उलूक टाइम्स

शनिवार, 11 जनवरी 2014

राय देने में कहाँ कहता है कोई खर्चा बहुत ज्यादा ही होता है

कुछ ऐसा क्यों 
नहीं लिखता कभी 
जिसे एक गीत की 
तरह गाया जा सके 
तेरे ही किसी
अंदाज को
 
एक हीरो की तरह 
उस पर फिल्माया 
भी कभी जा सके 
रहने भी दीजिये 
इतना भाव भी
खाली मत बढ़ाइये 
लिखने के लिये 
लिखने वाले बहुत 
पाये जाते हैं यहा 
हजूर
हमें बख्श दीजिये
 
खजूर के पेड़ पर 
इस तरह तो ना 
मजबूर कर चढ़ाइये 
अब जब पहुँच ही 
गये हैं आप हमारी 
हिसाब लिखने 
की दुकान तक 
हमें लिखने से 
कोई मतलब नहीं 
रहता है कभी भी 
इस बात को थोड़ा 
समझते हुऐ
अब जाइये
 
श्रीमती जी भी परेशान 
किया करती थी बहुत

दिनों तक हमारे लिखने 
लिखाने को लेकर
उनसे भी बोलना 
पड़ा एक दिन इसी 
तरह से दुखी होकर 
समझा करो कभी 
हमारी भी मजबूरी 
भाग्यवान
थोड़ा सा
 
हमारी तरह होकर 
तुम तो सारा कूड़ा 
रसोई का कूड़ेदान में 
डालकर फारिग 
हो जाती हो 
कुछ ना कुछ 
कर धर कर 
हमसे कुछ तो 
होता नहीं कहीं भी 
फिलम भी अब 
बनती है हर कोई 
किसी ना किसी 
विलेन को ही लेकर 
वही निकलता है 
गली से अंत में 
देखने सुनने वालों 
का भगवान होकर 
गीत भी उसका 
लिखता वही है 
संगीत भी उसी का 
सुनाई देता है 
सब नाचते गाते हैं 
उसी को कंधों पर
अपने रख कर 
हीरो कहीं पिटता है 
कहीं बरतन उठाता 
हुआ दिखाई देता है 
गीत हीरो पर 
फिल्माया
गया हुआ
 
क्या आपको
अब भी
 
कहीं दिखाई
देता है
 
या समझ
लूँ मैं
 
इस बात
को इस तरह
 
की मुझ में
ही आपको
 
आज का कोई 
विलेन एक 
दिखाई देता है | 


शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

सब कुछ जायज है अखबार के समाचार के लिये जैसे होता है प्यार के लिये

समाचार
देने वाला भी
कभी कभी
खुद एक
समाचार
हो जाता है

उसका ही
अखबार
उसकी खबर
एक लेकर
जब चला
आता है

पढ़ने वाले
ने तो बस
पढ़ना होता है

उसके बाद
बहस का
एक मुद्दा
हो जाता है

रात की
खबर जब
सुबह तक
चल कर
दूर से आती है

बहुत थक
चुकी होती है
असली बात
नहीं कुछ
बता पाती है

एक कच्ची
खबर
इतना पक
चुकी होती है

दाल चावल
के साथ
गल पक
कर भात
जैसी ही
हो जाती है

क्या नहीं
होता है
हमारे
आस पास

पैसे रुपिये
के लिये
दिमाग की
बत्ती गोल
होते होते
फ्यूज हो
जाती है

पर्दे के
सामने
कठपुतलियाँ
कर रही
होती हैं
तैयारियाँ

नाटक दिखाने
के लिये
पढ़े लिखों
बुद्धिजीवियों
को जो बात
हमेशा ही
बहुत ज्यादा
रिझाती हैं

जिस पर्दे
के आगे
चल रही
होती है
राम की
एक कथा

उसी पर्दे
के पीछे
सीता के
साथ
बहुत ही
अनहोनी
होती चली
जाती है

नाटक
चलता ही
चला जाता है

जनता
के लिये
जनता
के द्वारा
लिखी हुई
कहानियाँ
ही बस
दिखाई
जाती हैं

पर्दा
उठता है
पर्दा
गिरता है
जनता
उसके उठने
और गिरने
में ही भटक
जाती है

कठपुतलियाँ
रमी होती है
जहाँ नाच में
मगन होकर

राम की
कहानी ही
सीता की
कहानी से
अलग कर
दी जाती है

नाटक
देखनेवाली
जनता
के लिये ही
उसी के
अखबार में
छाप कर
परोस दी
जाती है

एक ही
खबर
एक ही
जगह की
दो जगहों
की खबर
प्यार से
बना के
समझा दी
जाती है ।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

पल्टी मार लेना कभी भी बहुत आसान होता है

इस जहाँ में
मौसम का असर
किसी भी मुद्दे पर
दिखाई देता है
किसी के बारे में
एक राय कायम
कर लेना वाकई
एक बहुत ही
टेढ़ी खीर होता है
अपने आस पास
हर शख्स के बारे में
ज्यादातर सबको ही
सब कुछ पता होता है
आदमी ही आदमी को
समझने की कोशिश में
एक नहीं कई भूल
कर ही देता है
गलतफहमियां भी
होती ही है
किसी ना किसी को
कभी ना कभी
कौन इस बात को
बहुत ज्यादा
तूल देता है
बहुत उठा पटक
करते हैं लोग बाग
यूं भी फितरत
में किसी ने
क्या पाया है
कई बार ये भी
पता नहीं होता है
जो भी होता है
जैसा भी होता है
इन सब के बावजूद
कहीं ना कहीं कोई
कुछ अजीब सा
भी तो होता है
बदलता नहीं है
कुछ भी कभी भी
एक साफ सीधी
लकीर सा होता है
किसी भी परिस्थिति
और देशकाल का
उसपर कुछ भी
असर नहीं होता है
समय के कठिन से
कठिन प्रश्नो का
जिसके पास एक
बहुत सरल सा
उत्तर होता है
कभी तो बदलेगा
किसी बात को
लेकर ऐसा आदमी
सोचने वाला सोचता है
बस नहीं कहता है
कुछ ऐसा गजब
का होता है जो भी
उसकी सोच का भी
अजब का एक
नजरिया होता है
सच में होता है
सोचने का दायरा
किसी किसी का
जिसके लिये एक
आकाश भी छोटा
और बहुत छोटा
सा होता है
हर किसी का
तो जरूरी नहीं
पर होता है
कोई खुशकिस्मत
भी कहीं ना कहीं
जो जरूर होता है
जिसके आस पास
उसका कोई एक
साथी कुछ कुछ
ऐसा जरूर होता है
राजनीति के किसी
काम का बिल्कुल
भी नहीं होता है
बस यही और यही
तो एक आम
आदमी होता है | 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

