

बस
तालमेल दिखता है
तुम्हारा अगर कहीं तो

सिर्फ
और सिर्फ
अपने धोबी से

कुछ गंदे
कुछ मैले कुचैले
कुछ साफ सुथरे धुले हुऐ

कपड़ों के थैले से

अब
ऐसा भी होना
क्या होना

देश के
किसी भी
काम के नहीं

शरम
तुम्हें पता नहीं
कभी आई की नहीं आई

घास खाना
हिनहिनाना
और बस
खड़े खड़े ही सोना

ना खाने के काम के
ना दिखाने के काम के

चुनाव चिन्ह
ही बन जायें
ऐसा जैसा भी
तुमसे नहीं है
कभी भी होना

कितना
अच्छा है
ना भाई गधे

ना तुम्हें
किसी ने पूछना

ना तुम्हें
छेड़ने के कारण

किसी पर
किसी को
काली स्याही भी
कभी फेंकने के लिये

किसी को
ढकोसला
कर कर के रोना

आ भी जाया करो
दिखो ना भी कहीं
याद में ही सही

गर्दभ मयी
हो गया हो
जहाँ सब कुछ

बचा हुआ ही

ना लगे
कि है कहीं कुछ

तुमसे
गले मिल कर
ढाड़े मार मार कर

आज तो
‘उलूक’
को भी है

देश के नाम पर

देशभक्ति दिखाने

और
ओढ़ने
के लिये रोना ।

चित्र साभार: www.cliparthut.com

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

बातें बनाने तक की बात है चल ही जाती हैं नहीं चलती है तो फौज लगा कर चला दी जाती हैं

