उलूक टाइम्स

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

कोई नया नहीं है बहुत पुराना है फिर से आ रहा है वही दिन




अब दिन तो 
आते ही हैं 
किसी दिन 
किसी का दिन 
किसी दिन 
किसी का दिन 
एक दिन 
उसका दिन 
एक दिन 
इसका दिन 
एक दिन एक 
मरे हुऐ को 
याद करने 
का दिन 
एक दिन एक 
जिंदा को 
सलाम करने 
का दिन 
ग्लोबलाईजेशन 
के जमाने का 
असर झेलता 
रहा इसी तरह 
अगर दिन 
तो दिखेगा 
एक दिन में 
एक नहीं कई 
कई दिनों 
का दिन 
असल जिंदगी 
के टेढ़े मेढ़े 
दिनो को सीधा 
करता हुआ 
एक दिन 
रोज के आटे 
दाल सब्जी 
रोटी से जूझते 
रहने वाली की 
भी कुछ कुछ 
याद आ ही 
जाने का दिन 
इसका उसका 
नहीं हमारा दिन 
बस एक दिन 
जता लेने के 
लिये बहुत ही 
है प्यारा दिन 
कभी किसी दिन 
रहा होगा यही 
एक कुँवारा दिन 
अब आ ही 
जाता है हर साल 
बताने के लिये 
कहीं किसी ओर 
की तरफ भूल 
कर तो नहीं 
चला जा 
रहा है दिन 
साल के सारे 
दिनों का निचोड़ 
सारे के सारे 
तरह तरह के 
दिनों के ऊपर 
एक दिन के 
लिये ही सही 
मुस्कुराने की 
कोशिश करता 
हुआ बहुत भारी 
होने जा रहा दिन 
एक दो नहीं 
बाईस साला हो 
जा रहा एक दिन 
इतने मजबूत दिन 
के लिये मत
कह देना
 
किस तरह के 
दिन की बात 
बताने जा रहा है 
आज का वाला ये 
तुम्हारा दिन ।

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

पानी नहीं है से क्या है अपनी नाव को तो अब चलने की आदत हो गई है

कोई नई बात नहीं कही गई है 
कोई गीत गजल कविता भी नहीं बनी है 

बहुत जगह एक ही चीज बने 
वो भी ठीक जैसा तो नहीं है 

इसलिये हमेशा कोशिश की गई है 
सारी अच्छी और सुन्दर बातें 
खुश्बू वाले फूलों के लिये 
कहने सुनने के लिये रख दी गई हैं 

अपने बातों के कट्टे में
सीमेंट रेते रोढ़ी की 
जैसी कहानियाँ
कुछ सँभाल कर रख दी गई हैं 

बहुत सारी
इतनी सारी जैसे आसमान के तारों की 
एक आकाशगंगा ही हो गई है 

खत्म नहीं होने वाली हैं 
एक के निकलते पता चल जाता है 
कहीं ना कहीं तीन चार और 
तैयार होने के लिये चली गई हैं 

रोज रोज दिखती है एक सी शक्लें अपने आस पास 
वाकई में बहुत बोरियत सी अब हो गई है 

बहुत खूबसूरत है ये आभासी दुनियाँ 
इससे तो अब मोहब्बत सी कुछ हो गई है 

बहुत से आदमियों के जमघट के बीच में 
अपनी ही पहचान जैसे कुछ कहीं खो गई है 

हर कोई बेचना चाहता है कुछ नया 
अपने कबाड़ की भी कहीं तो अब खपत 
लगता है हो ही गई है ।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

जो सच है उसको उल्टा कर उस की पीठ पर कुछ काम करते हैं



चलिये देश पर चर्चा करते हैं 
देश के नेता पर चर्चा करते हैं 
चर्चा करने में क्या जाता है 
किसे पता है हम अपने घर अपने शहर अपने कार्यालय 
अपने विश्वविद्यालय में क्या करते हैं

देश का नेता जो बनेगा
वो कौन सा हमारी सोच हमारे कामों को
देखने के लिये हमारे घर पर आ रहा है 
घर पर चलो पड़ोसी का जीना कुछ हराम करते हैं

आफिस में किसी पर कोई ऐक्ट को लगा कर 
चलो किसी को बदनाम करते हैं 
जातिवाद होता ही है फैलाने के लिये हमेशा 
उसके लिये कुछ पढ़े लिखे लोग भी कुछ काम करते हैं

स्कूल की कक्षाओं का नाश करते हैं
कौन सा मोदी राहुल या केजरीवाल देखने आ रहा है हो रही हैं कि नहीं
परीक्षाओं का भी इंतकाल करते हैं

एक टोपी या झंडा उठा कर जोर शोर से
कुछ लोगों का जीना हराम करते हैं 

कुछ बहस करते हैं देश के बारे में काम करने की 
किसको पड़ी है काम करने वाले को बेकाम करते हैं
किसी दल का सदस्य बन कर अपने दुश्मन का जीना हराम करते हैं

चलो भी देश का पाठ पढ़ते हैं  कुछ लोगों को पढ़ाते हैं  
अखबार में अपने लोगों के साथ मिलकर कुछ खबर बनाते हैं 
बातें किताब की सारी फैलाते हैं 
काम अपने हिसाब से अपने अपने परिवार के नाम करते हैं 

किसे फुरसत है सोचने की क्या हो रहा है उसके आस पास 
चलो चाँद और सूरज की कुछ बात करते हैं । 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

