उलूक टाइम्स

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

‘उलूक’ साफ करना है बहुत सारा इतिहास है


ना खुश है ना उदास है 
थोड़ी सी बची हुयी है
है कुछ आस है 

बहुत कुछ लिखना है 
कागज है कलम की है इफरात है 

ना नींद है ना सपने हैं 
शाम से जरा सा पहले की है बात है 

बन्द है बोतल है खाली है गिलास है
अंधेरा है अमावस की है रात है 

ना पढ़ना है ना पढ़ाना है 
किताबों के नीचे दबी है खुद की है किताब है 

श्याम पट काला है सफेद है चॉक है 
खाली है कक्षा है बस थोड़ी सी उदास है 

ना समझना है ना समझाना है 
नयी तकनीक है आज है सब की है बॉस है 

गुरु घंटाल हैं जितने मालामाल हैं 
सरकारी ईनाम हैं लेने गये हैंं सारे हैं खास हैं 

ना राधा है ना कृष्ण है 
राधाकृष्णन का जन्मदिन
सुना है शायद है आज है 

पदचिन्ह हैंं मिटाने हैं नये अपने बनाने हैं ‘उलूक’ 
साफ करने हैंं बहुत हैंं सारे हैं इतिहास हैंं । 

चित्र साभार:
https://www.1001freedownloads.com

सोमवार, 2 सितंबर 2019

मुखौटों के ऊपर मुखौटा कुछ ठीक से बैठता नहीं ‘उलूक’ चेहरा मत लिख बैठना कभी अपना शब्दों पर




एक
भीड़
लिख रही है 

लिख रही है
चेहरे
खुद के 

संजीदा
कुछ
पढ़ लेने वाले

अलग
कर लेते हैं

सहेजने
के लिये 

खूबसूरती
किसी भी
कोण से 

बना लेते हैं
त्रिभुज
या
वर्ग 

या
फिर
कोई भी
आकृति

सीखने में
समय
लगता है 
सीखने वाले को

पढ़ने वाले 
के
पढ़ने के
क्रम

जहाँ
क्रम होना
उतना 
जरूरी नहीं होता 

जितना
जरूरी होता है 

होना
चेहरा
एक अ‍दद 

जो
ओढ़ सके
सोच 

चेहरे के
ऊपर से 

पढ़ने
वाले की
आँखों की 

आँख से
सोचने वालों
को

जरूरत
नहीं होती
दिल
और
दिमाग की 

‘उलूक’
कभाड़
और
कबाड़ में 

कौन
शब्द सही है
कौन गलत 

कोई
फर्क
नहीं पड़ता है 

लगा रह
समेटने में 
लिख लिखा कर
एक पन्ना

संजीदगी
से
संजीदा
सोच का 

बस
चेहरा
मत दे देना
अपना

कभी
किसी
लिखे के ऊपर 

मुखौटों के ऊपर
मुखौटा
कुछ
ठीक से
बैठता नहीं।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

रविवार, 1 सितंबर 2019

कभी खरीदने आना होता है कभी बेचने जाना होता है आना जाना बना कर ही संतुलन बनाना होता है


कुछ
शब्दों को
इधर

कुछ
शब्दों को
उधर

ही तो
लगाना होता है

बकवास
करने में
कौन सा
किसी को

व्याकरण
साथ में
समझाना
होता है

कौमा
हलन्त चार विराम
अशुद्धि
चंद्र बिंदू
सीख लेना
बोनस
बनाना होता है

उनके लिये
जिन्हें
एक ही बात से
दो का मतलब
निकलवाना होता है

रोज का रोज
उगल दिया जाना

जमाखोरों
की
जमात में जाने से
खुद को
बचाना होता है

केवल
संडे मार्केट में
दुकान
लगाने वाले के लिये

एक
बड़ी मुश्किल
माल को
ठिकाने
लगाना होता है

लोकतंत्र में
कुछ भी
बेच लेने वाले
के
बोलबाले
का
दिवाना
सारा जमाना होता है

‘उलूक’
खाली
हो जायेगी
दुकान
कहना छोड़

सपने में
भी
खाली
देख लेने
वाले को

सबसे पहले
अन्दर
जाना होता है ।

चित्र साभार: https://www.ttu.ee

शनिवार, 31 अगस्त 2019

ठीक नहीं ‘उलूक’ थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना



आभार पाठक
 'उलूक टाइम्स' पर जुलाई 2016 के अब तक के अधिकतम 217629 हिट्स को 
अगस्त 2019 के 220621 हिट्स ने पीछे छोड़ा 
पुन: आभार 
पाठक


सुना गया है
अब हर कोई एक खुली हुयी किताब है 

हर पन्ना जिसका
झक्क है सफेद है और साफ है 

सभी लिखते हैं
आज कुछ ना कुछ
बहुत बड़ी बात है 

कलम और कागज ही नहीं रहे बस
बाकी सब इफरात है 

कोई नहीं लिखता है कहीं
किसी भी अन्दर की बात को 

ढूँढने निकलता है
एक सूरज को मगर
वो भी किसी रात को 

सोचता है साथ में
सब दिन दोपहर में
कभी आ कर उसे पढ़ें

कुछ वाह करें
कुछ लाजवाब
कुछ टिप्पणी
कुछ स्वर्णिम गढ़ें

समझ में
सब के सब कुछ
बहुत अच्छी तरह से आता है 

जितने से
जिसका काम चलता है
उतना समझ गया होता है
उसे
ढोल नगाड़े साथ ला कर
खुल कर
जरूर बताता है 

