उलूक टाइम्स

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

कुछ रूह होती हैं कुछ रूह भूत होती हैं

कुछ रूह होती हैं
सहला देती हैं रूह को बस यूँ ही
कुछ बदल देती हैं समां
यूँ ही आस पास का
लगता है कहीं होती हैं

गोश्त और गोश्त में
कहां कोई फर्क नजर आता है
गोश्त कुछ रूह से महकी हुई
मगर जरुर होती हैं

शुक्रिया कहने की जरुरत
कहां कब रह जाती है
आसपास एक नहीं
जब चाहने वाली कई रूह होती हैं

अब रूह कहें आत्मा कहें
राम और रहीम की भी होती हैं
बहस कुछ गोश्त पर छपी
हमेशा होती हैं और जरुर होती हैं

हजार रूह के बीच
बस एक दो कुछ अजीब होती हैं
गोश्त और रूह से अलहदा
कुछ थोड़ा सा भूत होती हैं

हजारों ख्वाहिशे होती हैं
रूह भी कभी कभी रोती है
उलूक जाना लकड़ियों में है
जलना लकड़ियों में है
खबरें होती हैं
और हमेशा मगर
किसी गोश्त की होती हैं |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/ 




शनिवार, 31 दिसंबर 2022

लम्हे

 


कुछ लम्हे मुट्ठी के अंदर
कुछ लम्हे मुट्ठी के बाहर
कुछ लम्हे बिछे सड़क में
कुछ लम्हे तो हो गए शायर


लम्हे लम्हे सिमटा जीवन
लम्हे लम्हे बिखरा जीवन
किसने पकड़े किसने जकड़े
लम्हे बहके लम्हे संभले
मन ही मन


लम्हे दर लम्हे पीड़ा
लम्हे दर लम्हे दुख
कर बस कर वंदन
लम्हे दर लम्हे खुशियां
लम्हे दर लम्हे चंदन
चन्दन


लम्हे चिढ़ के लम्हे गुस्सों के
लम्हे मार पीट के
गिन मधुबन
लम्हे चीर फाड़ के
लम्हे प्यार बाँट के
जोड़ घटा
शबनम शबनम


लम्हे के पीछे मन
लम्हे के आगे तन
लम्हों से बिखरा आँगन
लम्हे पाठक के
बस नव वर्ष का स्वागतम |

चित्र साभार: https://www.youtube.com/watch?v=iFHpIMzVO3Y

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शनिवार, 19 नवंबर 2022

स्वागत है: शहर आपके कदमों की बस आहट से आबाद है

 


सबसे सही आदमी सुना है आज शहर में है
शहर सुना है मगर खुद कहीं बहर में है

ये सुनना सुनाना सुन लीजिये अच्छी बात नहीं है
सही आदमी है शहर मे है एक छोटी बात नहीं है

सारे बुद्धिजीवी हैं सुना है बुलाये गए हैं बड़ी बात है
सूची बनाई गयी है एक बुद्धिजीवियों की क्या बात है

सारे समाधान हो जाएँगे आज ही रात में कत्ल की रात है
एक ही के सर सजेगा ताज मरेगा कोई नहीं गज़ब की बात है

इस शहर में हर घर में होते हैं सुना लिखे पढ़े हर कोई बेबाक है
कुछ छांटने में लग लेते हैं कुछ सूची बनाते हैं उन्हे अंदाज है

कुछ होते हैं तेरे जैसे भी ‘उलूक’ आज से नहीं सदियों से बर्बाद हैं
करते कराते कुछ नहीं है बस हो रहे कुछ कहीं पर लिख लिखा कर आबाद हैं |

चित्र साभार: https://www.hindustantimes.com/

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

कुछ रखना कुछ बकना ना कहे कोई घड़ा चिकना हो गया


उगलते उगलते उगलना निगलना हो गया
बहकते बहकते बहकना संभलना हो गया

आज का कल में कल का परसों में बदलना हो गया
फिसलना दिन और रात का  महीना निकलना हो गया

आसमां में सुराग हाथ मे पत्थर सोच लेना बहलना हो गया
ख़यालो ही ख़यालो में कुछ थोड़ा खयाली उछलना हो गया

कुछ  पढ़ना इधर कुछ पढ़ना उधर ऐसे ही टहलना हो गया
कहीं  देखना आईना कहीं देखना चेहरा हवा का बदलना हो गया