समय खुद लिखे हुऐ का मतलब भी बदलता चला जाता है

बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है

जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है

सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ

पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल

या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर

हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है

कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है

इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है

और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है

हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है

बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ

उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है

यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर

लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है

पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ

उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है

इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है

हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है

छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है

समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

वो क्या देश चलायेगा जिसे घर में कोई नहीं सुना रहा है

सुबह सुबह
बहुत देर तक
बहुत कुछ कह
देने के बाद भी
जब पत्नी को
पतिदेव की ओर से
कोई जवाब
नहीं मिल पाया
मायूस होकर उसने
अपनी ननद
की तरफ मुँह
घुमाते हुऐ फरमाया
चले जाना ठीक रहेगा
पूजा घर की तरफ
भगवान के पास जाकर
नहीं सुना है कभी भी
कोई निराश है हो पाया
भगवान भी तो बस
सुनता रहता है
कभी भी कुछ
कहाँ कहता है
बिना कुछ कहे भी
कभी कभी बहुत कुछ
ऐसे ही दे देता है
पतिदेव जो बहुत देर से
कान खुजला रहे थे
बात शुरु होते ही
कान में अँगुली
को ले जा रहे थे
बहुत देर के बाद दिखा
डरे हुऐ से कुछ
नजर नहीं आ रहे थे
कहीं मुहँ के कोने से
धीमे धीमे मुस्कुरा रहे थे
बोले भाग्यवान
कर ही देती हो तुम
कभी ना कभी
सौ बातों की एक बात
जिसका नहीं हो सकता है
मुकाबला किसी के साथ
देख नहीं रही हो
आजकल अपने
ही आसपास
सब भगवान का
दिया लिया ही तो
नजर आ रहा है
सारे बंदर लिये
फिर रहे हैं अदरख
अपने अपने हाथों में
मदारी कहीं भी
नजर नहीं आ रहा है
तुझे भी कोशिश
करनी चाहिये
भगवान से
ये सब कुछ कहने की
भगवान आजकल
बिना सोचे समझे
किसी को भी
कुछ ना कुछ
दिये जा रहा है
जितना नालायक
सिद्ध कर सकता है
कोई अपने आप को
आजकल के समय में
उतनी बड़ी जिम्मेदारी
का भार उठा रहा है
सब तेरे भगवान
की ही कृपा है
अनाड़ियों से बनवाई
गयी पकौड़ियों को
सारे खिलाड़ियों को
खाने को मजबूर
किया जा रहा है
वाकई जय हो
तेरे भगवान जी की
कुछ करे ना करे
झंडे डंडो में बैठ कर
चुनावों में कूदने
के लिये तो
बड़ा आ रहा है
पति भी होते हैं
कुछ उसके जैसे
उन्ही को बस
पति परमेश्वर
कहा जा रहा है
बहुत ज्यादा
फर्क नहीं है
कहने सुनने में
तेरी मजबूरी है
कहते चले जाना
कोई नहीं सुन
पा रहा है
पति भी भेज रहा है
चिट्ठियाँ डाक से
इधर उधर तब से
डाकिया लैटर बाक्स
खोलने के लिये ही
नहीं आ रहा है ।

रविवार, 5 जनवरी 2014

होता तो है मतलब का पता पर समझ में नहीं आ पाता है

मकड़ियां होती ही हैं
सामने से, आस पास
या कहीं दूर पर भी
जहाँ तक नजर
में आ जाती हैं
अब होती हैं
तो होती हैं
और किसी के कहीं
होने में किसी का
दोष नहीं होता है
अब क्या करें वो भी
उनको भी कहाँ
पता होता है
कोई उनको जब तब
देख परख रहा होता है
आज अचानक
ऐसी ही कुछ मकड़ियों
की स्ट्रेटेजी का ख्याल
पता नहीं कहाँ
से आ गया
ऐसा होता है
सोये हुऐ मन में
भी बहुत कुछ
सोया रहता है
पर जो वास्तव में
सोया सोया हुआ
सा नहीं होता है
स्ट्रेटेजी किसी के लिये
रणनीति हो जाती है
किसी को एक
कपट विद्या
नजर आती है
कोई युद्ध-कला
समझाता है
किसी के लिये वही
युद्ध-कौशल हो जाता है
शराफत से बताने
वाला कार्यनीति
कह ले जाता है
बाबा “उलूक” भी
क्या करे ऐसे में
जो कुछ देखना
सुनना नहीं चाहता है
वो सब उसी दिन के
सुबह सुबह के
अखबार के मुख्यपृष्ट
पर छप के आ जाता है
अब अगर एक मकड़ी
के हाथ में किसी को
मछली पकड़ने का
तागा और सामान
नजर आता है
तो इसमें कौन सा
अनर्थ हो जाता है
मकड़ी भी तो
छोड़ सकती है
जाल बुनना और
मक्खी चूसना
क्या पता मछली
फंसाने में उसको
अब और ज्यादा
मजा आता है
खिसियाता हुआ
खुद को कुछ
इस तरह समझाता है
तू लगा रह चूसने में
शाकाहार सा कुछ
हरी घास के मैदानों में
बहुत कुछ तेरे जैसों के
लिये पाया जाता है
तुझे जब पकड़नी ही
नहीं है मक्खी या मछली
तो फिर काहे को बेकार में
स्ट्रेटेजी का सही मतलब
समझना चाहता है ।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