जहाँ फंसती है जान
होता है
बहुत बड़ी जनसंख्या से जुड़ा
कोई उनवान
शरमाना दिखा कर
अपने ही किसी डर के खोल में
घुस जाता है 

किस अखबार को
कौन कितना पढ़ता है
सारे आँकड़े
सामने आ जाते हैं 

किस अखबार में
कैसे अपनी खबर कोई
हर हफ्ते छपवा ले जाता है
कैसे हो रहा है होता है
ऐसा कोई
पूछने ही नहीं जाता है 

कोई
नजर नहीं आता है का मतलब
नहीं होता है
कि
समझ में नहीं आता है 

उलूक के लिये
बस
एक राय 

लिखना लिखाना छपना छपाना कहीं भीड़ कहीं खालिस सा वीराना
‘उलूक’ ठीक नहीं थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

जी डी पी और पी पी पी में कितने पी बस गिने कितने हैं मगर किसी को ना बतायें



कुछ
चुटकुले

अगर
समझ में
ना भी आयें

खुल के
खिलखिला के

अगर
हँस
ना भी पायें

कोशिश
कर लें
थोड़ा सा

बिना
बात भी
कभी यूँ ही
मुस्कुरा
जायें 

किस लिये
समझनी
हर बात
अपने
आस पास की

कुछ
हट के
माहौल
भी

जरा जरा
मरा मरा
छोड़ कर

बनाने
को
कहीं चले जायें

कविता कहानी
गजल शेर के
मज़मून
भरे पड़े हैं

जब
फिजाँ में हर तरफ

किसलिये
बेकार में

उलझे हुऐ से
विषय
कबाड़ से
उठा उठा कर
ले आयें

मजबूत हैं
खम्बें
पुलों के
मान कर

उफनती
नदी में
उछलती
नावों में
अफीम ले के
थोड़ी सी

हो सके
तो
सो जायें

खबर
मान लें
बेकार सी
फिसली हुई
‘उलूक’
के
झोले के छेदों से

जी डी पी
पी पी पी
जैसी
अफवाहों को

सपने देखें
खूबसूरत
से
दिन के
चाँद और तारों के

 बॉक्स आफिस
में
हिट होगी
फिर से
फिलम
पड़ोसी के
घर में लगी आग
की
अगले पाँच सालों
में एक बार

जल जला
कर
हो गया होगा
राख

मान लें 

शोर कर
ढोल
और
नगाड़ों का
इतना

कि
पूछने का
रोग लगे
रोगी

किसी से

क्या हुआ
कैसे हुआ
और
कब हुआ

पूछ ही
ना पायें।
चित्र साभार: https://www.cleanpng.com

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

‘फॉग’ चल रहा है ‘डबल क्रॉस’ चल रहा है खुश्बुओं का जोर है बस फैलने फैलाने को मचल रहा है


कहीं 
‘फॉग’
चल रहा है 

कहीं
‘डबल क्रॉस’
चल रहा है 

मौसम
बारिश का है 

मौज में

बस 
भ्रम
फैलाने को
बदल रहा है 

सफल है
सफलता है 

सीखने
सिखाने
को
मिल रहा है 

खाली
तरकश है 
खून खराबे
से ही
बस
उसे
बड़ी नफरत है 

बस
तीर को
ही
छल रहा है 

बन्दूकें हैं
बन्द सन्दूकों में हैं 

अपनी
रक्षा का
अधिकार है 

संवैधानिक है
स्वीकार है 

कुछ खेल हैं
 कुछ खिलौने हैं 

एक धनुष
बिना प्रत्यंचा
का

बस
दिखाने
को ही
निकल रहा है 

तेजी है
रफ्तार है

चाँद छोड़
 मंगल
तक
 जाने को
तैयार है 

घर की
औरतों के

बस
गहने
ही
बेच खाने
को
मचल रहा है 

जश्न
के
शोर हैं

आशाओं
के
सपनों को

बहकाने
वाले
मोर हैं 

सब कुछ
बदल रहा है

‘उलूक’
ध्यान
किस ओर है 

घर
पूरा
हिल रहा है

और 
तेरा
‘फॉग’
चल रहा है 
‘डबल क्रॉस’
चल रहा है

खुश्बुओं
का
जोर है

बस
फैलने
फैलाने को
मचल रहा है ।



बुधवार, 28 अगस्त 2019

दिखाता नहीं है शक्ल के शीशे में कुछ मगर आईना आँखों का चमक रहा होता है



जो
लिखना
होता है

उसी को
छोड़ कर

कुछ कुछ
लिख रहा होता है 

नहीं
लिखा सारा

लिखे
लिखाये
के पीछे खड़ा
छुपा
दिख रहा होता है 

ना
सामान होता है
ना
दुकान होती है
मगर

थोड़ा रोज
बिक रहा होता है 

आदत
से मजबूर
बिकने की
बाजार में
बिना टाँगें भी
टिक रहा होता है 

नसीब
होता है
उस
पढ़ाने वाले का

अपने
पढ़ने वालों से
पिट रहा होता है 

उपद्रव मूल्य
होता है
दोनों का
जहाँ

उपद्रव
खुद ही
अपने से
निपट रहा होता है 

परम्परायें नयी
मूल्य नये
परिभाषायें नयी

नयी गीता
नयी रामायण में
सब कुछ नया
सिमट रहा होता है 

नये कृष्ण
नये राम
नये गाँधी
नये बलराम

सब
इक्ट्ठा किये
जा रहे होते हैं

एक
जगह पर
ला ला कर
फिर भी 

बेशरम
‘उलूक’

हमाम के
अन्दर
के
सनीमा में भी

कपड़ों
की
तस्वीरों
से

पता नहीं
किसलिये

चिपट
रहा होता है ?