सफ़ेद लिखना सफ़ेद पर लिखना रोज़ का लिखना मुंह सिलना हो गया
अपनी बातें खुद से करना ‘उलूक’ जमाने से मिलना हो गया

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

31/10/2022 
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

इतना लिख कि लिख लिख कर कारवान लिख दे


चल रहने दे सब जमीन की बातें
कभी तो कोशिश कर थोड़ा सा आसमान लिख दे
लिखते लिखते घिस चुकी सोच
छोड़ एक दिन बिना सोचे पूरा एक बागवान लिख दे

ला लिखेगा जमा किया महीने भर का
जैसे एक दिन में कोई पूरा कूड़ेदान लिख दे
किसलिये करनी है इतनी मेहनत 
कौन कहता है तुझसे चल एक बियाबान लिख दे

सबको लिखना है सबको आता है लिखना 
तू अपना लिख पूरा इमतिहान लिख दे
किसने बूझना है लिखे को किसे समझना है 
आधा लिख चाहे पूरा दीवान लिख दे

होता रहा है होता रहेगा आना जाना यहां भी वहां भी 
रास्ते रास्ते निशान लिख दे
तू ना सही कोई और शायद कर ले कोशिश लौटने की फिर यहीं 
खाली उनवान लिख दे

आदत है तो है मगर ठीक नही है लिखना इस तरह से खीच कर 
पूरी लम्बी एक जुबान लिख दे
निकले कुछ तो मतलब कभी लिखे का तेरे ‘उलूक’ 
मत लिखा कर इस तरह कि दुकान लिख दे

चित्र साभार: https://www.indiamart.com/

बुधवार, 31 अगस्त 2022

साथ में लेकर चलें एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

 


खुद नहीं कर सकते अगर साथ में लेकर चलें
एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

जो चिल्ला सके सामने खड़े उस आदमी पर

जिसको नंगा घोषित
कर ले जाने के सारे पैंतरे उलझ चुके हों
ताश के बावन पत्तों के बीच कहीं किसी जोकर से

बस शराफत चेहरे की पॉलिश कर लेना बहुत जरूरी है ध्यान में रखना

सारे शराफत चमकाए हुऐ
एक साथ एक जमीन पर एक ही समय में

साथ में नजर नहीं आने चाहिये लेकिन 
बिजूका के अगल बगल आगे और पीछे 
हो सके तो ऊपर और नीचे भी

सारी मछलियों की आखें 
तीर पर चिपकी हुई होनी चाहिये
और अर्जुन झुकाए खड़ा हुआ होना जरूरी है अपना सिर
सड़क पर पीटता हुआ अपनी ही छाती

गीता और गीता में चिपके हुऐ
कृष्ण के उपदेशों को
फूल पत्ते और अगरबत्ती के धुऐं की निछावर कर
दिन की शुरुआत करने वाले
सभी बिजूकों का
जिंदा रहना भी उतना ही जरूरी है

जितना
रोज का रोज सुबह शुरु होकर शाम तक
मरते चले जाने वाले शरीफों की दुकान के
शटर और तालों की धूप बत्ती कर
खबर को अखबार के पहले पन्ने में दफनाने वाले खबरची की
मसालेदार हरा धनिया छिड़की हुई खबर का

सठियाये झल्लाये खुद से खार खाये ‘उलूक’ की बकवास
बहुत दिनों तक कब्र में सो नहीं पाती है
निकल ही आती है महीने एक में कभी किसी दिन

केवल इतना बताने को कि जिंदा रहना जरूरी है
सारी सड़ांधों का भी
खुश्बुओं के सपने बेचने वालों के लिये।


आज : दिनाँक 31/08/2022  7:36 सायं तक
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शनिवार, 16 जुलाई 2022

पर्व “हरेला” की बधाई और शुभकामनाओं के बहाने दो बात हरी हरी

 

एक लम्बे समय तक 
यूँ ही खुद ब खुद स्याही उगलती लेखनी
धीरे धीरे शाँत हो चली

कल ही किसी ने पूछ लिया लिख नहीं रहे हो आजकल
क्या बताता लिखा तो कभी भी नहीं था
बस उगल दिया करता था
वो सब जो पचता नहीं था और उसके लिये सोचना नहीं पड़ता था

समय ने जो रफ्तार पकड़ी
दिखाई देना सुनाई देना जैसा सब आदत में शामिल होने लगा
और
जरूरतेँ बदल गयी कलम की भी
बस कुछ हवा हवा और फुस्स फुस्स