इस देश में जो शरमाता है वही बेशरम कहलायेगा

पता था ईमानदार
बनकर सरकार
नहीं चला पायेगा
भ्रष्टाचार से चलते
हों जहाँ घर तक
उस देश में कैसे
तुझे ज्यादा दिन
तक मौज मनाने
का आसान मौका
दे दिया जायेगा
अच्छा किया जो
इस्तीफा दे दिया
अब सारे ईमानदारी
के ठेकेदारों के
नाम से दुबारा
टेंडर खुलवाया जायेगा
आम आदमी की टोपी
और आम आदमी का
गाना गा कर आंखिर
कितनी दूर तक
कोई चल पायेगा
बहुत अच्छा किया
जो भी किया
चल सड़क पर आजा
फिर से कुछ नये
क्राँतिकारी गीत सुनायेगा
मीडिया फिर से
टी आर पी के जुगाड़
के लिये तेरी कुछ
नई कहाँनियाँ कुछ
नये नाटक बनायेगा
इस देश में बस
वही टिक पायेगा
जो मुँह में राम
बगल में छुरी दबायेगा
हर मौहल्ले में
जिस देश की
होती है पुराने
चोरों की बहुत
सी गलियाँ
वहाँ किसी भी
नये प्रयोग करने
वाले को इसी तरह
लात मार मार कर
भगा दिया जायेगा
उसके बाद भगाने
वालों का जत्था ही
लगा कर राम और
रहीम के मुखौटे
बेवकूफ जनता को
ईमानदारी से वोट
देने के लिये उकसायेगा
अच्छा किया तूने
बहुत अच्छा किया
पर क्या तू फिर से
गधे की सवारी करने
के लिये दुबारा
गधों के दरबार में
कभी और किसी
दिन हाजिरी लगायेगा
हो सकता है
कुछ तरस खा कर
अगली बार गधा
तुझे हल्की दुलत्ती
लगा कर ही
खुश हो जायेगा
कर फिर कुछ कर
हमारे पास भी
कोई काम
धाम नहीं है
फिर से कुछ
बकवास करने
का एक मौका
हमारे हाथ में
तब भी आ जायेगा ।

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सच सामने लाने में बबाल क्यों हो जाता है

सच कड़वा
होता है
निगला
नहीं जाता है

गांंधी के
मर जाने से
क्या हो जाता है
गांंधीवाद क्या
उसके साथ में
चला जाता है

उसका
सिखाया गया
सत्य का प्रयोग
जब किया जाता है
तो बबाल हो गया
करके क्यों बताया
और
दिखाया जाता है

बहुत बहुत
शाबाशी
का काम
किया जाता है
जब जैसा मन में
होता है वैसा कर
लेने की हिम्मत
कोई कर ले जाता है

उस के लिये
एक उदाहरण
हो जाता है
जो सोचता
वहीं पर है
पर करने
को कहीं
पीछे गली में
चला जाता है

सारे देश में
जब हर जगह
कुछ माहौल
एक जैसा
हो जाता है
ऐसे में  कहीं
किसी जगह से
निकल कर
कुछ बाहर
आ ही जाता है

सच बहुत
दिनों तक
छिपाया
नहीं जाता है

मिर्चा पाउडर का
प्रयोग तो आँसू
लाने के लिये
किया जाता है

देश का दर्द
बाहर ला
कर दिखाने
के लिये कुछ
तो करना ही
पड़ जाता है

संविधान में ही
इस सब
की व्यवस्था
कर लेने में
किसकी
जेब से
पता नहीं
क्या चला
जाता है

जैसा माहौल
सारे देश में
अंदर ही अंदर
छुपा छुपा के
हर दिल में
पाला जाता है

उसे किसी
के बाहर
ला कर
सच्चाई से
दिखा देने
पर क्यों
इतना बबाल
हो जाता है

भारत रत्न
ऐसे ही
लोगों को
देकर
कलयुगी
गांंधी का
अवतार
क्यों नहीं
कह दिया
जाता है

अगर
नहीं हो पा
रहा होता है
इस तरह का
किसी से कहीं

कुछ
सीखने सिखाने
के लिये मास्टर के
पास क्यों नहीं
भेज दिया जाता है

हाथ पैर
चलाये बिना
जिसको बहुत कुछ
करवा देने का
अनुभव होता है
जब ऐसा माना
ही जाता है ।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

जो होना होता है वही हो रहा होता है

कोई भी तो
कुछ नहीं कह
रहा होता है
फिर भी किसी
को कैसे ये लग
रहा होता है
हर समय
कहीं ना कहीं
कुछ ना कुछ
हो रहा होता है
खाना पकता है
खुश्बू आती है
पता चलता है
प्रेशर कूकर हुआ
तो सीटी दे देता है
तेरा कुछ नहीं
हो सकता है
बिना बात के
एक बात की
सौ बात
कर देता है
कई तरह की
बीमारियाँ होती हैं
कई तरह के
बीमार होते हैं
कोशिश की जाती है
इलाज भी होता है
सारे मरीज
मर ही जो
क्या जाते हैं
कुछ की बीमारियों
को डाक्टर ठीक
भी कर देता है
तेरा कुछ नहीं
हो सकता है
तू दवाई की
पर्चियों के ऊपर
भी कुछ ना कुछ
लिख देता है
कहीं भी कुछ
भी नहीं हो
रहा होता है
कोई भी संकेत
नहीं होता है
कुछ तेरे जैसे
लोगों को बस
एक वहम हो
रहा होता है
कोई किसी बात
पर कुछ नहीं
कह रहा होता है
सब कुछ अपनी
जगह पर जैसा था
वैसा ही हो
रहा होता है
बस तुझे ही
कुछ कुछ हमेशा
की तरह का
हो रहा होता है
तेरा सच में
कुछ भी नहीं
हो सकता है
सब के मौज
हो रहे होते हैं
हर कोई खुश
हो रहा होता है
बस एक तू
अपनी आदत
के कारण
कुछ होने या
ना होने पर
रो रहा होता है
तेरा कुछ नहीं
हो सकता है
कुछ होने वाला
होता भी है
तब भी तेरा
जैसा ही बस
कोई यही कह
रहा होता है
हो रहा है जो
कुछ कहीं भी
हो रहा होता है
आँखिर क्यों हो
रहा होता है ।

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

सपने लिखने के लिये नहीं देखने के लिये रखना

इतना सब
उट पटांग
लिखने से
अच्छा ये नहीं है
कि कुछ सपने
ही देख लो
कुछ सपने
ही लिख लो
क्या सपने भी
नहीं आते हैं अब
किसे क्या
बताया जाये
किसे क्या
समझाया जाये
सपने किसे
नहीं आते हैं
कहने को सभी
कोशिश करते हैं
बड़े सपने
देखने के लिये
उकसाते भी हैं
पर सपने भी तो
वही सब कुछ
दिखाते हैं जैसा
आस पास अपने
सब देख सुन कर
रोज सो जाते हैं
फिर भी कुछ
सपने अपने
होते ही हैं
किसी से भी
साझा नहीं
किये जाते हैं
रोज बनते हैं
एक नहीं कई
हो जाते हैं
जमा होते रहते हैं
जैसे बैंक के खाते
में चले जाते हैं
कुछ लोग याद
नहीं रखते हैं
कुछ बार बार
देखना चाहते हैं
जैसे एक पुराने
रद्दी अखबार के
ढेर में से कभी
पुराना एक
अखबार निकाल कर
एक पुरानी खबर
ढूँढना शुरु हो जाते हैं
मनमाफिक मिल
गया होता है
चले आते हैं
नहीं मिलता है अगर
अखबार के ढेर से
फिर उलझ जाते हैं
अच्छे होते हैं सपने
ढेर सारे सपनों के
ढेर से उलझना
एक निकालकर उसे
उलटना पलटना
फिर जहाँ से
उठाया गया हो
वहीं उसी जगह
एक तह किये गये
कपड़े की तरह
रख देना
फिर कभी किसी दिन
निकाल कर देख
लेने के लिये
बाकी करने को
बहुत कुछ होता है
करते चले जाना
कुछ इसका गिराना
कुछ उसका लुढ़काना
बस इस सब में
सपने कभी मत
लिख देना
गलती से भी
ऐसी बेवकूफी
भूल कर भी कभी
मत कर जाना
लिखना रोज
यहाँ भी आना | 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