ठीक नहीं किया जैसा किया जाता रहा था वैसा ही क्यों नहीं किया

एक काम के
बहुत ही
सुचारू रूप से
समय से पहले ही
पूरा हो जाने पर
साहब का पारा
सातवें आसमान
पर चला गया
तहकीकात करवाने
के लिये एक
खासम खास को
समझा दिया गया
पूछने को कहा गया
इतनी जल्दी
काम को बिना
सोचे समझे
किससे पूछ कर
पूरा करा लिया गया
रुपिया पैसा जबकि
जरूरत से ज्यादा
ही था दिया गया
बताना ही पढ़ेगा
आधे से ज्यादा
कैसे बचा कर
वापिस लौटा
दिया गया
पूछताछ करने पर
खासम खास ने
कुछ कुछ ऐसा
पता लगा लिया
रोज उसी काम को
सफाई से निपटा
ले जाने वाला
इस बार पत्नी के
बीमार हो जाने
के कारण मजबूरी
में छुट्टी पर
था चला गया
काम करवाना चूंकि
एक मजबूरी थी
एक नये आदमी को
काम पर इसलिये
लगा दिया गया
बेवकूफ था
दुनियादारी से
बेखबर था
ईमानदार था
कैसे निपटाना है
ऐसे काम को
किसी और से
राय लेने तक
पता नहीं
क्यों नहीं गया
हो ही जाना था
काम को इस बार
जैसे हुआ करता था
हमेशा ही वैसा
कुछ भी नहीं हुआ
फल लगा पेड़ पर
पका हुआ था
सब से देखा भी गया
बैचेनी बड़ी फैली
पूरे निकाय में
कहा गया झुंझलाहट में
ये सब जो भी हुआ
बहुत अच्छा नहीं हुआ
फर्जीवाड़ा नहीं कर
सकता हो
जो इतना भी
फर्जियों के बीच में
सालों साल रहकर
ऐसे दीवाने को
किसने और कैसे
काम करने का
ठेका दे दिया गया
तहकीकात करने वाले
ने जब सारी बातों
का खुलासा किया
तमीज सीखने की
बस सलाह देकर
ऐक नेक आदमी को
काम से हमेशा
के लिये
हटा दिया गया
साथ में बता
दिया गया
बच गया
इतना ही किया गया
खुश्किस्मत था
आरोप कोई भी
लिख कर किसी
के द्वारा नहीं
दिया गया ।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

कुछ देशी इलाज करवा बहुत फालतू बातें आजकल कर रहा है

समय
बदला है
तरीके
भी बदले हैं
उसी तरह
उसके
साथ साथ

बस
नहीं बदली है
तो तेरी समझ

समझा कर

पहले
जो कुछ भी
हुआ करता था
उस समय के
हिसाब से ही
हुआ करता था

अब
उस समय
का हिसाब
इस समय
भी सही हो

इस बात को
समय कभी भी
किसी से भी

किसी
जमाने में भी
कहीं नहीं
कहा करता था

लौह पुरुष
हुआ था
कहते हैं
कोई कभी

किसे पता है
कितना लोहा
उसमें हुआ
करता था

एक
कोई और
धोती पहना हुआ
एक चश्मा लगाये
लाठी लेकर

सच की
वकालत
भी करता था

होता था
बहुत कुछ
स्वत: स्फूर्त

अपने आप
ऊपर से
नीचे की
ओर ही नहीं

विपरीत
दिशाओं में भी
खुद का खुद
कुछ कुछ
बहा करता था

समय
बदल गया है

लौह पुरूष
नहीं भी
बन रहा है

चिंता
मत किया कर

लौहा
पूरे देश से
कोई आज भी
जमा कर रहा है

बनेगा
कुछ ना कुछ

सच की
वकालत
बिना लाठी चश्में
और धोती के भी

कोई कोई
कर रहा है

बस बताना
पड़ रह है

एक दो नहीं
पूरी एक
भीड़ के द्वारा

कि कोई
कुछ कर रहा है
और ईमानदारी
से ही कर रहा है

एक तू है
अभी भी
पुराने
तरीकों पर
ना जानें क्यों
अढ़ रहा है

सोच
कितने लोगों
से उसे
कहलवाना
पड़ रहा है

संचार तंत्र
का भी सहारा
जगह जगह
लेना पड़ रहा है

दस लोगों का
ईमानदारी का दिया
हुआ प्रमाण पत्र भी
क्या तेरे पल्ले
नहीं पड़ रहा है

जब
कह दिया गया है
छपा दिया गया है
टी वी में तक
दिखा दिया गया है

तब भी
तू बेकार में
मण मण
कर रहा है ।

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

थोड़े समय में देख भी ले बेवकूफ कौन क्या से क्या हो जा रहा है

ऊपर वाला
सुना है
आजकल
बात बात में
परेशान
हो जा रहा है


नीचे वाला
पता नहीं
इतना भी
क्यों नहीं
समझ
पा रहा है

परेशानियाँ
माना कि
उसकी
अपनी
खुद की
बनाई हुई
सब नजर
आती हैं

किसी ने
कभी उसे
क्यों नहीं
टोका कि
इतने सारे
अवतार क्यों
अपने वो
बनाये
जा रहा है

हर दूसरे
को छोड़
तीसरा
अपने
आप को
उसका ही
आदमी एक
बता रहा है

उल जलूल
सारे फजूल
कामों को
नियमों को
ताक में
रख कर
करवा रहा है

बेवकूफ
होगा
वो भी
आम
आदमी
की तरह

”उलूक”
का भेजा
बस
इतनी सी
बात को
नहीं पचा
पा रहा है

उधर
एक आदमी
लगा हुआ है
पूरे देश को
ही बदलने
के फिराक में

इधर
तुझसे
चवन्नी
भर का
ईमान
अपना
नहीं बिक
पा रहा है

सुधर जा
अभी भी
समय है
तेरे ही
खुद के
हाथ में

खुली
हथेली
ले कर
कफन
ओढ़ कर
जब चलेगा
एक लम्बे
सफर पर

सब कहेंगे
देखो जरा
एक
बेवकूफ
अपनी
बेवकूफी
के कारण
आज खाली
जेब और
खाली हाथ
जा रहा है !

बुधवार, 1 जनवरी 2014

किसी के यहाँ होना शुरु हो गया है क्या कुछ नया यहाँ तो आज भी अंधेरा हो रहा था

हर साल की तरह
पिछले साल के
अंतिम दिन
वैसा ही कुछ
महसूस हुआ
जैसा पिछले
के पिछले
और उससे
कई पिछले
सालों में था लगा
कुछ ऐसा जैसे
साल बीतते ही
अगले दिन से
जुराब पैर का
उल्टा खुद ही
हो जाने वाला हो
फटा हुआ
ऐड़ी का हिस्सा
अपने आप
सिल सिला कर
पूरा हो जाने वाला हो
खुशी के मारे
थर्टी फर्स्ट का
सुरूर कुछ और
सुर्ख होता चला गया
एक के बाद एक
नहीं पीने वाला
भी पता नहीं
कितना कितना
और क्या क्या
पीता चला गया
सब पी रहे थे
कुछ ना कुछ
बिना सोचे समझे
कहीं शराब थी
नशा नहीं था
कहीं पानी था
और बेहिसाब
हो रहा नशा
ही नशा था
सभी को
लग रहा था
बस आज की
रात गुजर जाये
किसी तरह से
कल से तो कुछ
नये तरह के
साल का पदार्पण
पुराने साल की
जगह पर हो रहा था
सुबह आँख
खुलते खुलते
नशेड़ियों का नशा
जब धीरे धीरे
हवा हो रहा था
सूरज निकला था
उसी तरह से
जैसे बरसों से
पूरब के एक कोने
से निकल रहा था
आईना भी उसी तरह
से बस चुपचाप था
कुछ भी नया
नहीं कह रहा था
सारे डर अंदर
के वहीं कहीं
कोने में जमे हुऐ
नजर आ रहे थे
जहाँ बरसों से
अंंधेरा अंधेरा
बस अंधेरा ही
हो रहा था
उन सब के
बारे में ही
सोच में मोच
आती दिखना शुरु
हो जा रही थी
जिन्हे देखते हुऐ
हमेशा ही कुछ
अजीब अजीब सा
पता नहीं किस
जमाने से हो रहा था
पहला ही
दिन था शायद
इसीलिये विश्वास
नहीं हो रहा था
क्या पता
दो एक दिन
और लगें कुछ
और बदलने
सम्भलने में
आज तो कुछ वैसा
वैसा ही हो रहा था
जैसा पिछले साल के
तीन सौ पैसठ दिनों
में रोज हो रहा था ।