बातें
कितनी भी
बना ली जायें

लगता है
अभी कुछ ही
कहा गया है

बहुत कुछ है
जो बचा हुआ
रह गया है

जल की
इतनी बूँदें
होती और
जमा हो
गई होती

जलजला
ला देती
बहा देती

बहुत कुछ
छोड़ दिया
जाता

समय
के साथ
बहने के
लिये अगर

फिर
लगता है
बातें भी बूँद बूँद
ही जमा होती हैं

जैसी
जगह मिले
उसी की जैसी
हो लेती हैं

सामंजस्य
हो बात का
बात के साथ
जरूरी
नहीं होता है

कुछ बातें
खुद ही
तरतीब से
लग जाती हैं

कुछ
अपने ही आप
एक दूसरे पर
चढ़ जाती हैं

निकलना
चाहती हैं 
अंदर से बाहर


बेतरतीबी से
ऊँची नीची
सोच के साथ

उसी सोच
पर चढ़ कर
या उतर कर

आसान भी
नहीं होता है
बाँधें रखना

या फिर यूँ ही
छोड़ देना
बातों की
नकेल को

बातें एक साथ
अगर कह भी
दी जाती हैं

बाढ़ फिर भी
नहीं कभी
आ पाती है

बातें
पानी की तरह
बह तो जाती हैं

पर
दूर तक कहीं भी
नजर नहीं आती हैं

उनके
निशान भी
समय की रेत
पर खो जाते हैं

सबके बस में
नहीं होता है
जमा किये
रहना बातों को

कुछ
बहा देते हैं
यूँ ही कहीं भी
बातों को
बातों ही
बातों में

बातों
के बादल
भी नहीं बनते हैं

बात बात में
फटते भी नहीं हैं

बातें
निचोड़नी
पड़ती हैं

कुछ पीनी
पड़ती हैं
कुछ जीनी
पड़ती हैं

बात तो
तब बनती है

जब
कोई बात
बहुत ही
धीरे धीरे
हौले हौले से

बात
की बात में
बातों के बीच
छोड़ दी जाती है

कब काट
जाती है
कब फाड़
जाती है

कब कहाँ
किस को
चीर जाती है

उसके बाद
मटकती
उछलती
चल देती है

हर जगह
जा जा कर
नाच दिखाती है

देखते
रह जाते हैं
बातें बनाने वाले

उनकी
खुद की
कही बात
उन्हीं को
लपेट ले जाती है

‘उलूक’
जानता है
बहुत अच्छी तरह

सबसे
अच्छी बात

ऐसी ही
एक बात
होती है

जो
किसी
के भी
समझ में
कभी भी
नहीं
आ पाती है

बातें
बनाना
वैसे भी
किसी को भी

कहीं भी
नहीं सिखाया
जाता है

बातें तो
बात ही बात में

यूँ ही
चुटकी में
बना दी जाती हैं

मुश्किल
तब होती है

जब बातों
में से ही
एक बात

च्यूइंगम
हो जाती है ।

चित्र साभार:
www.shutterstock.com

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

सावन गुजरा इक्कीस इक्यावन ऐक सौ एक होते होते हो गये ग्यारा सौ हरा था सब कुछ हरा ही रहा

सावन निकल गया 
कुछ नया नहीं हुआ 

पहले भी सारा 
हरा हरा ही नजर आया है

अब तो
हरा जो है 
और भी हरा हरा हो गया है

किससे कहूँ किसको बताऊँ 
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है 
ना ही जरूरत है सावन की 

मेरे शहर में 
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ 
हाय 
उस समय सोचा भी नहीं 

किसी ने बहुत जोर देकर 
हरे को हरा ही कहा 
एक दिन नहीं कई बार कहा 
यहाँ तक कहा हरा 
कि 
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया 

होते होते 
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया 
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही 
पागलों का हो गया 

ऐसा भी क्या हरा हुआ 
हरा भरा शहर 
बचपन से हरा होता हुआ 
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया 
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी 
और क्या बताऊँ 
जो हरा नहीं भी था 
वो सब कुछ हरा हो गया 

इस सारे हरे के बीच में 
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद 

बस
जो नहीं बचा था 
वो ‘उलूक’ का हरा था

हरा
नजर आया ही नहीं 
हरे के बीच में 
हरा ही खो गया । 

चित्र साभार: www.vectors4all.net

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लिखे पर चेहरा और चेहरे पर लिखा हुआ दिखता

कभी किसी दिन
चेहरे लिखता तो कहीं कुछ दिखता 
बिना चेहरे के लिखा भी क्या लिखा 

गर्दन से कटा
बचा कुचा
बाकी शरीर के नीचे का बेकार सा हिस्सा 

चेहरा लिखने का मतलब
चेहरा और बस चेहरा 
आईने में देखी हुई शक्ल नहीं 

छोटे कान नहीं ना ही बहुत लम्बी नाक
ना पतली गर्दन ना काली आँख 
ना वैसा ना वैसे जैसा कुछ 
कुछ नहीं तो पैमाना लिखता 

कहीं
नपता पैमाना सुनता
मदहोश होता 
कुछ कभी
कहीं किसी के लिये 
क्या पता अगर मयखाना लिखता 

लिखना और नहीं लिखना
बारीक सी रेखा
बीच में लिखने वालों और नहीं लिखने वालों
के बीच की

लिखे के बीच में से
झाँकना शुरु होता हुआ चेहरा लिखता 

चेहरे के दिखते 
पीछे का धुँधलाना शुरु होता
लिखा और लिखाया दिखता

अच्छा होता
पहाड़ी नदी से उठता हुआ सुबह सवेरे का कोहरा लिखता 

स्याही से शब्द लिखते लिखते छोड़ देता लकीर 
उसके ऊपर लिख कर देखता चेहरे बस चेहरे
चेहरे पर चेहरे लिखता 

देखता
लिखा हुआ किसे दिखता और किसे नहीं दिखता ।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