खड़ा था खड़ा ही रह पड़ा

पत्रकार मित्र ने
पढ़ा जब लिखा
हुआ अखबार में
छपा बड़ा बड़ा
समीक्षा करते हुऐ
कहा जैसा सभी
कह देते हैं अच्छा
बहुत अच्छा है लिखा
और एक बुद्धिजीवी
इससे ज्यादा कभी
कर भी नहीं है सका
कभी कुछ लिख
देने के सिवा
उसके पास नहीं
होता है एक उस्तरा
ना होता है हिम्मत से
लबालब कोई घड़ा
बहुत कायर होता है
लिख लिख कर
करता है साफ
अपने दिमाग से
बेकाम का देखा भोगा
घर का अड़ोस का
या पड़ौस का
हर रगड़ा झगड़ा
परजीवी तो नहीं
कहा जा सकता
पर करने में
लगा रहा हमेशा
कुछ इसी तरह का
खून छोड़िये लाल रंग
को देख कर होता है
कई बार भाग खड़ा
क्रांंति लाया हो कभी
अपने विचारों से
इतिहास में कहीं भी
ऐसा नहीं है देखा गया
मजदूरों ने जब भी
किया कहीं भी कोई
किला इंकलाब का खड़ा
हाँ वहाँ पर जा कर
हमेशा एक बुद्धिजीवी
ही है देखा गया
झंडा फहराता हुआ
एक बहुत बड़ा
पढ़ने वालों से
बहुत है पाला पड़ा
पर ऐ बेबाक मित्र
सलाम है तुझे
तूने मेरे मुँह पर ही
साफ साफ मेरा सच
कड़वा ही सही कहा
कुछ कहते हुऐ
ही नहीं बन पड़ा ।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

क्या करे कोई अगर अच्छा देखने का भी बुरा नजरिया होता है

सबका शहर
सबके लिये
बहुत ही 
खास होता है

बहुत सी
खासियत
होती हैं
हर शहर की
जाना जाता है
पहचाना जाता है
देश ही नहीं
विदेश में भी
हर किसी के लिये
अपना शहर
उसकी नजर में
कुछ ना कुछ
विशेष होता है
सब के लिये
एक ही नहीं
कुछ अलग
भी होता है 
किसी का
बचपन होता है
किसी की
जवानी होती है
किसी का
बुढ़ापा होता है
कोई शहर
छोड़ भी
चुका होता है
पर उसकी
यादों में कुछ
जरूर होता है
मेरी यादों में
पागलों का एक
काफिला होता है
बचपन से आज
तक मैने शहर
की गलियों में
देखा होता है
बहुत ज्यादा मगर
अफसोस होता है
जब याद आता है
बचपन के जाने से
बुढ़ापे के आने  तक
बहुत कुछ बोलते
बहुत कुछ लिखते
बहुत सी जगहों पर
इसी शहर की
गलियों में बहुत से
पागलों को देखा है
बहुत कुछ
खो दिया होता है
जब खुद के
लिखे में उनका
लिखा हुआ
जैसा बहुत
कुछ होता है
मेरे शहर का
मिजाज तब
और होता था
आज कुछ
और होता है
पागल पहले
भी हुऐ है
लिखने और
बोलने वाले

आज भी होते हैं
बाकी हर शहर में
कुछ तो
अलग और

विषेश होता है
जो यहाँ होता है
उससे अलग
कहीं और भी
क्या पता
कुछ और
भी होता है

और बहुत ही
खास होता है ।

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

तू कर अपने मन की हम अपनी करनी करवाते हैं

अब अगर कोई
आम चोर रहा हो
और दूसरा उसे
देखते हुऐ भी
कुछ भी नहीं
कह रहा हो
हो सकता है
उसकी नजर
सेबों पर हो
सेबों के गायब
होते समय
आम खाने वाला
चुप हो जायेगा
उस समय भी तू
मामले को उठा कर
उसका पोस्ट मार्टम
करना शुरु हो जायेगा
पता नहीं क्या क्या
फितूर उठा उठा
के ले आता है
फिर कभी इधर
कभी उधर जा
कर बताता है
इस जमीन पर भी
तेरे जैसे और
कितने तरह के
जोकर पैदा हो जाते हैं
खुद तो कुछ नहीं
कर पाते हैं और
दूसरों के करने पर
पता नहीं क्यों
फाल्तू में खौराते हैं
अब कोई आम चोरे
कोई सेब चोरे
कोई ना चोरे
इस सब को
लिखने दिखाने
के लिये तेरे जैसे ही
यहाँ चले आते हैं
अपने धंधों की बात
तुझ जैसे ही लोग
लोगों को बताते हैं
किसी को भी
नहीं देखा जाता
अपनी पोल पट्टी
सभी यहाँ आने से
पहले सँभाल के
कहीं जरूर आते हैं
कहीं भी कुछ
कर के आते हैं
यहाँ पर्देदारी की
इज्जत पूरी बनाते हैं
पता नहीं तेरे
जैसे लोग भजन
वजन में ध्यान
क्यों नहीं लगाते हैं
लोग पूजा पाठ
भी करते हैं
भागवत सागवत
भी करवाते हैं
पंडाल लगवाते हैं
और मैय्या मोरी
मैं नहीं माखन खायो
गाना जरूर बजवाते है
समझाते हैं चोरी करना
जब भगवान कृष्ण ही
नहीं छोड़ पाते हैं
तो तेरे जैसे के
कहने सुनने पर
कौन बेवकूफ लोग हैं
जो ध्यान लगाते हैं ।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