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नये साल आना ही है तुझको मुझसे बुलाया नहीं जा रहा है

सोच कुछ और है
लिखा कुछ अलग
ही जा रहा है
हिम्मत ही नहीं
हो रही है कुछ भी
नहीं कहा जा रहा है
केजरीवाल बनने की
कोशिश करना
बहुत महंगा
पड़ता जा रहा है
आम आदमी की
टोपी वाला कोई
भी साथ देने
नहीं आ रहा है
ऐसा ही कुछ अंदाज
पता नहीं क्यों
आ रहा है
ऐसा नहीं है
मैं एक
चोर नहीं हूँ
कह देना
मान लेना
बस इतनी ही
हिम्मत जुटाना
नहीं हो
पा रहा है
कह दिया जाये
यहाँ क्या
हो रहा है
और क्या
बताया
जा रहा है
किसी को
क्या नजर
आ रहा है
कहाँ पता
चल पा रहा है
मुझे जो
दिख रहा है
उसे कैसे नजर
नहीं आ रहा है
बस यही
समझ में
नहीं आ
पा रहा है
कुत्ते की
फोटो दिखा
दिखा कर
शेर कह दिया
जा रहा है
कुत्ता ही है
जो जंगल को
चला रहा है
बस मुझे ही
दिख रहा है
किसी और को
नजर नहीं आ
पा रहा है
हो सकता है
मोतिया बिंद
मेरी आँख में
होने जा रहा है
सफेद पोश होने
का सुना है एक
परमिट अब
दिया जा रहा है
कुछ ले दे के
ले ले अभी भी
नहीं तो अंदर
कर दिया
जा रहा है
है बहुत कुछ
उबलता हुआ
सा कुछ
लिखना भी
चाह कर
नहीं लिखा
जा रहा है
नये साल में
नया एक
करिश्मा
दिखे कुछ
कहीं पर
सोचना चाह
कर भी
नहीं सोच
पा रहा है
साल के
अंतिम दिन
'उलूक'
लगता है
खुद शिव
बनना चाह
रहा है
थर्टी फर्स्ट
के दिन
बस दो पैग
पी कर ही
जो लुढ़क
जा रहा है ।

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

बस एक सलाम और तुझे ऐ साल जाते जाते

लाजमी है उनका
भड़क उठना
एक मरी हुई
लाश को देखते
ही कहीं भी
कुछ शाकाहारी
लोगों को
पसंद नहीं आता
किसी लाश का
यूँ ही मर जाना
उनकी सोच में
बोटियाँ नोच कर
खाने वालों के लिये
तिरस्कार और घृणा
भरी हुई बहुत
साफ नजर आती है
बहुत माहिर होते हैं
इस तरह के
कुछ लोग
और शातिर भी
जो कबूतरों को
सिखाते हैं
जिंदा गिद्धों के
माँस को नोच
नोच कर
इक्ट्ठा करना
उन्हें मालूम है
मौत का कष्ट
कहते हैं कुछ
क्षण का होता है
पर साथ में
उनको ये
वहम भी होता है
इस बात का
कहीं मौत बहुत
सुकून ना
दे देती हो
मारना चाहते हैं
वो इसीलिये
आत्मा को नोच
खसोट कर
एक बकरी
की गर्दन
एक ही झटके में
हलाल कर देना
किसी भी तरह की
बहादुरी नहीं होती
बात तो तब है
जब रोज सुबह
और शाम
एक तेज धार
के ब्लेड से
उनकी पीठ पर
बना लिया जाये
अपने आने वाले
दिन का कार्यक्रम
ताकि साल
पूरा होते होते
तैयार हो सके
जाने वाले साल
की एक सुंदर
सी डायरी
जिसे फ्रेम कर
टाँक दिया जाये
समय की दीवार
पर ही कहीं
मजा और बढ़ जाये
अगर हर दिन के
निशान की गिनती
घाव में नमक मिर्च
मल कर की जाये
जब मन आये
और इसके लिये
बकरी की माँ को
बाँध दिया जाये
बकरी के सामने
मत कहना कि
ये क्या लिख दिया
क्योंकि समय के
निशान बहुत ही
गहरे होते हैं
सर्फ ऐक्सल
काफी नहीं है
हर दाग के लिये
उतना ही अच्छा
सोचिये मत
बस मनाइये
इकतीस दिसम्बर
थ्री चियर्ज के साथ
साल तो अगले
साल का भी जायेगा
एक साल के बाद
इसी तरह
नये साल की
शुभकामनाओं
के साथ ।

रविवार, 29 दिसंबर 2013

पिछला साल गया थैला भर गया मुट्ठी भर यहाँ कह दिया

पता नहीं 
कितना अपनापन है 
इस खाली जगह पर 

फिर भी जब तक 
महसूस नहीं होता परायापन 
तब तक ऐसा ही सही 

दफन करने से पहले 
एक नजर देख ही लिया जाये 
जाते हुऐ साल को 

यूँ ही कुछ इस तरह 
हिसाब की किताब ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌पर 
ऊपर ही ऊपर से 
एक नजर डालते हुऐ 

वाकई हर नये साल के पूरा हो जाने का 
कुछ अलग अंदाज होता है 

इस साल भी हुआ 
पहली बार दिखे 
शतरंज के मोहरे 
सफेद और काले 
डाले हाथों में हाथ 
बिसात के बाहर देखते हुऐ ऐसे 
जैसे कह रहे हो

बेवकूफ 'उलूक'
खुद खेल खुद चल 
ढाई या टेढ़ा 
अब यही सब होने वाला है आगे भी 
बस बोलते चलना ‘ऑल इज वैल’ 