आज यानी अभी के अंधे और बटेरें

कोई भी कुछ
नहीं कर सकता
आँखों के परदों
पर पड़ चुके
जालों के लिये
साफ दिखना
या कुछ धुँधला
धुँधला हो जाना
अपना देखना
अपने को पता
पर मुहावरों के
झूठ और सच
मुहावरे जाने
कहने वाले
कह गये
बबाल सारे
जोड़ने तोड़ने
के छोड़ गये
अब अंधे के
हाथ में बटेर
का लग जाना
भी किसी ने
देखा ही होगा
पर कहाँ सिर
फोड़े ‘उलूक’ भी
जब सारी बटेरें
मुहँ चिढ़ाती हुई
दिखाई देने लगें
अंधों के हाथों में
खुद ही जाती हुई
और हर अंधा
लिये हुऐ नजर
आये एक बटेर
नहीं बटेरें ही बटेरें
हाथ में जेब में
और कुछ नाचती
हुई झोलों में भी
कोई नहीं समय
की बलिहारी
किसी दिन कभी
तो करेगा कोई
ना कोई अंधा
अपनी आँख बंद
नोच लेना तू भी
बटेर के एक दो पंख
ठंड पड़ जायेगी
कलेजे में तब ही
फिर बजा लेना
बाँसुरी बेसुरी अपनी ।

चित्र साभार: clipartmountain.com

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com

सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

शिव की बूटी के उत्थान का समय भी आ रहा है


तब सही
समझे थे
या अब सही
समझ रहे हैं
बस इतना सा
समझ में नहीं
आ पा रहा है
जो है सो है
मजा तो
आ रहा है
बहुत दिनो के
बाद कुछ कुछ
लगा जैसे
पहाड़ी राज्य
की किस्मत का
दरवाजा ऊपर वाला
अब जाकर जल्दी
खोलने जा रहा है
भाँग की खेती
करने का अधिकार
जल्दी ही सरकार
के द्वारा पहाड़ी
किसानो को
दिया जा रहा है
बहुत अच्छी बात
इसमें जो बताई
समझाई गई है
उससे कोई खतरा
किसी को नहीं होगा
जैसा आभास
पहली बार में ही
आ जा रहा है
जंगलों में इफरात
से उगती है भाँग
जिस जमीन पर
काले सोने के
नाम से आज
भी ओने कोने
में बेचा खरीदा
जा रहा है
खेतों में उगाया
जायेगा अब
काला सोना
ठेका सरकार
और सरकार के
नुमाँइंदों को ही
दिया जा रहा है
सुरा ने किये
बहुत सारे
चमत्कार
इतिहास में लिखा
है बहुत कुछ
अब वही प्रयोग
पुन: एक बार कर
भाँग और भाँग से
बनने वाले शिव
भगवान की बूटी
को पहाड़ के
कोने कोने में
पहुँचाने का
अप्रतिम प्रयास
किया जा रहा है
जय हो देव भूमी
और देवताओं की
मुँह मत बिसूर
खुश हो ले ‘उलूक’
झूठ में ही सही
असुरों के सुरों पर
शोध करने का
सामान बहुत सा
जगह जगह के
लिये जमा
किया जा रहा है ।

चित्र साभार:
www.shrisaibaba.com
legalizethecannabis.tumblr.com

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

अनदेखा ना हो भला मानुष कोई जमाने के हिसाब से जो आता जाता हो

पापों को
अगर अपने
किसी ने
कह
दिया हो
फिर सजा
देने की बात
सोचने की
सोच किसी
की ना हो

हो अगर कुछ
उसके बाद
थोड़ा कुछ
ईनाम
वीनाम हो 
थोड़ा बहुत
नाम वाम हो 

कुछ सम्मान
वम्मान हो
उसका भी हो
तुम्हारा भी हो
हमारा भी हो

झूठ
वैसे भी
बिक नहीं
सकता कभी
अगर
खरीदने वाला
खरीददार
ही ना हो

कुछ
बेचने की
कुछ
खरीदने की
और
कुछ
बाजार की
भी बात हो
चाहे कानो
कान हो

सोच लो
अभी भी
मर ना
पाओगे
मोक्ष पाने
के लिये
कीड़ा
बना कर
लौटा कर
फिर वापस
यहीं कहीं
भेज दिये
जाओगे