चित्र साभार: 



सोमवार, 26 अगस्त 2019

बकवास भटक जाती हैं जब आस पास की लाजवाब कविताएं लेख कहानियाँ बहुत सारी आ कर इठलाती हैं



जन्म
लेने के
साढ़े पाँच
दशक से
थोड़ा
ऊपर जा कर

थोड़ा थोड़ा
अब समझ में
आने लगे हैं
मायने
कुछ
महत्वपूर्ण
शब्दों के

ना
माता पिता
सिखा पाये
ना शिक्षक
ना ही
आसपास
का परिवेश
और
ना ही समाज

ये भी
पता
नहीं लग पाया
कि
ये कुछ शब्द
निर्णय करेंगे
अस्तित्व का

होने
या
ना होने
के बीच
की
रेखा के
इस तरफ
या
उस तरफ

प्रेम
द्रोह
और
देश

आत्मग्लानि
और
आत्मविश्वास
कतार से
आता है

कतार
देख कर
आता है

कोई
कैसे

सीख
सकता है

स्वत: ही
काटते हुऐ
अपने अंगूठे

विसर्जन
करते हुऐ
गुरु के लिये

चीटियाँ
और
उनके
सामाजिक
व्यवहार
की परिभाषाओं
से
सम्मोहित होकर
मान लेना
नियम
प्रकृति के
पीड़ा दे जाये
असंभव है

संभव
दिखाया
जाता है

महसूस
कराया जाता है

और
वही शाश्वत है

जो
दिख रहा है
उसपर
विश्वास मत कर

जो
सुनाई दे रहा है
वो झूठ है

सबसे
बुरी बात
अपनी इंद्रियों पर
भरोसा करना है

इधर उधर
देख
और
समझ
विद्वान की विद्वता

जब तक
किसी के द्वारा
परखी ना गयी हो

उसका
कोई प्रमाण पत्र
कम से कम
तीन हस्ताक्षरों
के साथ ना हो
बेकार है

कतार
बेतार का तार है

बेकतार
सब बेकार है

कुछ
बच्चों से सीख

कुछ
उनके
नारों से सीख

कुछ
कतार
लगाने वालों
से सीख

दिमाग खोल
और
प्रेमी बन

द्रोही
किसलिये

तुझे
समझाने वाले
सब

कहीं ना कहीं
किसी ना किसी
कतार से जुड़े हैं
‘उलूक’

ये सोच लेना
कि
अकेला चना
भाड़ नहीं
फोड़ सकता है

चनों की
बेइज्जती है

उस
चने की
सोच

जिसने
प्रेम द्रोह
और देश
को
परिभाषित
कर दिया है

और
सब कुछ
कतार में है
आज चने की ।

चित्र साभार: https://longfordpc.com

रविवार, 25 अगस्त 2019

कुछ भी लिख ‘उलूक’ मगर लिख रोज लिख हर समय लिख किस लिये कोई दिन बिना कुछ लिखे ही बितारा



कल का 
लिखा

क्या
बिक गया
सारा

आज
फिर से
उसी पर

किसलिये

वही कुछ
लिख लारा
दुबारा

देख

वो
लिख लारा
घड़ियाँ सारी

समय
सबको

जो 
आज
सबका
दिखारा

समझ

पीठ में
लगी चाबियाँ
अपनी
टिक टिक की

दूर कहीं

कहाँ
जा कर
छुपारा

क्यों नहीं

पूछ
कर ही
लिख लेता
किसी से 

कुछ

उसी 

के
हिसाब का

ऐसा
सोच
क्यों नहीं
पारा

सोच

नहीं
सोचा जारा
जिससे

वो
लिखना छोड़

कुछ
पढ़ने को
चला आरा

बता

समझ
में आना

किस ने
कह दिया
जरूरी है

नहीं
आरा
समझ में

तो
नहीं आरा
बतारा

और

जो
समझ भी
जारा
कुछ

कुछ
कहने में
फिर भी
अगर
हिचकिचारा

कौन सा
कुछ

अजब गजब
जो
क्या हो जारा

एक
कविता कहानी साहित्य
के
पन्नों के
थैले बनारा

दूसरा

बकवास
की
मूँगफली के
छिलके
ला ला
कर
फैलारा

तीसरा

इसकी
टोपी
उसके सिर
में
रख कर
के
आरा

सबसे बड़ा

दीवार
चढ़कर
उतरकर
बड़ी खबर
पकारा

उसके
साथ खड़ा

असली
खबर को

देश दुनियाँ
की
फैली
घास बतारा

‘उलूक’

कविता
कहानियों
के बीच

बकवास
अपनी

कई
सालों से
पकारा

सिरफिरा
समझ रा
दिमागदारों
को
पढ़ारा

निचोड़
इन
सब का
अंत में

लिख कर
ये
रख जारा

कुछ
भी लिख

रोज
कुछ
लिखना
जरूरी है

मत कहना
नहीं
बताया

कम कम
लिखने
वालों
का
चिट्ठा दर्जा

आगे
आते आते

पीछे
कहीं
रह जारा।

चित्र साभार: https://www.amazon.in/dp/159020042X?tag=5books-21

बुधवार, 21 अगस्त 2019

चाँद सूरज की मिट्टी की कहानी नहीं भी सही ‘उलूक’ किसी पत्थर को सिर फोड़ने की दवाई बता कर दे ही जायेगा