पाँच और सात को जोड़कर 
दो लिख देना 
आगे ले जाना सात को 
किसी ने नहीं देखना है 
इस हिसाब किताब को 

सब जोड़ने घटाने में लगे होंगे 
इस समय 
क्या खोया क्या पाया 
और वो सामने तौलिया लपेटे हुऐ 
जो दिख रहा है 
उसके देखने के अंदाज से 
परेशान मत होना 

उसे आदत है 
किसी के उधड़े 
पायजामें के अंदर झाँक कर 
उसी तरह से खुश होने की 

जिस तरह एक मरी हुई 
भैंस को पाकर 
किसी गिद्ध की बाँछे खिल जाती है 

संतुष्ट होने के आनन्द को 
महसूस करना भी सीख ही लेना चाहिये 

वैसे भी अब सिर्फ धन ही नहीं 
जिंदगी के मूल्य भी 
उस लिये गये अग्रिम की तरह हो गये हैं 
जिसके समायोजन में 
पाप पुण्य उधार नकद 
सब जोड़े घटाये जा सकते हैं 

जितना बचे 
किसी मंदिर में जाकर 
फूलों के साथ चढ़ाये जा सकते हैं 
ऊपर वाले के यहाँ भी मॉल खुल चुके हैं 

एक पाप करने पर दो पुण्य फ्री 

कुछ नहीं कर पाये इस वर्ष घालमेल 
तो चिंता करने की कोई जरूरत भी नहीं 

नये साल में नये जोश से उतार लेना 
कहीं भी किसी के भी कपड़े 
जो हो गया सो हो गया 
वो सब मत लिख देना 
जो झेल लिया है 
उसे दफना कर देखना 
जब सड़ेगा 
क्या पता 
सुरा ही बन जाये 
कुछ नशा हो पाये 

इस तरह का 
जिस से तुम में भी 
कुछ हिम्मत पैदा हो सके 
और तुम भी उधाड़ कर देख सको 

सामने वालों के घाव और 
छिड़क सको कुछ नमक 
और कुछ मिर्च 

महसूस कर सको 
उस परम आनंद को 

जो आजकल 
बहुत से चेहरों से टपकता हुआ 
नजर आने लगा है 

सुर्ख लाल रक्त की तरह 
और कह सको 
मुस्कुराहट छिपा कर 
नया वर्ष शुभ हो और मंगलमय हो । 

चित्र साभार: https://www.graphicsfactory.com/

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

ऐसा भी तो होता है या नहीं होता है


जाने
अंजाने में 

खुद
या
सामूहिक 
रूप से

किये गये 
अपराधों के 
दंश को 

मन के
किसी 
कोने में दबा कर 

उसके ऊपर 

रंगबिरंगी 
फूल पत्तियाँ 

कुछ
बनाकर 
ढक देने से 

अपराधबोध
छिप 
कहाँ पाता है 

सहमति
के
साथ 
तोड़ मरोड़कर 

काँटों के जाल
का 
एक फूल
बना 
देने से

ना तो 
उसमें खुश्बू 
आ पाती है 

ना ही
ऐसा कोई 
सुन्दर
सा रंग

जो 
भ्रमित कर सके 
किसी को
भी 
कुछ देर
के 
लिये ही सही 

सदियां
हो गई 
इस तरह की
प्रक्रिया
को 
चलते आते हुऐ 

पता नहीं
कब से 

आगे भी
चलनी हैं 

बस
तरीके बदले हैं 
समय के साथ 

जुड़ते
चले जा रहे हैं 
इस तरह एक साथ 
अपराध दर अपराध 

जिसकी
ना किसी 
अदालत में सुनवाई 
ही होनी है

ना ही 
कोई फैसला
किसी 
को ले लेना है
सजा के लिये 

बस
शूल की तरह 
उठती हुई चुभन को 

दैनिक जीवन
का 
एक नित्यकर्म 
मानकर

सहते 
चले जाना है 
और
मौका मिलते ही 
संलग्न
हो जाना है 
कहीं
खुद

या कहीं 
किसी
समूह के साथ 
उसके दबाव
में 

करने
के लिये एक 
मान्यता प्राप्त
अपराध।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

उसके जैसा ही क्यों नहीं सोचता शायद बहुत कुछ बचता

हर आदमी
सोच नहीं रहा
अगर तेरी तरह
तो सोचता
क्यों नहीं
जरुर ही कहीं
खोट होगा
तेरी ही सोच में
सोचने की
कोशिश तो
करके देख
जरा सा
सुना है
कोशिश
करने से
भगवान
भी मिले हैं
किसी किसी
को तो
सोच मिलना
तो बहुत
ही छोटी
सी बात है
कभी कहीं
लिखा हुआ
देखा था
किसी ने
सुनाया था
या पढ़ाया था
याद नहीं है
 पर होता
होगा पक्का
क्योंकी हकीम
लुकमान की
सोचने की दवा
बनाने की विधि
में भी कुछ
ऐसा ही लिखा
हुआ साफ
नजर आता है
विश्वास नहीं होता है
तो थोड़ी देर के लिये
पुस्तकालय में जाकर
पढ़ देख कर क्यों
नहीं आ जाता है
बैठा रहता है
फालतू में
जब देखो कहीं भी
कभी भी किसी
बात पर भी
कुछ भी लिख
देने के लिये
कभी तो कुछ
सोच ही लिया कर
जैसा लोग सोचते हैं
देख तो जरा
किसी और की
तरह सोच कर
फिर पता
चलेगा तुझे भी
सोच और सोच
का फरक
क्या पता इसी
सोच की सोच
को अपना
कर कुछ
तू भी कुछ
सुधर जाये
तेरी सोच को कुछ
उनकी सोच
का जैसा ही
कुछ हो जाये
बहुत कुछ बचेगा
जब हर कोई
एक जैसा
ही सोचेगा
उसी सोच
को लेकर
हर कोई कुछ
कुछ करेगा
अच्छा नहीं
होगा क्या
एक के सोचने
के बाद किसी
और को कुछ
भी नहीं
सोचना पड़ेगा
क्योंकि लिख दिया
जायेगा कहीं पर
कि ये सोचा
जा चुका है
कृपया इस पर
सोचने की अब
कोशिश ना करें
कुछ और सोचने से
पहले भी पता करलें
और पूछ लें
कुछ सोचना
है कि नहीं ।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