जमाने के
साथ चलना
इसलिये भी
सबके लिये
बराबर हो
और
जरूरी हो

सीखना
झूठ बेचना
भी सीखने
सिखाने में हो
बेचना नहीं
भी अगर
सीखना हो
कम से कम
कुछ खरीदना
ही थोड़ा बहुत
समझने
समझाने में हो

खुद भी
चैन से
रहना
और
रहने
देना हो

‘उलूक’
आदत हो
पता हो
आदमी के
अंदर से
आदमी को
निचोड़ कर
ले आना
समझ में
आता हो

अनदेखा
ना
होता हो
भला मानुष
कोई भी
कहीं इस
जमाने में
जो किताबों
से इतर
कुछ मंत्र
जमाने के
हिसाब के
नये
बताता हो
समझाता हो ।

चित्र साभार: sushkrsh.blogspot.com

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

आग लिखना सरल है बाकी फालतू की आग है

आग है
बहुत है
इधर भी है
उधर भी है

जल भी
रहा है
बहुत कुछ
राख है
और
बहुत है
इधर भी है
उधर भी है

लगा हुआ है
धौंकने में
चिंगारी कोई
इधर भी है
उधर भी है

हो भी रहा है
कुछ नहीं भी
हो रहा है
इधर भी कुछ
उधर भी कुछ

अलग
अलग है
आग है
इधर की है
अलग 
है

अलग है
आग 
है
उधर की है

आग सोच की है
आग मोबाईल की है
आग फैशन की है
आग मोटर
साइकिल की है
आग पढ़ने की है
आग पढ़ाने की है
आग निभाने की है
आग पचाने की है
आग जमा करने की है
आग जलने की है
आग जलाने की है
आग लकड़ियों की है
आग जंगल और
जंगलियों की है
आग सब्सीडी की है
आग मेहनत की है
आग हराम खोरी की है

‘उलूक’
रुक जा

रुक जा
मत बाँट
आग को तो
कम से कम

आग आग है
आँख आँख है
परेशान
मत हुआ कर
हर आस्तीन
में साँप है

जरूरी भी है जो है
काटने वाला नहीं है
बस दिखाने का साँप है ।


चित्र साभार: newyork.cbslocal.com

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

ऊपर जाने के रास्ते समझो जरा नीचे से निकल कर जाने हो रहे हैं

डूबते हुऐ जहाज
में बहुत तेजी
से हो रहे हैं
एक नहीं एक
साथ हो रहे हैं
सारे हो रहे हैं
सारे के सारे
काम ही हो रहे हैं
काम का दिखना
जरूरी नहीं है
जरूरी है देखना
किनारे से
भोंपुओं के सहारे
सहारे से कई
इशारे हो रहे हैं
हो रहें हैं कि
नहीं हो रहे हैं
इतनी गजब की
बातें हो रही है
ये सब कुछ
जल्दी ही गिन कर
गिनीज बुक को
बताने हो रहे हैं
जहाज की सैल्फी
डूबती हुई जनता
खुद ही ले रही है
किस्मत बहुत ही
खराब है कुछ
लोगों की जहाँ
जहाज चलाने वाले
के लोगों के शोर
नगाड़ों के शोर
में खो रहे हैं
किसी के होश
उड़ रहे हैं जहाज
के डूबने की
सोच सोच कर
पैंट के पाँयचे
ना जाने किस डर
से गीले हो रहे हैं
बेवकूफ का बेवकूफ
रह गया ‘उलूक’
उसे तो हमेशा
दिखा है सोचने
समझने के
लाले हो रहे हैं
वादा किया भी है
ऊँचाईयों में ले
जाने का जहाज
वादा निभाने के
लिये ही तो काम
सारे हो रहे हैं
किसने कह दिया
ऊपर को ही जाना
जरूरी है ऊँचाईयाँ
छूने के लिये
मन लगा कर
इच्छा से डूब कर
भी ऊपर को ही
जाने के रास्ते
जब बहुत
आसान और
बहुत सारे हो रहे हैं ।