अभी तो
बस

शुरु सा
ही
किया है
लिखना

किसे
पता है
कहाँ तक
जा कर

सारा सब
लिख
लिया जायेगा

क्या
लिख रहे हैं
और
किसके लिये

किसलिये सोचना
अभी से

कौन सा
पढ़ लेने
वालों को
भी
समझ में

सारा
सब कुछ
इतनी जल्दी
ही
आ जायेगा

वो
लिखते हैं ये

हम
समझते हैं वो

इस उस
से
उलझते हुऐ

बहुत कुछ
गुजर जायेगा

उसका
वो
लपेटेगा उसको
उधर ही

इधर
के
लपेटे में
इधर का ही
तो
लपेटने समेटने
के
लिये आयेगा

छोटी छोटी
कहानी
कुछ पहेली
कुछ झमेले

सब के
अपने अपने
घर गली
मोहल्ले शहर के

किस लिये
सुनाने बताने समझाने

किसी
दूर बैठे
उबासी भरे
मगज के विद्वान को

कौन सा
देश बनना है
मिल मिला कर

घर घर
की
समस्याओं को

घर में
आपस में
मिलबाँट
कर

इधर से उधर
खिसका
दिया जायेगा

वो
चाँद से
सूरज तक
लिखे
बहुत अच्छा है

रात
का निसाचर
‘उलूक’
भी

तारे
नहीं भी सही
नजदीक के

किसी
उल्कापिंड तक
पहुँचा कर
पाठकों को

कुछ
कम ही मगर

उलझा
तो
ले ही जायेगा।

चित्र साभार: https://paintingvalley.com



सोमवार, 19 अगस्त 2019

कलम की भी आँखें निकल सकती हैं कभी चश्मे भी आ सकते हैं बाजार में पढ़ देने वाले निराश नहीं होते हैं




कुछ
लिखते
बहुत कुछ हैं

मगर
किताब
नहीं होते हैं 

कुछ
लिखी
लिखायी
किताबों के

पन्ने
साथ
नहीं होते हैं 

कुछ
किताबें
देखते हैं

लिखते हैं
दिन
और रात
नहीं होते हैं 

किताबों
को
लिखना
नहीं होता है

उनके
हाथ नहीं होते हैं 

कुछ
बस
लिखते
चले जाते हैं

रुकने के
हालात
नहीं होते हैं 

चलती
कलम होती हैं

और

पैर
कभी
किसी के
आँख
नहीं होते हैं 

अजीब
सा रोते हैं

कुछ
रोने वाले
हमेशा
सोच कर

बेबात
नहीं रोते हैं 

लिखें
और
पढ़ें भी

पढ़ें और
लिखें भी

दो रास्ते

एक
साथ
नहीं होते हैं 

सीखने वाले
सीख लेते हैं
लिखते पढ़ते

कुछ ना कुछ
लिखना पढ़ना
‘उलूक’

इतना
भी
हताश
नहीं होते हैं

कलम
की भी

आँखें
निकल
सकती हैं
कभी

चश्मे भी
आ सकते हैं
बाजार में
पढ़
देने वाले

निराश
नहीं होते हैं ।

चित्र साभार: https://www.123rf.com

शनिवार, 17 अगस्त 2019

झूठ लिखने का नशा बहुत जियादा कमीना है उस के नशे से निकले तो सही कोई तब जाकर तो कोई कहीं एक सच लिखेगा



आखिर
कितना

और

कब तक

इतना

एक
चेहरा


बदसूरत 
सा 
लिखेगा

बहुत सुन्दर

लिखने
का
रिवाज है

लिखे
लिखाये
पर
यहाँ

लिख देने का

कोई
अगर
लिख भी देगा

तो भी
वैसा ही
तो

और
वही कुछ
तो
लिखेगा

लिखे
को
लिखे के
ऊपर रखकर

कब तक

नापने
का
सिलसिला
रखेगा

लिखने
के
पैमाने

कुछ
के पास हैं

नापने
के
पैमाने

नापने
वाला ही
तो

अपने
पास रखेगा

लिखने
का
मिलता है

कुछ
किसी को

किसी
को
लिखे को

फैलाने
का
मिलता है

कुछ

हर
किसी की
आँख

अपनी तरह
से
देखेगी

दूरबीन
तारे देखने
की हो

तो
कैसे

चाँद
उसमें
किसी को

साथ में

कैसे
और क्यों
कर के
दिखेगा

कुछ नहीं
लिखने वालों
की
सोच

अच्छी बनी
रहती है
हमेशा

जो
लिखेगा
उसके लिखे
 पर ही
तो
उसका चेहरा

पूरा
ना सही

थोड़ा सा
तो
कहीं

किसी
कोने में से
कम से कम

झाँकता
सा
तो
दिखेगा

सालों
निकल जाते हैं

सोचने में

सच
अपना
‘उलूक’