लिखना किसी के लिये नहीं अपने लिये बहुत जरूरी हो जाता है

किसी
का शौक
किसी के
लिये मौज

किसी के
लिये काम
और
किसी के लिये
धंधा होता होगा

अपने
लिये तो
बस एक
मजबूरी
हो जाता है

किसी
डाक्टर ने
भी नहीं
कहा कभी

पर जिंदा
रहने के लिये
लिखना
बहुत जरूरी
हो जाता है

क्या किया जाये

अगर
अपने ही
चारों तरफ

मुर्दा मुर्दों
के साथ
दिखना शुरु
हो जाता है

जीवन
मृत्यू का गुलाम
हो जाता है

ऐसे समय में
ही महसूस होना 

शुरु हो जाता है

अपनी
लाश को
ढो लेना
सीख लेना
कम से कम
बहुत जरूरी
हो जाता है

हर जगह लगे
होते हों अगर पहरे
सैनिक और सिपाही
चले गये हों
नींद में बहुत गहरे

रोटी छीनने वाला
ही एक रसोईया
बना दिया जाता है

ऐसे में भूखा सोना
मजबूरी हो जाता है

लिखने से भूख
तो नहीं मिटती
पर लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है

हर जगह हर कोई
तलाश में रहने
लगता है एक कंधे के

अपने सबसे खास
के पीछे से उसी के
कंधे पर बंदूक रख
कर गोलियाँ चलाता है

गिरे खून का हिसाब
करने में जब दिल
बहुत घबराता है

जिंदा रहने के लिये
ऐसे समय में ही
लिखना बहुत जरूरी
हो जाता है

कोई किसी के लिये
लिखता चला जाता है
कोई खुद से खुद को
बचाना तक नहीं
सीख पाता है

लिखना तब भी
जरूरी हो जाता है

इस खाली जगह पर
एक लगाम जब तक
कोई नहीं लगाता है

लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है

मकड़ियाँ जब बुनने
लगे मिल कर जाल
मक्खियों के लिये
कोई रास्ता नहीं
बच पाता है

कभी कहीं तो लगेगी
शायद कोई अदालत
का विचार अंजाने
में कभी आ ही जाता है

सबूत जिंदा रखने
के लिये भी कभी
लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

एक समझदार बेकार की चीजों के कारण कभी भी अंदर नहीं होता है

एक बियर की
खाली बोतल
एक औरत
एक मंदिर
और एक पुजारी
बहुत होती हैं
इतनी चीजें
और एक खबर
बन ही जाती है
जितना बड़ा भगवान
उतना बड़ा पुजारी
बड़े भगवान की
सेवा करने का
मेवा भी बहुत
बड़ा होता है
बड़े होटल में
जाने के लिये
लेकिन पता नहीं
उसे कौन
बोल देता है
जब कि धर्म के
हिसाब से वहाँ
जाना छोड़िये
सोचने से भी
धर्म भ्रष्ट होता है
अब कौन समझाये
बेवकूफों को
कोई वेद ग्रँथ
पढ़ लिख लेने
भर से ही
दिमाग थोड़े ना
तेज होता है
इतना तो कोई भी
सोच सकता है
कि भारतीय पुलिस
के मन आ गई
तो स्काट लैंड यार्ड
भी उनके सामने
पानी भर रहा होता है
बियर और बियर
बनाने वाली कँपनी
की गलती भी
कोई नहीं देखता है
पंडित पुजारी के
लिये वर्जित है
की चेतावनी बोतल
के तले में क्यों
नहीं छपा होता है
पुजारी होना भी
गुनाह नहीं है
बियर पीना भी
गुनाह नहीं है
एक औरत को
छू लेना
पीने के बाद
या पीने के पहले
एक गुनाह कम
या ज्यादा
जरूर होता है
इतना कम नहीं
कि माँस मछली
खाने की खबर
किसी भी अखबार
का रिपोर्टर
नहीं देता है
एक हड्डी नहीं
मिली होगी कहीं
या बात हो
गई होगी
खाने से पहले और
पीने के बाद कहीं
समझदार लोगों को
जो भी काम
करना होता है
नियम कानून के
अंदर ही जरूर
करना होता है
इन सभी मामलों से
इतना तो पता होता है
समझदार कभी भी
तिहाड़ देखने के लिये
नहीं गया होता है
पुजारी पढ़ा लिखा
एक बहुत बड़ा
बेवकूफ होता है
इतना तो पक्का ही
इन सब बातों से
सिद्ध ही होता है ।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

कुछ नया लिख कोशिश तो कर उल्टा ही लिख

किसी
एक दिन
लिख क्यों
नहीं लेता
अपनी तन्हाई

पूरी
ना सही
आधी अधूरी
ही सही

अपने लिये
ना सही
किसी और को
समझाने के
लिये ही सही

पता
तो चले
तन्हाई
तन्हाई
का अंतर

तुझे भी
और
किसी और
को भी

सभी
लिखते हैं
बताने के लिये

वो सब
जो पता
होता है

कोई
कहाँ लिखता है
वो सब कुछ
जो सच में
छुपा होता है

दिखाने की
हो चुकी है
दुनियाँ तो
दिखाने के
लिये ही सही

कुछ लिख
तो सही
अजीब सा
ही सही

जो है
लिखा हुआ
कुछ भी
नया नहीं

कुछ है नया
लिखा हुआ
बताने के
लिये ही सही

तन्हाई
कोई नहीं
लिखता है
कभी हिम्मत
तो कर

कुछ लिख
कोशिश तो कर
ना पढ़े
ना समझे कोई

आज तक
कौन सा समझ
ले रहा है तेरा लिखा

समझा कर
कौन सा
मर जायेगा
लिख कर
अपनी तन्हाई

समझा कर
मर भी गया
तो कुछ नहीं होगा

तन्हा तन्हा
मरने वालों के
गम को
कुछ तो
कम कर

चल
तन्हाई पर
लिख ही ले आज

कुछ अपना
और
कुछ किसी का
बोझ तो
कम कर

जो
होना है वो
हो रहा है
होता रहेगा

तू लिखेगा
लिखता रहेगा

कभी अपनी
अंगड़ाई
पर लिख
कभी अपनी
तन्हाई
पर लिख

कोशिश
तो कर
कुछ नया
लिखने की
ऊपर वाले की
बेहयाई पर लिख ।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

हर कोई हर बात को हर जगह नहीं कहता है इसी दुनियाँ में बहुतों के साथ बहुत कुछ होता है

प्रकृति के
सुन्दर भावों
और दृश्यों पर
बहुत कुछ
लिखते है लोग

लिखा हुआ
पढ़ना भी
चाहते हैं
पर
दुनिया में
कितने प्रकार
के होते हैं
लोगो के प्रकार
बस ये ही
भूल जाते हैं