आज कुत्ते का ही दिन है समझ में आ रहा था

सियार को
खेत से
निकलता
हुआ देखते ही

घरेलू कुत्ता
होश खो बैठा

जैसे
थोड़ा नहीं
पूरा ही
पागल हो गया

भौंकना शुरु
हुआ और
भौंकता ही
चला गया

बहुत देर तक
इंतजार किया
कहीं कुछ
नहीं हुआ

इधर बाहर
से किसी
ने आवाज
लगाई

सुनकर
श्रीमती जी
रसोई से ही
चिल्लाई

देख भी दो
बाहर कोई
बुला रहा है

कितनी देर से
बाबू जी बाबू जी
चिल्ला रहा है

उधर बंदरों
की टोली
ने लड़ना
शुरु किया
एक के
बाद दूसरे ने
खौं खौं
चीं चीं पीं पीं
करना शुरु किया

छत से पेड़ पर
पेड़ से छत पर
एक दूसरे
के पीछे
लड़ते मरते
कूदते फाँदते
भागना शुरु किया

उसी समय
बिजली ने
बाय बाय
कर अंधेरा
करते हुऐ
एक और
झटका दे दिया

इंवर्टर
चला कर
वापस
लौटा ही था
फोन तुरंत
घनघना उठा

बगल के
घर से ही
कोई बोल
रहा था
दो कदम
चलने से भी
परहेज कर
रहा था

टेलीफोन
डायरेक्टरी
देख किसी
का नम्बर
बताने को
बोल रहा था

झुंझुलाहट
शुरु हो
चुकी थी
मन ही मन
खीजना
मुँह के अंदर
बड़बड़ाने को
उकसा चुका था

बीस मिनट
दिमाग खपाने
के बाद भी
माँगे गये
नंबर का
अता पता
नहीं था

फोन पर
माफी मांग
थोड़ा चैन से
बैठा ही था

इंवर्टर ने
लाल बत्ती
जला कर
बैटरी डिसचार्ज
होने का
ऐलार्म बजाना
शुरु कर दिया था

कुत्ता अभी भी
पूरे जोश से
गला फाड़ कर
भौंके जा रहा था

श्रीमती जी
का
सुन्दर काण्ड
पढ़ना शुरु
हो चुका था

घंटी
बीच बीच में
कोई बजा
ले रहा था

लिखना शुरु
करते ही
जैसे पूरा
हो जा रहा था

आज इतने
में ही
सब कुछ
जैसे कह दिया
जा रहा था

बाकी सोचने
के लिये
कौन सा
कल फिर
नहीं आ
रहा था

कुत्ता
अभी भी
बिल्कुल
नहीं थका था

उसी अंदाज
में भौंकता
ही चला
जा रहा था ।

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

आओ मित्र आह्वान करें तुम हम और सब ईसा का आज ध्यान करें

तुम्हारी शुद्ध आत्मा
से निकली भावनाओं
से मैं भी इत्तेफाक
रखता हूँ इसी कारण
तरह तरह के इत्र भी
अपने आस पास रखता हूँ
अच्छा है अगर चल गया
उद्गार किसी झूठ
को छिपाने के लिये
नहीं तो क्या बुरा है
कुछ इत्र छिड़क कर
चारों तरफ फैलाने में
वाकई आज का दिन
बहुत बड़ा दिन है
अवतरण होना है
ईसा को फिर से
एक बार यहां
आज ही के दिन
इस खबर की खबर
भी एक बड़ी खबर है
बड़ा दिन बड़ी आत्माऐं
बड़ी दीवार बड़ा चित्र
और कुछ बड़ी ही नहीं
बहुत बड़ी बातों को
सुनहरे फ्रेम में
मढ़ देने का दिन है
आप सर्व समावेशी
उदगारों की आवश्यकता
की बात करते हो
आज के जैसे दिनो
में ही तो उदगारों को
महिमा मण्डित कर
लेने का दिन है
साल भर के अंदर
कुछ कुछ दिनों के
अंतर में बहुत से
बड़े बड़े दिन
आते ही रहते हैं
मौके होते हैं यही
कुछ पल के ही सही
आत्ममंथन खुद का
करवाते ही रहते हैं
बहुत छोटी यादाश्त
हो चली हो जहाँ
दूसरे दिन से कहीं
आग लगाने को
माचिस खोजने को भी
हम जाते ही रहते हैं
फिर भी चलो
और कोई नहीं
तुम और मैं ही सही
उद्गारों को आत्मकेंद्रित
करें आज के दिन बस
उदगारों का व्यापार करें
सर्वज्ञ सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान
से प्रार्थना करें
अवतरित होकर
वो आज
सारी मानवजाति
का कल्याँण करें
फिर कल से कुछ
भूलें कुछ याद करें
शुरु हो जायें हम तुम
और सब फिर से
किसी दूसरे बड़े दिन के
आने का इंतजार करें ।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

पानी से अच्छा होता अगर दारू पर कुछ लिखवाता


हर कोई तो पानी 
पर लिख रहा है

अभी अभी का 
लिखा हुआ पानी पर
अभी का अभी
उसी 
समय जब मिट रहा है

तुझे ही पड़ी है 
ना जाने क्यों
कहता जा रहा है पानी सिमट रहा है

जमीन के नीचे 
बहुत नीचे को चला जा रहा है

पानी की बूंदे 
तक शरमा रही हैं
अभी दिख रही हैं अभी विलुप्त हो जा रही हैं
उनको पता है 
किसी को ना मतलब है ना ही शरम आनी है

सुबह सुबह की 
ओस की फोटो
तू भी कहीं लगा होगा खींचने में
मुझे नहीं लगता है 
किसी और को पानी की कहीं भी याद कोई आनी है

इधर आदमी लगा है 
ईजाद करने में
कुछ ऐसी पाईप लाइने
जो घर घर में जा कर
पैसा ही पैसा बहाने को बस रह जानी हैं

तू भी देख ना कहीं 
पैसे की ही धार को
हर जगह आजकल 
वही बात काम में बस किसी के आनी है

पानी को भी कहाँ 
पड़ी है
पानी की 
अब कोई जरूरत
आँखे भी आँखो में पानी लाने से
आँखो को ही परहेज करने को
जब कहके 
यहाँ अब जानी हैं

नल में आता तो है 
कभी कभी पानी
घर पर नहीं आता है तो कौन सा गजब ही हो जाना है
बस लाईनमैन की जेब को गरम ही तो करवाना है
तुरंत पानी ने दौड़ कर आ जाना है

मत लिया कर इतनी 
गम्भीरता से किसी भी चीज को
आज की दुनियाँ में 
हर बात नई सी जब हो जा रही है

हवा पानी आग 
जमीन पेड़ पौंधे
जैसी बातें सोचने वाले लोगों के कारण ही
आज की पीढ़ी
अपनी अलग पहचान नहीं बना पा रही है