सच में

किसी दिन

एक सच

कोई

कहीं
तो

लिखेगा

झूठ
लिखने
का
नशा

बहुत
जियादा
कमीना है

उस के
नशे से

निकले
तो
सही
कोई

तब
जाकर
तो
कोई

एक

झूठा सा
सही

सच

कहीं और
किसी
जगह

जा
कर के
तो
लिखेगा।

चित्र साभार: http://clipart-library.com

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

लिखना जरूरी है तरन्नुम में मगर ठगे जाने का सारा बही खाता हिसाब



लिखना
जरूरी है

तरन्नुम
में मगर

ठगे
जाने का
सारा

बही
खाता हिसाब

कौन
जानता है

सुर मिले
और
बन पड़े

गीत
एक
धुप्पल में
कभी

यही बकवास

आज ही
के दिन
हर साल

ठुमुकता
चला आता है

पुराने
कुछ
सूखे हुऐ
घाव कुरेदने

फिर
एक बार
ये अहसास


भूला
जाता है
ताजिंदगी

ठगना
खुदा तक को 
खुद का

बुलंद कर खुदी

कहाँ
छुपता है
 जब
निकल पड़ती है

किसी
बेशरम की कलम

खोदकर
किसी
पुरानी कब्र से
 खुद
अपनी भड़ास

निकलते हैं
कपड़े
झक सफेद
कलफ इस्त्री किये

किसी
खास एक दिन
पूरे साल में

धराशायी
करते हुऐ
पिछले
कई सालों के

कीर्तिमान
ठगी के पुराने
खुद के खुद ही
बेहिसाब

फिर भी
जरूरी है
‘उलूक’

बिता लेना
शुभ दिन
के
तीन पहर
किसी तरह
यूँ ही

बधाईयाँ

मंगलकामनाओं
के
बण्डल बाँधकर

चौथे पहर
लिख लेना
फिर
सारा
सब कुछ
ठगी
उठाईगिरी

या
और भी
कुछ
अनाप शनाप।

चित्र साभार: https://biteable.com

सोमवार, 12 अगस्त 2019

तेरे जैसे कई हैं ‘उलूक’ बिना धागे के बनियान लिखते हैं


तारे
कुछ 
रोशनी के 
सामान 
लिखते हैं 

चाँद 
लिखते हैं 
आसमान 
लिखते हैं 

मिट्टी
पत्थर 
कुछ 
बेजुबान 
जमीन के 

सोच 
बैठते हैं 
वही
एक हैं 

जो 
जुबान 
लिखते हैं 

सिलवटें 
लिखते हैं 

सरेआम 
लिखते हैं 

कुछ 
लकीरें 
सोच कर 

तीर
कमान 
लिखते हैं 

कितना 
लिखते हैं
कुछ 

कई 
पन्नों में
बस 

हौले से 
मुस्कुराता
हुआ 
उनवान
लिखते हैं 

कुछ 
घर का 
लिखते हैं 

कुछ 
शहर का 
लिखते हैं 

थोड़े 
से
कुछ 

बस
मकान 
लिखते हैं 

अन्दर 
तक 

घुस के 
चीर 
देता है 

किसी 
का लिखना 

थोड़े से 
कुछ
बेशरम 

नुवान
लिखते हैं 

दाद देना 
बस में 
नहीं है 

दिखाते 
जरूर
हैं 

हिंदुस्तान 
लिखते हैं 

क्यों 
नहीं
लिखता 
कुछ नया 

लिखने जैसा 

तेरे जैसे 
कई हैं 
 ‘उलूक’ 

बिना 
धागे के 

बनियान 
लिखते हैं ।

 चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

स्टेज बहुत बड़ा है आग देखने वालों की भीड़ है ‘उलूक’ तमाशा देख मदारी का


किस लिये
ध्यान देना

कई
दिशाओं में

कई कई
कोसों तक
बिखरे हुऐ

सुलगते
छोटे छोटे
कोयलों
की तरफ

ना
आग ही
नजर आती है

ना ही
नजर आता है
कहीं
धुआँ भी
जरा सा

बेशरम
कोयले
समय भी
नहीं लेते हैं

कब
राख हो जाते हैं

कब
उड़ा ले जाती है
हवा

निशान भी
इतिहास
हो जाते हैं

इतिहास
लिखे जाने से
पहले ही

अपने
घर से
कहीं
 बहुत दूर
लगी

बहुत
बड़ी
लपट की
बड़ी आग

होती है
काम की आग

आकर्षित
करते हैं
उसके रंग

चित्र भी
अच्छे आते हैं
कैमरे से

कलाकार
की
तूलिका भी
दिखा सकती है
कमाल

आग को
रंगों में उतार कर
कागज पर

लगता तो है

कहीं
कुछ जला है

धुँआ
भी हुआ है

और
सोच भी
हो पाती है
कुछ
पानी पानी सी

कौन सा
गीला
करना होता है
समय को
शब्दों से

और
कहाँ
लिखा होता है

किसी की भी
मोटी
पूज्यनीय
किताब में

कि
जरूरी होता है
उड़ा देना
राख को
गरमी
रहते रहते

इत्मीनान
भी कोई
चीज होती है

इतिहास
के लिये
ना सही

बही खाते में
लिख कर
जमा कर लेने
से भी
फायदा होता है

साठ सत्तर
दशक बाद
कोई भी
 किसी पर भी
लगा देगा
इल्जाम

चकमक पत्थर
घिस घिसा कर
आग लगाने का

‘उलूक’
तमाशा देख
मदारी का

स्टेज
बहुत बड़ा है

आग
देखने वालों की
भीड़ है

वैसे भी

आग
किसी को
सोचनी जो
क्या है

सोच लेने
से भी
कुछ
जलता
नहीं है 

ठंड रख।

चित्र साभार: https://pngtree.com

रविवार, 4 अगस्त 2019

किसलिये खुद सोचना फिर बोलना भी खुद ही हमारे होने के डर का अहसास किसी दिन तेरे चेहरे पर भी दिखेगा