अपेक्षाओं का
क्या किया जाये
कब किसकी
किससे क्या
हो जाती हैं

दुनियाँ बड़ी
गजब की है
चींंटी भी एक
हाथी की सूंड में
घुस कर उसे
मार ले जाती है

अब
कौन कुत्ता
किस प्रकार
का कुत्ता
हो जाता है
कुत्ता पालने
के समय
किसी से
कहाँ सोचा
जाता है

बहुत से लोग
कुत्तों को
पसँद नहीं
करते हैं
फिर भी
एक कुत्ता
होना ही
चाहिये की
चाह जरूर
रखते हैं

इसलिये
सोच लेते हैं
अपनी सोच में
एक कुत्ते को
और
पालना शुरु
हो जाते हैं

सब कुछ
क्योंकि
सोच में ही
चल रहा
होता है
कोई जंजीर
या
पट्टे से उसे
बांध नहीं
पाते हैं

बस यहीं से
अपेक्षाओं
के महल
का निर्माण
करना शुरु
हो जाते हैं

पालतू
बन कर
कुत्ता
जो पल
रहा होता है

उसे कुछ
भी नहीं
बताते है 

ऐसे में
कैसे उससे
वफादारी
की उम्मीद
पालने वाले
लोग सोचते
सोचते ही
कर ले जाते हैं

सोच में
ही अपनी
अपने किसी
दुश्मन को
काटता हुआ
देखने का
सपना
एक नहीं
कई देख
ले जाते हैं

टूटता है
बुरी तरह
कभी
इसी तरह
अपेक्षाओं
का पहाड़

जब उसी
पाले हुऐ
कुत्ते को
दुश्मन
के साथ
खुद की
ओर भौंकता
हुआ पाते हैं

बस
भौंचक्के
होकर
सोचते ही
रह जाते है

आदत
फिर भी
नहीं छूटती है

एक दूसरा
कुत्ता फिर से
अपनी सोच
में ले ही आते हैं !

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

एक ही जैसी कहानी कई जगह पर एक ही तरह से लिखी जाती है कोई याद दिलाये याद आ जाती है

घर से शहर की
तरफ निकलते
एक चौराहा
हमेशा मिलता है
जैसे बहुत ही
नजदीक का कोई
रिश्ता रखता है
चौराहे के पास
पहुँचते ही हमेशा
सोचा जाता है
किस रास्ते से
अब चला जाये
सोचा ही जाता है
एक थोड़ा सा लम्बा
पर धीमी चढ़ाई
दूसरी ऊँची सीढ़ियाँ
नाम बावन सीढ़ी
पता नहीं कभी
रही होंगी बावन
पर अब गिनते
गिनते छप्पन
कभी ध्यान हटा
गिनने से तो
अठावन भी
हो जाती हैं
दो चार सीढ़ियाँ
ऊपर नीचे गिनती
में हो जाने से
कोई खास परेशानी
होती हो ऐसी भी
बात कभी कहीं
नजर नहीं आती है
पर कुछ जगहें
बहुत सी खास
बातों को लिये हुऐ
एक इतिहास ही
हो जाती हैं
भूगोल बदलता
चला जाता है
कुछ पुरानी बातें
कभी अचानक
एक दिन कब
सामने आ कर
खड़ी हो जाती हैं
बता के नहीं
आ पाती हैं
'बाबू जी दो रुपिये
दो चाय पियूँगी'
नगरपालिका की
एक पुरानी
सफाई कर्मचारी
हाथ फैलाती थी
पैसे मिले नहीं
आशीर्वादों की झड़ी
शुरु हो जाती थी
क्या मजबूरी थी
क्यों आती थी
उसी जगह पर
एक गली
शराब की दुकान
की तरफ भी
चली जाती थी
बहुत से लोग
निकलते थे
निकलते ही
चले जाते थे
कुछ नहीं देते थे
बस कहते जाते थे
क्यों दे रहे हो
शाम होते ही ये
शराब पीने को
चली जाती है
पर कभी देखी
नहीं किसी जगह
कोई औरत भी
लड़खड़ाती है
बहुत दिन से
खयाल किया है
इधर बुढ़िया अब
नजर नहीं आती है
सीढ़िया चढ़नी
ही पड़ती हैं
अक्सर चढ़ी जाती हैं
छोर पर पहुँचते
पहुँचते अँगुलियाँ
जेब में सिक्के
टटोलने शुरु
हो जाती हैं
पान से लाल
किये होठों वाली
उस औरत का
ख्याल आते ही
नजर शराब की
दुकान की तरफ
जाने वाली गली
की तरफ अनजाने
में मुड़ जाती हैं
पता नहीं किस
की सोच का
असर सोच
को ये सब
करवाती है ।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

हर शुभचिंतक अपने अन्दाज से पहचान बनाता है


कितना कुछ होता है अपने आस पास 
बिल्कुल भी एक जैसा नहीं 
एक ऐसा तो दूसरा वैसा 

लिखने की सोचो 
तब महसूस होता है कुछ अजब गजब सा 

क्या छोड़ो क्या उठाओ 
मदारी उठाओ जमूरा छूट जाता है 
जमूरे की सोचो मदारी अकेला पड़ने लग जाता है 

पर सोचिये जरा 
हर आदमी का ऐंगल 
दूसरे आदमी से कहीं छोटा तो कहीं बड़ा हो जाता है 

किस पर क्या लिखा जाये 
एक विषय सोचने तक कलकत्ता आ जाता है 

बस और देर की गई तो जैसे लिखा हुआ 
समुन्दर में डूब जाने के लिये तैयार हो जाता है 

इस से पहले कोई डूबे कहीं 
दिमाग की लेखनी का ढक्कन 
कहीं ना कहीं उलझ ही जाता है 

तो ऐसे ही होते होते 
आज अपने ही एक शुभचिंतक का खयाल आ जाता है 

ना समाचार पत्र पढ़ता है ना रेडियो सुनता है 
आँखों में बस गुलाबजल डालता है 
टी वी देखने के हजार नुकसान बता डालता है 

बस जब भी मिलता है 
उससे पूछने से नहीं रहा जाता है 

जैसे एक रोबोट 
कलाबाजियाँ कई एक साथ खाता है 

भाई क्या हाल और क्या चाल हैं 
फिर दूसरा वाक्य और कोई खबर 

सबके साथ यही करता है 

क्यों करता है 
हर कोई इसे भी एक शोध का विषय बनाता है 

उलूक दिन में नहीं देख पाता है 
तो क्या हुआ 
रात में चश्मा नहीं लगाता है 

उलूकिस्तान में 
इस तरह की बातों को समझना 
बहुत ही आसान माना जाता है 

समाचार पत्रों में जो भी समाचार दिया जाता है 
उससे अपने आस पास के गुरु घंटालो के बारे में 
कुछ भी पता नहीं लग पाता है 