चित्र साभार: blogs.21rs.
es  

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

ना इसका हूँ ना उसका हूँ क्या करूं इधर भी हूँ उधर भी रहना ही रहना है


मत नाप
लिखे हुऐ वाक्यों की लम्बाई को 
पैमाना हाथ में लेकर अपने 
कुछ भी तो कहीं भी नहीं होना है 

दो इंच बड़ा भी हो जाये
या तीन इंच आगे या पीछे से कहीं 
कम भी अगर
कहीं किसी बात को होना है 

इधर का इधर और उधर का उधर
बस बहस के लिये 
कैमरे के सामने बैठ कर दिखाने सुनाने का रोना है 

नहीं समझेगा फिर भी 
पता है तुझे
तेरे अपने फटे में खुद ही हाथ डाल कर 
सोचना अपने ही खेलने के लिये कोई खिलौना है 

लिख कुछ बोल कुछ दिखा कुछ बता कुछ 
छपा कुछ दे कुछ दिला कुछ 
पता किसी को कुछ भी नहीं होना है 

काले कोयले का धुआँ सफेद राख सफेद 
बचा कहीं उसके बाद कहीं कुछ नहीं होना है 

लगा रह
देखने में कुछ कलाबाजी कुछ कलाकारी 
दिखना
सब सफेद है साफ सुथरा 
कुछ दिनो के बाद
कौन सा किस को कहाँ उसी जगह पर 
लम्बे समय तक
खसौटे गये को दिखने दिखाने के लिये रहना है 

‘उलूक’ की आदत है 
उसको भी कुछ भी कभी भी कहीं भी 
कहने के लिये ही बस कुछ कहना है । 

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

गाय बहुत जरूरी होती है श्राद्ध करने के बाद पता चल रहा था


श्राद्ध पक्ष अष्टमी पिता जी का श्राद्ध 
सुबह सुबह पंडित जी करवा कर गये आज 

साथ में श्राद्ध में प्रयोग हुऐ व्यँजनों को 
किसी भी गाय को खिलाने का निर्देश भी दे गये 

गलती से भी 
कौर खाने का किसी बैल के मुँह में 
गाय से पहले ना लगे जरा सा 
खबरादर भी कर के गये 

श्राद्ध करने कराने तक तो सब 
आसान सा ही लग रहा था 

कोई मुश्किल नहीं पड़ी थी 
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था 

गाय की बात आते ही 
समस्या लेकिन बड़ी एक खड़ी हो गई थी 

रोज कई दिनों से अखबार टी वी रेडियो 
जगह जगह से गाय गाय की माला जपना 
हर किसी का दिखता हुआ मिल रहा था 

गाय को देखे सुने कई जमाने हो चुके थे 
घर के आस पास दूर दूर तक 
गाय का पता नहीं मिल रहा था 

घर से निकला 
हर दुकान में गाय का 
प्लास्टिक का पुतला जरूर दिख रहा था 

पीठ में एक छेद था पैसा डालने के लिये 

आगे कहीं एक नगरपालिका का कूड़ेदान दिख रहा था 

एक घायल बैल 
प्लास्टिक के एक बंद थेले के अंदर के 
कचरे के लिये जीजान से उस पर पिल रहा था 

‘उलूक’ चलता ही जा रहा था 
गाय की खोज में 
गाय गाय सोचता हुआ चल रहा था 

खाने से भरा थैला 
उसके दायें हाथ से कभी बायें हाथ में 
कभी बायें हाथ से दायें हाथ में 
अपनी जगह को बार बार बदल रहा था ।

चित्र साभार: www.allfreevectors.com