मत सोच 

हम
हैं ना 
सोचने के लिये

मत बोल

हम
बोल तो रहे हैं

मत देख

दिख रहा है
की
गलतफहमी
मत पाल

हम
देख रहे हैं
बता देंगे
खुद देख कर

क्या करेगा
वैसे भी

खुद
सोच लेना

पाप हो चुका है

देखना
और
दिख रहा है
मान लेना

उससे बड़ा
पाप बन गया है

बोलना
सोच कर
दिख रहे के
ऊपर कुछ

महापाप है

बल्कि
सबसे बड़ा
साँप कहिये

या
समझ लीजिये

खुद को
खुद दिया गया
एक श्राप है

मान लिया
देख भी लिया
तूने
सब कुछ
या
थोड़ा कुछ भी

और
सोच भी लिया
चल

लगा कर
कुछ
अपना दिमाग ही

कोई बात नहीं

बोलना

शुरु
मत कर देना

कर भी देगा

तो भी
क्या होना

हम हैं ना
बोये हुऐ
उसके

उगे हुऐ उसके लिये

घेर लेंगे

जबान
खुलते ही तेरी

बेकार
में ही
हतोत्साहित
करना पड़ेगा

हम
एक नहीं उगे हैं

भीड़
हो चुके हैं

बच नहीं सकेगा

बोलने से
पहले
गिर पड़ेगा
अपनी ही नजर में

समझदारी कर

मान ले

कुछ नहीं
दिख रहा है

मान ले

कुछ नहीं
सुन रहा है

मान ले

सोच में
कीड़ा
लग चुका है

हम हैं ना

बता
तो रहे हैं
क्या देखना है

हम हैं ना

समझा
तो रहे हैं
क्या सोचना है

पूछ लेगा

बोलने
से पहले
अगर
‘उलूक’

लिखने लिखाने
पर
ईनाम भी
भारी मिलेगा

उस की
जय जय
हमारी भी
जय जय
के साथ

तेरी
किस्मत का
नया एक अध्याय
शुरु होगा

चैन से
जीने
 दिया जायेगा

भीड़ के
चेहरे में
तेरा चेहरा
मिलमिला कर

एक
 इतिहास 
नया

गुलामों
की मुक्ति का

फिर से

हमारा
जैसा
कोई एक

भीड़
में से
ही लिखेगा।

चित्र साभार:
http://www.picturesof.net


शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

बधाई प्रिय रवीश कुमार एक अच्छा दिन आया है आज कई सालों के बाद



एक 

लम्बे 
अन्तराल
के
पश्चात 

जैसे 
कुछ सुबह 
सी हुई

एक 
काली 
घुप्प अंधेरी 
रात के बाद 

रोशनी 
की
एक 
किरण आई 

सालों
से 
अन्धे पड़े हुऐ 

उनींदे 
खयालातों
को 
कुछ कुछ याद 

अप्रत्याशित 

सुना 
समाचार 

रवीश 
को मिला है 

नोबेल 
एशिया का 

सोच से 
बाहर
की 
हुई
वैसे भी 

इस 
समय
के 
हिसाब से 
ये
बात 

उर्जा 
संचरित
हुई 

मिला 
आत्मबल
को 

जैसे 
खुद का
ही 

लौट कर 

चुका 

थोड़ा
कुछ 
बढ़ा 
घटा घटाया 
आत्मविश्वास 

मेहनत 
बरबाद
नहीं होती 

ईमानदारी 
से
लगे रहना 

प्रश्न 
पूछना
सत्ता से 
निर्भय होकर 

सबके
बस की 
नहीं होती 
इस
तरह की बात 

समझ 
अपनी अपनी 
मतलब से 
अपनी बनाये 
लोगों को 

लग
रहा होगा 
लगना
ही चाहिये 

झटका 
और 
निश्वास 

दिख 
रहा है 

दीवालियापन 
सोच का 
सिकुड़
चुके 
दिमागों का 

बधाई 
की
जगह 
कर रहे हैं 

जो
जुगाली 
गालियों की 

बाँधे 
हाथ में हाथ 

गर्व 
देश के 
लिये है 

देशवासियों 
के लिये है 

सम्मानित 
हुआ है 

एक 
देशवासी ही 

खुश है 
‘उलूक’ भी 
हाथ में लिये 
आईना 

शक्ल 
अपनी 
सोचता हुआ 

आँख 
बन्द करके 

दिमाग से 
देखने के 
करतबों की 

किताबों 
के नाम 

करता 
हुआ याद । 

चित्र साभार: https://www.business-standard.com

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

जरूरी होते हैं प्रायश्चित भी अगर मरजी हो तो तर्पण कर लेने में कोई हर्ज नहीं खुद का जीते जी




जरूरी होते हैं
प्रायश्चित भी

उतने ही
जरूरी होते हैं

जितना
जरूरी होता है

होना
किसी का

किसी
खास जगह पर 

कोई एक
पंक्ति
पंक्तियों
के बीच से
चुन कर

मन मौज से
खड़े हो लेना
कहीं भी

पीड़ा
देता ही है
कभी ना कभी

कितनी

निर्भर करता है

पीड़ित की
औकात पर

किसी
मजबूत के
नाम की लाठी
लिये हुऐ

मजबूती
के साथ खड़े
कमजोर लोगों
के बीच

मजबूत
टाँगों 
की सोच के 
लोगों को

येन केन
प्रकारेण
हतोत्साहित
करने की
कोशिश में
सतत लगे

अपनी
कमजोर
इरादों 
की 
मजबूत टाँगों
के भरोसे
जा कर खड़े
हो लेने वाले
होशियार लोगों का