अच्छी जाति का कोई भी कुत्ता 
विस्फोटक का पता सूंघ कर ही लगाता है 

इसीलिये हर शुभचिंतक 
चिंता को दूर करने के लिये 
खबरों को सूंघता हुआ पाया जाता है

मिलते ही आदतन 
क्या खबर है 
उसके मुँह से अनायास ही निकल जाता है ।

चित्र साभार: iStock

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कुछ ना इधर कुछ ना उधर कहीं हो रहा था

लिखा हुआ
पत्र एक
हाथ में
कोई लिया
हुआ था

किस समय
और कहाँ पर
बैठ कर
या खड़े होकर
लिखा गया था

शांति थी साथ में
या बहुत से लोगो
की बहस सुनते हुऐ
कुछ अजीब सी
जगह से बिना
सोचे समझे ही
कुछ लिख विख
दिया गया था

कितनी पागल
हो रही थी सोच
किस हाल में 

शरीर बहक
रहा था

नहा धो कर
आया हुआ
था कोई
और खुश्बू से
महक रहा था

बह रही
थी नाक
छींकों
के साथ
जुखाम
बहुत
जोर का
हो रहा था

झगड़ के
आया था
कोई कहीं
आफिस में
बाजार में
या घर की
ही मालकिन से
पंगा हो रहा था

नीरो की
बाँसुरी भी
चुप थी
ना कहीं
रोम ही
जल रहा था

सब कुछ
का आभास
होना इस
आभासी
दुनियाँ में
कौन सा
जरूरी
हो रहा था

अपनी अपनी
खुशी
छान छान
कर कोई
अगर
एक छलनी
को धो रहा था

दुखी और बैचेन
दूसरा कोई कहीं
दहाड़े मार मार
कर रो रहा था

बहुत सी जगह
पर बहुत कुछ
लिखा हुआ पढ़ने
का शायद कुछ
ऐसा वैसा ही
असर हो रहा था

पत्र हाथ में
था उसके
पर पढ़ने का
बिल्कुल भी मन
नहीं हो रहा था

अपने अपने
कर्मो का
मामला होता है

कोई इधर तो
कोई उधर पर
खुद ही
ढो रहा था ।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

अच्छा होता है जब समझने वाली बात नहीं लिखी जाती है

बहुत सी बातें
कई बार किसी
खास मौके पर ही
समझ में आती हैं

कोई हादसा नहीं
हो पाया हो तो
समझने की जरूरत
भी नहीं रह जाती है

एक चिकित्सक के
दिये पर्चे पर जब
नजर जाती है
गोले बने हुऐ से

गोलियाँ
खाने की
संंख्या और
बारम्बारता

एक गधे के लिये
भी समझ लेने वाली
आसान सी एक
बात हो जाती है

बाकी दवाईयों को
समझने की जरूरत
ही कहाँ हो पाती है

दुकान से दवाईयों
के ऊपर भी गोले
बना के समझा 
ही दी जाती हैं

बहुत बार लगता है
समझ में कुछ
तो आना चाहिये

चिकित्सक महोदय
से पूछने पर बता
भी दी जाती हैं

क्यों होता होगा ऐसा

दिमाग में
जोर डालने की
बात हो जाती है

जब एक ही तरह
के शब्दों से बनी
माला दूसरे के
द्वारा उल्टा कर के
बना दी जाती है

किसने बनाई
किसके लिये बनाई
दोनो कैसे एक
जैसी हो जाती हैं

सही करता है
एक चिकित्सक
इस बात से
बात समझ
में आती है

एक के द्वारा
लिख दी गई दवाई
दूसरे को पता भी
नहीं चल पाती है

बहुत अच्छा
करते हैं
कुछ लोग
कुछ ऐसा
ही लिखकर

जिसे देख कर
उसे दुबारा
छाप लेने की सोच

कहींं और भी
पैदा नहीं
हो पाती है ।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

सच कहा जाये तो दिल की बात कहने में दिल घबराता है

कितना
कुछ भी

लिख
दिया जाये

वो

लिखा ही
नहीं जाता है

जो

बस
अपने से
ही साझा
किया जाता है

इस पर
लिखना
उस पर
लिखना

लिखते
लिखते
कुछ भी
लिखना

बहुत
कुछ
ऐसे ही
लिखा
जाता है

लिखते
लिखते भी
महसूस होना

कि
कुछ भी
नहीं लिखा
जाता है

हर
लिखने वाला
इसी मोड़ पर

बहुत ही
कंजूस
हो जाता है

पढ़ने
वाले भी
बहुत होते हैं

कोई
पूरा का पूरा
शब्द दर शब्द
पढ़ ले जाता है

बेवकूफ
भी नहीं होता है

फिर भी
कुछ भी नहीं
समझ पाता है

शराफत होती है

बहुत
अच्छा
लिखा है
की टिप्पणी

एक
जरूर दे जाता है

बहुत अच्छा
लिखने वाले को
पाठक ही नहीं
मिल पाता है

एक
अच्छी तस्वीर के

यहाँ बाजार
लगा नजर आता है

 कुछ अच्छा
लिख लेने की सोच

जब तक
पैदा करे कोई
एक कभाड़ी 
बाजार भाव
गिरा जाता है

बहुत से
पहलवान हैं

यहाँ भी
और वहाँ भी

दादागिरी
करने में

लेखक
और
पाठक से
कमतर
कोई नजर
नहीं आता है

दाऊद
यहाँ भी हैं
बहुत से

पता नहीं

मेरा
ख्वाब है
या
किसी और
को भी
नजर आता है ।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

