सब कुछ लिख देने की चाह में
नकली कुछ लिख दिया जाता है
बहुत कुछ असली लिखा जाने वाला
कहीं भी नजर नहीं आता है
कहीं नहीं लिखा जाता है वो सब
जो लिखने के लिये
जो लिखने के लिये
लिखना शुरु करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है
सारा सब कुछ
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
दौड़ने लगता है उल्टे पाँँव
जैसे लिखने वाले से ही
दूर कहीं भागना चाहता है
दूर कहीं भागना चाहता है
जब तक समझने की कोशिश करता है
लिखते लिखते लिखने वाला
कलम पीछे छूट जाती है
स्याही जैसे फैल जाती है
कागज हवा में फरफराना शुरु हो जाता है
ना वो पकड़ में आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है
कितनी बार समझाया गया है
सूखने तो दिया कर स्याही पहले दिन की
दूसरे दिन गीले पर ही
फिर से लिखना शुरु हो जाता है
कितना कुछ लिखा
कितना कुछ लिखना बाकी है
कितना कुछ बिका कितना बिकेगा
कितना और बिकना बाकी है
हिसाब लगाते लगाते
लिखने वाला
लेखक तो नहीं बन पाता है
बस थोड़ा सा कुछ शब्दों को
तोलने वाली मशीन हाथ में लिये
एक बनिया जरूर हो जाता है
कुछ नहीं किया जा सकता है ‘उलूक’
देखते हैं एक नये सच को
खोद कर निकाल कर
समझने के चक्कर में
रोज एक नया झूठ बुनकर
आखिर कब तक
कोई हवा में उसकी पतंग बना कर उड़ाता है
पर सलाम है उसको
जो ये देखने के लिये हर बार
जो ये देखने के लिये हर बार
हर पन्ने में किनारे से झाँकता हुआ
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।
चित्र साभार: www.istockphoto.com