पानी मिल रहा है पी 
कुछ मिलाना है मिला
खुश रह
बेकार की बातें मत सोच कुछ कमा धमा

होगा कभी 
युद्ध भी अगर
पानी को 
लेकर कहीं
वही मरेगा सबसे पहले
जो पैसे का नल नहीं लगा पायेगा
पैसा होगा तो वैसे भी प्यास नहीं लगेगी

पानी नहीं भी 
होगा कहीं तब भी
कुछ अजब 
गजब नहीं हो जायेगा
ज्यादा से ज्यादा 
शरम से जमीन के थोड़ा और नीचे की ओर चला जायेगा

और फिर
एक बेशरम 
चीर हरण करेगा
किसी को भी कुछ नहीं होगा
बस
पानी ही खुद में पानी पानी हो जायेगा ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

आम में खास खास में आम समझ में नहीं आ पा रहा है

आज का नुस्खा
दिमाग में आम
को घुमा रहा है
आम की सोचना
शुरु करते ही
खास सामने से
आता हुआ नजर
आ जा रहा है
कल जब से
शहर वालों को
खबर मिली कि
आम आज जमघट
बस आमों में आम
का लगा रहा है
आम के कुछ खासों
को बोलने समझाने
दिखाने का एक मंच
दिया जा रहा है
खासों के खासों का
जमघट भी जगह
जगह दिख जा रहा है
जोर से बोलता हुआ
खासों का एक खास
आम को देखते ही
फुसफुसाना शुरु
हो जा रहा है
आम के खासों में
खासों का आम भी
नजर आ रहा है
टोपी सफेद कुर्ता सफेद
पायजामा सफेद झंडा
तिरंगा हाथ में एक
नजर आ रहा है
वंदे भी है मातरम भी है
अंतर बस टोपी में
लिखे हुऐ से ही
हो जा रहा है
“उलूक” तो बस
इतना पता करना
चाह रहा है
खास कभी भी
नहीं हो पाया जो
उसे क्या आम में
अब गिना जा रहा है ।

रविवार, 22 दिसंबर 2013

किताब पढ़ना जरुरी है बाकी सब अपने ही हिसाब से होता है

किताबों तक
पहुँच ही

जाते हैं
बहुत से लोग

कुछ नहीं भी
पहुँच पाते हैं

होता कुछ
भी नहीं है

किताबों को
पढ़ते पढ़ते
सब सीख
ही जाते हैं

किताबें
चीज कितने
काम की होती हैं

किताबों को
साथ रखना
पढ़ना ही
सिखाता है

अपनी
खुद की एक
किताब का
होना भी
कितना जरूरी
हो जाता है

एक
आदमी के
कुछ कहने
का कोई
अर्थ नहीं
होता है

क्या फरक
पड़ता है
अगर वो
गाँधी या
उसकी
तरह का ही
कोई और
भी होता है

लिखना पढ़ना
पाठ्यक्रम के
हिसाब से एक
परीक्षा दे देना

पास होना
या फेल होना
किताबों के
होने या
ना होने
का बस
एक सबूत
होता है

बाकी
जिंदगी के
सारे फैसले
किताबों से
कौन और
कब कहाँ
कभी ले लेता है

जो भी होता है
किसी की अपनी
खुद की किताब
में लिखा होता है

समय के साथ
चलता है
एक एक पन्ना
हर किसी की
अपनी किताब का

कोई जल्दी
और
कोई देर में
कभी ना कभी
तो अपने
लिये भी
लिख ही
लेता है

पढ़ता है
एक किताब
कोई भी
कहीं भी
और कभी भी

करने पर
आता है
तो उसकी
अपनी ही
किताब का
एक पन्ना
खुला होता है ।

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

जब भी कुछ संजीदा लिखने का मन होता है कोई राकेट उड़ गया की खबर दे देता है

राकेट
बना के
उड़ा देना
एक बात है

राकेट
की खबर
बना के
उड़ाना
कुछ
अलग
बात है

धरातल पर
जो कभी नहीं
होने दिया जाता है

वो सब
कहीं ना कहीं
को भिजवा
दिया गया एक
राकेट हो जाता है

अब
उड़ चुका
राकेट होता है

किसी को
नजर भी
कहीं नहीं
आ पाता है

हर तरफ
होती है खबर
राकेट के
कहीं होने की

अखबार
वाला भी
खबर लेने
राकेट के
उड़ने के
बाद ही
पहुंच पाता है

राकेट
बनाने वाला
राकेट
के बारे में
बताते हुऐ
जगह जगह
पर नजर
आ जाता है

जहाँ
खुद नहीं
पहुँच पाता है
राकेट
बनाने वाली
टीम के
सदस्य को
भिजवा
दिया जाता है

जिसे राकेट
के बारे में
पता नहीं
होता है
उसे
कुछ नहीं
आता है
कह कर
बदनाम कर
दिया जाता है

अब
राकेट
तो राकेट
होता है
धरातल में
कहीं भी
नहीं होता है

बस
खबर उड़
रही होती है
राकेट का कहीं
भी अता पता
नहीं होता है

समझने
की थोड़ी
सी कोशिश
तो करिये जनाब
कितना
अजब और
कितना
गजब होता है

राकेट
बनाने वाला
बहुत चालाक
भी होता है

राकेट के
लौट के
आने का
कहीं
इंतजाम
नहीं होता है

कितने कितने
राकेट उड़ते
चले जाते हैं

बातें होती
ही रहती हैं
वो कभी भी
कहीं भी
लौट के
नहीं आते हैं ।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सब को आता है कुछ ना कुछ तुझे क्यों नहीं आता है

लिख देने
के बाद भी

यहीं पर
पड़ा हुआ
नजर आता है

इतनी सी
भी मदद
नहीं करता
कहीं को चला
भी नहीं जाता है

अखबार
से ही सीख
लेता कुछ कभी

कितनो
का लिखा
अपने सिर पर
उठा उठा
कर लाता है

खुद ही जाकर
हर किसी के घर भी
रोज हो ही आता है

अपनी
अपनी खबर
पढ़ लेने का मौका

हर कोई
समानता से
पा भी जाता है

बहुत
कम होते हैं ऐसे
जिन्हे है फुरसत यहाँ
जमाने भर की

और वो
यहाँ आ कर
पढ़ क्या गया तुझको

तू तो
बहुत ही मजे
मजे में आ जाता है

कुछ तो
सऊर सीख भी ले अब

इधर उधर के
पन्नों से कभी

जिसमें
लिखा हुआ
कुछ भी कहीं भी

बहुत
सी जगह
पर जा जा कर
कुछ ना कुछ
लिखवा ही लाता है

एक तू है पता नहीं
किस चीज का बना हुआ

ना खुद लिख पाता है
ना ही कुछ किसी से
लिखवा ही पाता है

जब देखो
जिस समय देखो
यहीं पर पड़ा रह रह कर

बेकार में
सारी जगह
घेरता चला जाता है

अरे ओ
बेवकूफ पन्ने
किसी की समझ में
बात आये ना आये

तेरी समझ में
कभी भी कुछ
क्यों नहीं आता है

'उलूक'
के बारे में
भी कुछ सोच
लिया कर कभी

उससे भी
आँखिर
कब तक और
कहाँ तक सब
लिखा जाता है ।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