आज के दिन अगर तू नहीं मारा जाता तो शहर का साईरन कैसे टेस्ट हो पाता

सुबह सुबह आज भी
सुनाई दिया जो
रोज सुनाई देता था
आप सोच रहे होंगे
अलार्म जी नहीं
उसकी जरूरत
उनको पड़ती है
जिनको साउंड स्लीप
रोज आती है
किसी भी बात की
चिंता जिन्हे कभी
नहीं सताती है
अपने यहाँ नींंद
उस समय ही
खुल पाती है
जब एक आवाज
कुछ देर हल्की
फिर होते होते
तेज हो जाती है
दूध नहीं लाना है आज
तब महसूस होता है
क्यों दूध भी नल
में नहीं आता है
पानी मिला हुआ
ही तो होता है
पानी के नल में ही
क्यों नहीं दे
दिया जाता है
बाकी सब वही
होना था रोज रोज
का जैसा रोना था
बस ग्यारा बजे
सायरन मेरे शहर में
आज कुछ नया
सा जब बज उठा था
पहले लगा कहीं
आग लग गई होगी
फिर पुराना दिमाग
सोता हुआ सा
कुछ कुछ जगा था
आज की तारीख
पर ही तो कभी
गांंधी मारा गया था
देश के द्वारा
हर साल इसी दिन
मौन रख रख कर
उसका एहसान
उतारा गया था
कितनी किश्ते
बचीं हैं अभी तक
बताया नहीं गया था
क्या पता कुछ
ब्याज जोड़ कर
कुछ और वर्षों के
लिये सरकाया गया था
दो मिनट बाद
फिर बजा साईरन
मेरा शहर उठा उठा
एक साल के लिये
फिर से सो गया था
और मैं भी उठा
दूध की बाल्टी
पकड़ कर घर की
सीढ़ियांं उतरना
शुरु हो गया था । 

बुधवार, 29 जनवरी 2014

पुरानी किताब में भी बहुत कुछ दबा होता है खोलने वाले को पता नहीं होता है

एक
बहुत पुरानी 
सी किताब पर 
पड़ी धूल को झाड़ते ही

कुछ 
ऐसा लगा
जैसे 

कहीं किसी पेज 
पर
कोई चीज 
है अटकी हुई 

जिससे लग रही है 
किताब कुछ पटकी पटकी हुई 

चिपके हुऐ पन्नों के 
खुलने में बहुत ध्यान रखना पड़ा 

सोचना ये पड़ा 

फट ना जाये कहीं 
थोड़ा सा भी रखा हुआ कुछ विशेष 
और
हाथ से निकल 
ना जाये कोई खजाना बरसों पुराना 
या
उसके 
कोई भी अवशेष 

या
शायद
कोई 
सूखा हुआ
गुलाब 
ही दिख जाये 
किसी जमाने की किसी की
प्रेम 
कहानी ही समझ में आ जाये 

ऐसा भी मुमकिन है 
कुछ लोग रुपिये पैसे भी कभी किताबों में 
सँभाला करते थे 

हो सकता है 
ऐतिहासिक बाबा आदम के जमाने का कोई पैसा 
ऐसा निकल जाये 
अपनी खबर ना सही 
फटे नोट की किस्मत ही कुछ सुधर जाये 

किसी शोध पत्र में 
कोई उसपर कुछ लिख लिखा ले जाये 
धन्यवाद मिले नोट पाने वाले को 
नाम पत्र के अंतिम पेज में ही सही 
छप छपा जाये 

शेखचिल्ली के सपने 
इसी तरह के मौकों में समझ में आते होंगे 
किताबों के अंदर बहुत से लोग 
बहुत कुछ रख रखा कर भूल जाते होंगे 

परेशानी की बात
तो 
उसके लिये हो जाती होगी
जिसके 
हाथ
इस तरह की 
पुरानी किताब कहीं से पड़ जाती होगी 

बड़ी मेहनत और 
जतन से
चाकू 
स्केल की मदद से 
बहुत देर में जब सफलता हाथ में आ ही जाती है 

जो होता है अंदर से 
उसे देख कर खुद झेंप आ जाती है 
अपने ही लेख में लिखी
एक इबारत 
पर जब
नजर 
पड़ जाती है 

लिखा होता है 

"इसे इसी तरह से 
चिपका कर उसी तरह रख दिया जाये 
'उलूक' अपनी बेवकूफी किसी को बताई नहीं जाती है" ।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

क्या किया जाये अगर कोई कुछ भी नहीं बताता है


चलिये

आज
आप 
से ही
पूछ लेते हैं 

कुछ
लिखा जाये 
या
रहने दिया जाये 

रोज लिख लेते हैं 
अपने मन से
कुछ भी 

पूछते भी नहीं 

फिर
आज कुछ 
अलग सा
क्यों 
ना
कर लिया जाये 

अपना लिखना 
अपना पढ़ना 
अपना समझना 
सभी करते हैं 

कौन
किसी से 
पूछ कर लिखता है 

चलिये
कुछ 
नया कर लेते हैं 

आप बताइये 
किस पर लिखा जाये 
क्या
लिखा जाये 
कैसे
लिखा जाये 

जैसे
खाना पकाना 
सब का
अलग 
अलग
होता है 

एक
जैसा भी 
होने से कुछ 
नहीं होता है 

बैगन की
सब्जी 
ही होती है 

एक
बनाता है 
तो
कद्दू
का 
स्वाद होता है 

दूसरे
के बनाने पर 
पूछना
पड़ जाता है 
बैगन
जैसा कुछ 
लग रहा है 

हमारे
शहर के 
पाँच सितारा होटल 
का
एक बहुत
प्रसिद्ध 
खानसामा
इसी तरह 
का
बनाता है 

अरे
परेशान होने 
को
यहाँ कोई भी 
नहीं आता है 

सबको पता होता है 
सब कुछ हमेशा 

कोई
अनपढ़ 
सुना है

क्या 
कहीं कमप्यूटर 
भी चलाता है 


ये तो बस कुछ 
देर का शगल है 

नये जमाने के 
नये लोगों का 

क्या
यहाँ कोई 
किसी बंदर के 
हाथ में अदरख 
है या नहीं 
देखने आता है 

एक जमाने में 
डायरी हुआ करती थी 

कोई
नहीं परेशान 
होता था
इस बात से 
शाम होते ही 
लिखने वाला

अपनी 
दिन भर की कमाई 
सब से छुपा कर 
किस किताब के 
किस पन्ने में 
जमा कर जाता है 

आज
बस रूप 
बदल गया पन्ने का 
आदमी
उसकी पतंग 
बना कर भी 
अगर
उड़ाता है 

कोई
उस पतंग की 
उड़ान को देखने के 
लिये नहीं आता है 

कटी
पतंगें होती है 
कुछ कुछ 
पतंग बाजों की 
उनका आना एक 
मजबूरी उनकी 
हो जाता है 

ये
शक की बीमारी भी 
बहुत बर्बादी ले 
कर आती है 

वो
बस ये देखने 
के लिये आता है 

कहीं
कोई उसकी 
पतंग उड़ाने तो 
नहीं आता जाता है 

बहुत देर से 
पूछ रहा था “उलूक” 
क्या करना है 

नहीं मिला
कोई जवाब 
बाद में मत कहना 
जो मन में आये 
यहाँ लिख लिखा कर 
चला जाता है ।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