कोई
कुछ नहीं
बिगाड़ सकता है

गिरोह
बहुत
सम्मानित
शब्द
हो चुका है

कभी किसी
शुभाकाँक्षी
के द्वारा

कुछ पाने के लिये
कुछ खोना पड़ता है
समझाया गया
समझते समझते
सालों बीतते
बहुत कुछ पागये
कुछ
सौभाग्यशालियों ने
समझा दिया होता है

हौले हौले से

कुछ नहीं
करते चले जाते हुऐ
पहुँच लेना
वहाँ तक

जहाँ पहुँच कर
जरूरी हो जाता है
प्रायश्चित
कर लेना

बता बता
कर
पंक्तियों के
बीच के अर्थों में

कि
गुजर लेने
से पहले भी
खुद का
तर्पण कर लेना
सबसे समझदारी

यानि
अक्ल का काम
माना जाता है ‘उलूक’

बाकी तेरी मरजी।

चित्र साभार: www.stockunlimited.com

रविवार, 28 जुलाई 2019

जरूरी है अस्तित्व बचाने या बनाने के लिये खड़े होना किसी ना किसी एक भीड़ के सहारे भेड़ के रेवड़ ही सही


जरूरी है
मनाना
जश्न 

कुत्तों के द्वारा
घेर कर
ले जायी जा रही
भेड़ों के  रेवड़ से
बाहर रहकर
जिन्दा बच गयी
भेड़ के लिये

गरड़िया
गिनता है भेड़ 

रेवड़ से बाहर
जंगल में
शेर की
शिकार
हो गयी भेड़ेंं

घटाना
जरुरी नहीं होता है

भीड़
भीड़ होती है
भीड़ का
चेहरा नहीं होता है

जरूरी भी
नहीं 
होता है कोई आधार कार्ड
भीड़ के लिये 

गरड़िये को
चालाक
होना ही पड़ता है

भेड़ें बचाने
के लिये नहीं

झुंड
जिन्दा रखने के लिये

भेड़ें बचनी
बहुत जरूरी होती हैंं
संख्या नहीं

लोकतंत्र
और भीड़तंत्र
के अलावा
भेड़तंत्र का भी
एक तंत्र होता है 

होशियार
लम्बे समय
तक जीते हैं

मूर्ख
मर जाते हैं
जल्दी 
ही
अपने
कर्मों के कारण 

जन्म भोज
से लेकर
मृत्यू भोज तक
कई भोज होते हैं

बात
आनन्द
ले सकने
की होती है

उसके
लिये भी
किस्मत होनी
जरूरी होती है 

इक्यावन
एक सौ एक
से लेकर करोड़
यूँ ही फेंके जाते हैं

किसी
एक भंडारे में
कई लोग
पंक्ति में बैठ कर
भोजन करते हुऐ
सैल्फी खिंचाते हैं

भेड़ेंं
मिमियाने में ही
खुश रहती होंगी
शायद

उछलती कूदती
भेड़ों
को देखकर
महसूस होता है

‘उलूक’
भेड़ें बकरियाँ
कुत्ते बन्दर गायें
बहुत कुछ सिखाती हैं

किस्मत
फूटे हुऐ लोग
आदमी
गिनते रह जाते हैं

आदमी
गिनने से
तरक्की नहीं होती है

जानवरों की
बात करते करते
बिना कुछ गिने

कहाँ से कहाँ
छ्लाँग
लगायी जाती है

स्टंट
करने वाले
बस
फिल्मीं दुनियाँ
में ही
नहीं पाये जाते हैं

बिना डोर की
पतंग
उड़ाने की
महारत
हासिल कर गये लोग

चाँद में
पतंग रख कर
वापस भी आ जाते हैं

वैज्ञानिक
हजार करोड़
से उड़ाये गये
राकेट के
धुऐं के चित्र
देख देख कर

अपने कॉलर
खड़े करते हैं
कुछ
ताली बजाते हैं
कुछ
मुस्कुराते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartlogo.com

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

सच की जरूरत है भी नहीं वैसे भी वो अब कहीं भी दूर दूर तक नजर भी नहीं आता है


एक भी
नहीं
छिपता है
ना
मुँह छिपाता है

सामने से
आकर
गर्व के साथ
खड़ा
हो कर
मुस्कुराता है

मुखौटा
लगाने की
जरूरत भी
नहीं समझता है

पकड़ा
गया होता है
फिर भी
नहीं
घबराता है

सफेद
कागज के ऊपर
इफरात से
फैला हुआ
काला
बहुत कुछ

कितनी कितनी
कहानियाँ
बना बना कर

तालियाँ
बटोरता हुआ

इधर से उधर
यूँ ही
मौज में
आता है
और
चला जाता है

किसे
समझाये
और
कैसे
समझाये कोई
उस बात को

जिसे
एक
नासमझ

नहीं
समझने
के कारण ही
लिख लिखा कर यहाँ

जैसे
पूछने
चला आता है

किसी का
दोष नहीं है

सबको
अपनी अपनी
आँखों से
अपने आसपास
अपने अपने
हिसाब का ही
जब
साफ साफ
दिखायी
दे जाता है

और
उसी के पीछे
सारा
सब कुछ
उनके ही
हिसाब का
बेमतलब

धुँधला कर
धूँऐं के बादल
की तरह
उड़ उड़ा कर
उड़न छू
हो जाता है

रहने दे
‘उलूक’