उधर ना जाने की कसम खाने से क्या हो वो जब इधर को ही अब आने में लगे हैं

जंगल के
सियार
तेंदुऐ
जब से
शहर की
तरफ
अपने पेट
की भूख
मिटाने
के लिये
भाग आने
लगे हैं

किसी
बहुत दूर
के शहर
के शेर का
मुखौटा लगा

मेरे शहर
के कुत्ते
दहाड़ने का
टेप बजाने
लगे हैं

सारे
बिना पूँछ
के कुत्ते
अब एक
ही जगह
पर खेलते
नजर आने
लगे हैं

पूँछ वाले
पूँछ वालों
के लिये ही
बस अब
पूँछ हिलाने
डुलाने लगे हैं

चलने लगे हैं
जब से कुछ
इस तरीके के
अजब गजब
से रिवाज

जरा सी बात
पर अपने ही
अपनों से दूरी
बनाने लगे हैं

कहाँ से चल
कर मिले थे
कई सालों
में कुछ
हम खयाल

कारवाँ बनने
से पहले ही
रास्ते बदल
बिखर
जाने लगे हैं

आँखो में आँखे
डाल कर बात
करने की
हिम्मत नहीं
पैदा कर सके
आज तक भी

चश्मे के ऊपर
एक और
चश्मा लगा
दिन ही नहीं
रात में तक
आने लगे हैं

अपने ही
घर को
आबाद
करने की
सोच पैदा
क्यों नहीं
कर पा
रहे हो
'उलूक'

कुछ आबाद
खुद की ही
बगिया के
फूलों को
रौँदने के
तरीके

अपनो को
ही सिखाने
लगे हैं ।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

परेशान ना हो देख समय अभी आगे और क्या क्या दिखाता है

भय
मुक्त समाज

शेर
और
बकरी के

एक साथ
पानी पीने
वाली बात

ना
जाने
कब

कौन
सुना पढ़ा गया

किसी
जमाने से
दिमाग में जैसे
मार रही हों
कितनी ही लात

पता नहीं
कब से

अचानक
ऐसे
एक नाटक
का पर्दा
सामने से
उठा हुआ सा
नजर आता है

भय
निर्भय होकर
खुले आम
गली मौहल्ले में
चक्कर लगाता है
और समझाता है

बस
हिम्मत
होनी चाहिये

कुछ भी
किसी तरह भी
कभी भी कहीं भी
कर ले जाने की

डरना
क्यों और
किससे है

जब ऐसा
महसूस होता है

जैसे
सभी का ध्यान
बस भगवान की 

तरफ चला जाता है

हर कोई
मोह माया
के बंधन से
बहुत दूर जा कर
खुद की आत्मा के
बहुत पास चला आता है

और
वैसे भी डर
उस समय क्यों

जब
कुछ ही देर में
आने वाला अवतार

खुद आकर
पर्दा गिराता है

और
जब
सब के मन के
हिसाब से होता है
हैड या टेल

यहां तक
किसी का मन
ना भी होने
की स्थिति में

उसके लिये
सिक्का
टेड़े मेड़े
रास्ते पर
खुद ही जा कर
खड़ा हो जाता है

कहावत
है भी
होनहार
बिरवान के
होत चीकने पात

जब
दिखनी
शुरु हो जायें
बिल्लियाँ खुद
अपनी घंटियाँ
हाथ में लिये अपने

और
खूँखार कुत्ता
निकल कर

उनके
बगल से ही

उनको
सलाम ठोकते हुऐ
मुस्कुरा कर
चला जाता है

ऐसे
मौके पर
कोई फिर
क्यों चकराता है

और फिर
समझ में तेरे
ये क्यों नहीं आता है

क्या
गलत है
जब कुछ भी
ऐसा वैसा नहीं
कर पाने वाला

उसकी
ईमानदारी
कर्तव्यनिष्ठा
और
सच्चाई के लिये

सरे आम

किसी
चौराहे पर टाँक
दिया जाता है ।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

कभी कभी अनुवाद करने से मामला गंभीर हो जाता है



बायोडाटा या क्यूरिक्यूलम विटे
नजदीकी और जाने पहचाने शब्द

अर्थ आज तक कभी सोचा नहीं
हाँ बनाये एक नहीं कई बार हैं

कई जगह जा कर बहुत से कागज 
बहुत से लोगों को दिखाते भी आये हैं

कोई नयी बात नहीं है 
पर आज अचानक हिंदी में सोच बैठा

पता चला
अर्थ नहीं हमेशा अनर्थ ही करते चले आये हैं
व्यक्तिवृत या जीवनवृतांत होता हो जिनका मतलब
उसके अंदर बहुत कुछ
ऊल जलूल बस बताते चले आये हैं

डेटा तक सब कुछ ठीक ठाक नजर आता है
बहुत से लोगों के पास
बहुत ज्यादा ज्यादा भी पाया जाता है

कुछ खुद ही बना लिया जाता है
कुछ
सौ पचास बार जनता से कहलवा कर
जुड़वा दिया जाता है

पर वृतांत कहते ही
डेटा खुद ही पल्टी मार ले जाता है

अपने बारे में सभी कुछ
सच सच बता देने का इशारा
करना शुरु हो जाता है

और
जैसे ही बात शुरु होती है
कुछ सोचने की वृतांत की

उसके बारे में फिर
कहाँ कुछ भी किसी से भी कहा जाता है

अपने अंदर की सच्चाई से लड़ता भिड़ता ही कोई
अपने बारे में कुछ सोच पाता है

रखता है जिस जगह पर अपने आप को
उस जगह को पहले से ही किसी और से
घिरा हुआ पाता है

आसान ही नहीं बहुत मुश्किल होता है
जहां अपने सारे सचों को
बिना किसी झूठ का सहारा लिये
किसी के सामने से रख देना

वहीं बायोडेटा किसी का 
किसी को
कहाँ से कहाँ रख के आ जाता है

इस सब के बीच
बेचारा जीवनवृतांत
कब खुद से ही उलझ जाता है
पता ही नहीं चल पाता है ।

चित्र साभार:
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