क्यों तू लिखे हुऐ पर एक्सपायरी डाल कर नहीं जाता है


ऐसा कुछ भी नहीं है जो लिखा जाता है
आदत पड़ जाये किसी को तो क्या किया जाता है

बहुत दिन तक नहीं चलता है
लिखे हुऐ को किसी ने नहीं देखा कहीं
रेफ्रीजिरेटर में रखा जाता है

दुबारा पलट कर देखने वैसे भी तो कोई नहीं आता है
एक बार भी आ गया तब भी तो बहुत गजब हो जाता है

बिकने वाला सामान भी नहीं होता है
फिर भी पहले से ही मन बना लिया जाता है

एक्स्पायरी एक दिन की ही है
बताना भी 
जरूरी नहीं हो जाता है

दाल चावल बीन कर हर कोई खाना चाहता है
कुछ होते है जिन्हें बस कीड़ोँ को ही गिनने में मजा आता है

रास्ते में ही लिखता हुआ चलने वाला
मिट जाने के डर से भी लौट नहीं पाता है

शब्द फिर भी कुचला करते हैं
आसमान पढ़ते हुऐ चलने वाला भी
उसी रास्ते से आता जाता है

बड़ी बड़ी बातें समझने वाले और होते हैं
जिनके लिखने लिखाने का हल्ला
कुछ लिखने से बहुत पहले ही हो जाता है

"कदर उल्लू की उल्लू ही जानता है
चुगत हुमा को क्या खाक पहचानता है"

उलूक की महफिल में ऐसा ही एक शेर
किसी उल्लू के मुँह से ही यूँ ही नहीं फिसल जाता है ।

चित्र साभार: http://www.amzbolt.com/blog/Decoding-best-before-and-expiry-date-labels/index.aspx

रविवार, 26 जनवरी 2014

कोई गुलाम नहीं रह गया था तो हल्ला किस आजादी के लिये हो रहा था

गुलामी थी सुना था लिखा है किताबों में
बहुत बार पढ़ा भी था आजादी मिली थी
देश आजाद हो गया था

कोई भी किसी का भी गुलाम नहीं रह गया था
ये भी बहुत बार बता दिया गया था 
समझ में कुछ आया या नहीं
बस ये ही पता नहीं चला था

पर रट गया था
पंद्रह अगस्त दो अक्टूबर और
छब्बीस जनवरी की तारीखों को
हर साल के नये कलैण्डर में हमेशा
के लिये लाल कर दिया गया था

बचपन में दादा दादी ने
लड़कपन में माँ पिताजी ने
स्कूल में मास्टर जी ने
समझा और पढ़ा दिया था

कभी कपड़े में बंधा हुआ
एक स्कूल या दफ्तर के डंडे के ऊपर
खुलते खुलते फूल झड़ाता हुआ देखा था

समय के साथ शहर शहर गली गली
हाथों हाथ में होने का फैशन बन चला था

झंडा ऊंचा रहे हमारा
गीत की लहरों पर झूम झूम कर
बचपन पता नहीं कब से कब तक
कूदते फाँदते पतंग उड़ाते बीता था

जोश इतना था किस चीज का था
आज तक भी पता ही नहीं किया गया था 
पहले समझ थी
या अब जाकर समझना शुरु हो गया था

ना दादा दादी ना माँ पिताजी
ना उस जमाने के मास्टर मास्टरनी
में से ही कोई एक जिंदा बचा था

अपने साथ था अपना दिमाग
शायद समय के साथ
उस में ही कुछ गोबर गोबर सा हो गया था

आजादी पाने वाला
हर एक गुलाम समय के साथ कहीं खो गया था 
जिसने नहीं देखी सुनी थी गुलामी कहीं भी
वो तो पैदा होने से ही आजाद हो गया था

बस झंडा लहराना
उसके लिये साल के एक दिन जरूरी
या शायद मजबूरी एक हो गया था

कुछ भी कर ले कोई कहीं भी कैसे भी
कहना सुनना कुछ किसी से भी नहीं रह गया था 
देश भी आजाद देशवासी भी आजाद
आजाद होने का ऐसे में क्या मतलब रह गया था

किसी को तो पता होता ही होगा
जब एक 'उलूक' तक अपने कोटर में
तिरंगा लपेटे “जय हिंद” बड़बड़ाते हुऐ 
गणतंत्र दिवस के स्वागत में सोता सोता सा रह गया था ।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

किसी की दुखती रग पर क्या इसी तरह हाथ रखा जाता है

सुबह सुबह उठते
ही कोई पूछ बैठे
कल के बारे में
तो वही बता पाता है
जिसको आज के
बारे में बहुत कुछ
विस्तार से समझ
में आता जाता है
उस के लिये कोई
कुछ नहीं कर सकता है
जिसकी सोच में
मोच आने से बहुत
लोच आ जाता है
अब ये भी कोई
प्रश्न हुआ पूछना
क्या आपके वहाँ भी
गणतंत्र दिवस
मनाया जाता है
प्रश्न कठिन भी
नहीं होता है
पर घूमा हुआ
दिमाग ऐसे में
कलाबाजी खा
ही जाता है
एक एक अर्जुन
अपने हाथ में
अपनी मछली की
आँख को लिया हुआ
तीर से कुरेदता हुआ
सामने सामने ही
दिखने लग जाता है
ऐसे में जवाब
दिया ही जाता है
जी हाँ बिल्कुल
मनाया जाता है
गणों के द्वारा
हमारे तंत्र में भी
गणतंत्र दिवस
हमेशा हर वर्ष
जैसा हर जगह
मनाया जाता है
झंडा भी होता है
तिरंगा भी होता है
जय हिंद का नारा
भी जोर शोर से
लगाया जाता है
सारे देश भक्त
जरूर दिखते हैं
उस दिन दिन में
अखबार में समाचार
भी फोटो शोटो
के साथ आता है
सारे अर्जुनोँ की
मछलियों की आँख
और तीर में ही
मगर हमेशा की तरह
हर गणतंत्र दिवस में
'उलूक' का ध्यान
भटक जाता है
देश भक्ति का
सबूत देने का मौका
आते आते हमेशा ही
उसके हाथ से
इसी तरह फिर
एक बार छूट जाता है ।