तेरी
रोज की
बकबक से
उकता कर

देखता
क्यों नहीं है
ऐलेक्सा रैंक भी

शर्मा शर्मी से
ऊपर की ओर
उखड़ कर
चला जाता है

समझ में
नहीं आता है

जमाने के
हिसाब से
बहुसंख्यक

तू
क्यों नहीं
हो पाता है

शहर की
छोटी सी खबर

जोरों से
उड़ रही होती है

और
तू खार खाया
अपने ही बालों को

खुजला खुजला कर
नोच खाता है

चश्मा
लगा कर देख
और
सोच

भगवान शिव
आज ही
धन्य हो गये
यूँ ही

काफिले में
मंतरी और संतरी
के
पीछे पीछे
खिंची फोटुकों
के आगे

सोशियल मीडिया भी

जब
हर हर महादेव
कह कह कर

मान्यवरों
के गले में

मालायें

और
चरणों में
उनके

फूल
चढ़ाता है

इसी से
बात शुरु हुई थी

इसे
‘झूठ जी’
कहा जाता है

और
बस यही है
जो
बहुत आगे
पहुँच कर
चला आता है

 और
सच की
जरूरत

है भी
नहीं
वैसे भी

वो
अब
कहीं भी
दूर दूर तक

नजर 
भी 
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: wwyeshua.wordpress.com

शनिवार, 13 जुलाई 2019

एक भीड़ को देखते देखते भीड़ में शामिल हो लेने का खामियाजा भुगतना ही पड़ता है मुस्कुराना ठीक है रोने ले से भी वैसे कुछ नया होना भी नहीं है


लिखना लिखाना
ठीक है

सब लिखते हैं

लिखना भी
जरूरी है

सही है

गलत
कुछ कहीं

वैसे भी

होता ही नहीं है

वहम है

है कह लेने में

कोई बेशर्मी
भी नहीं है

कुछ
लेखक होते हैं
पैदायशी होते हैं

बुरा भी नहीं है

कुछ
लेखक पैदा
नहीं होते है

माहौल
बना देता है

क्या किया
जा सकता है

कहना
नहीं चाहिये

कहना भी नहीं है

परेशानी

बकवास
करने वाले
के लिये है

बकबक
लिख लिखा कर

लेखकों की
भीड़ के बीच में

खो जाना

बहुत
बुरी बात है

समझ में
आने के दिन
आ जाने चाहिये

कई
सालों तक

इस तरह
भटकना

ठीक
भी नहीं है

गालियाँ
पड़ती हैं

अच्छा है

पड़नी भी
जरूरी हैं

किसने
कहा होता है

औकात
के बाहर
निकल कर
समझाना

बेबात में बात को

हर किसी की
समझ की

सीमा है

समझाने वाला
बेसमझ
नहीं है

किससे
पूछा जाये

समझने
समझाने की

किताबें
भी नहीं हैं

‘उलूक’

बकवास
करने में

बुराई
कुछ नहीं है

बकवास कर
लिख लिखा
देने से अच्छा

कुछ नहीं है

लिखा लिखाया
देख कर

किताब
हो जाने का
वहम हो जाये

बुरी बात है

इससे
निकल जाना

सबसे
अच्छी बात है

सालों
लग भी गये

कोई
नयी बात
भी नहीं है

देर आयद दुरुस्त आयद

सटीक मुहावरा है

वहम
टूटने
के लिये
 ही होते हैं

टूट जाये
अच्छा है

बने रहना
बस
इसी एक का

अच्छा नहीं है

और

बिल्कुल
भी नहीं है ।

चित्र साभार:
https://in.one.un.org

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

खुद अपना मन्दिर बना कर खुद मूर्ती एक होना चाहता है साफ नजर आता है देखिये अपने आसपास है कोई ऐसा जो भगवान जैसा नजर आता है


"ब्लॉग उलूक पर पच्चीस  लाख कदमों  को शुक्रिया"


भगवान बस 
भगवानों से ही 

रिश्ते बनाता है 

किसी 
आदमी से 
बनाना चाह लिया 
रिश्ता कभी उसने तो 

सब से 
पहले उसे 
एक भगवान बनाता है 

एक 
आदमी 
उसे जरा 
सा दमदार 
अगर नजर 
आ भी जाता है 

उससे 
तार मिलाने 
की इच्छा को 
उभरता हुआ 
महसूस यदि 
कर ही जाता है 

सबसे पहले 
उस आदमी से 
आदमियत 
निकाल कर 
उसे भगवान 
बनाता है 

भगवानों की 
श्रँखलायें होती है 

इंसानियत 
के साये से 
बहुत दूर होती हैं 

भगवान 
इन्सान को 
पाल सकता है 

मौज में 
आ गया कभी 
तो कुत्ता भी 
बना ले जाता है 

हर 
इन्सान 
के आसपास 

कई 
भगवान होते हैं 

कौन 
कितना 
भगवान 
हो चुका है 

समय 
के साथ 
चलता हुआ 
आदमी का 
अच्छा बुरा 
समय ही 
उसे 
समझाता है 

कुछ 
आदमी 
भगवान ने 
भगवान 
बना दिये होते हैं 

भगवान 
से बहुत 
ज्यादा 
भगवान 

उनकी 
हरकतों से 
बहता हुआ 
नजर आता है 

धीरे धीरे 
हौले हौले 
हर तरफ 
हर जगह 
बस भगवान 
ही नजर आता है 

‘उलूक’ 
देखता 
चलता है 

आदमी के 
बीच से 
होते हुऐ 
भगवान 
कई सारे 

देखने 
में मजा 
भी आता है 

आदमी 
तो आदमी 
ही होता है 

भगवान 
बना भी दिया 
अगर किसी 
ने ले दे के 

औकात 
अपनी 
फिर भी 
आदमी 
की ही 
दिखाता है


 चित्र साभार: https://making-the-web.com