भ्रमित होना कोई गुनाह नहीं है होते चले गये
आईने बने पानी में बहते रहे बदलते चले गये

दिख रहा सच नहीं है
भीड़ ने एक नहीं कई बार चेताया बताया

देखो हमारी नजरों से
सब कुछ साफ साफ देखने लगोगे
अपनी आँखों से देखने पर हमेशा धोखा होता है
और आखें भीड़ हो ली धीरे धीरे

कोई नहीं ये चलता रहेगा

सच और झूठ
परिभाषाएँ बदलते रहेंगी समय के साथ
जैसे गाँधी कभी सच था आज झूठ हो लिया है
क्योंकि सच किसी और पलड़े में लटक कर झुक लिया है

आज हरेला है हरियाली का पर्व
हर किसी को बधाई और शुभकामनाएँ हरे के लिये

इसी हरियाली पर जब टटोला खुद को
तो हरा ही गायब नजर आया
कहाँ गायब हो गया होगा
फिर लगा शायद अँधा होना जरूरी होता होगा
सावन में देखने के लिये हरा

अरे
हरा देखना कहाँ है
हरा फैलाना है हरा बोना है
हरा बतियाना है हरा टापना है हरा छापना है

एसा नहीं है कि कलम उठती नहीं है
उठती है हमेशा उठती है बस अंतर हो गया है
अब कुछ उगला नहीं करती है क्योंकि सोच कर लिखना आदत नहीं है
उगलना आदत में शुमार था

बदहजमी शायद ठीक हो गयी है भीड़ के साथ
वैसे भी हर किसी के पास वैक्सीन है अपनी अपनी।
फिर भी आशावान हैं

समय बदलेगा
कलम फिर से उगलेगी स्याही
बिना सोचे कुछ देख कुछ सुन कर।
बकवास हमेशा एक तरह से हो कोई जरूरी नहीं
आज हरी बकवास हरेला पर्व के साथ।
शुभकामनाएँ हरी हरी।

चित्र साभार: https://www.ekumaon.com/

मंगलवार, 14 जून 2022

फिर से एक आधी बकवास पूरे महीने के आधे में ही सही कुछ तो खाँस

 




शर्म एक शब्द ही तो है
मतलब उसका भी है कुछ तब भी

और आधा सच होने मे कोई शर्म नहीं होनी चाहिये
होती भी नहीं है

पूर्णता किसे मिलती है?
 हाँ फख्र दिखता है आधे सच का
जिस पर मिलती हैं शाबाशियाँ
और पीटी जाती हैं तालियाँ

पूरा सच सिक्के के एक तरफ होता भी कहां है
हेड या टैल
दोनो और आधा आधा सच
सिक्का खड़ा भी हो जाये
तब भी दिखेगा एक तरफ का आधा सच ही

और आधे सच का खिलाड़ी
सबसे गजब का खिलाड़ी जो कभी गोल नहीं करता है
क्यों की गोल होने से खेल का परिणाम सामने से होता है
और खेल विराम लेता है

पूर्णता के साथ फिलम खतम करना कोई नहीं चाहता है
आधे भरे गिलास में भरी शराब पानी का करती इंतजार
सबसे बड़ा सपना होता है एक शराबी के लिये
शराबी को नशा होता है वो भी आधा
सुबह होती है यानि कि आधा दिन
और सपना टूट जाता है

जो हम करते हैं
उसे छोड़ कर सब कह देना
लेकिन कभी पूरा नहीं बस आधा आधा छोड़ देना
क्योंकि आधा ही पूर्ण है
पूर्ण मे‌ खुल जाता पूरा झोल है

‘उलूक’ बखिया उधेड़ लेकिन पूरी नहीं
पूरी उधड़ने से खिसक सकती है ढकी हुई झूठ कि पुतली
इसलिये आधा देख आधा फेँक आधा सेक
और मौज में काट ले जिंदगी

वैसे भी कौन सा मरना भी पूरा होता है
कहते हैं फिर जनम होता है
बाकी आधे का हिसाब किताब देने के लिये।


चित्र साभार: https://clipart.me/

सोमवार, 16 मई 2022

महीने की एक बकवास की कसम को कभी दो कर के भी तोड़ दिया जाता है



सब के पास होती है
अपनी कविता
सबही कवि होते हैं
कुछ लिख लेते हैं
कुछ बस सोच लेते हैं कविता

कुछ बो देते 
हैं
कुछ इन्तजार करते 
हैं
खेत के सूख लेने का

कुछ कविता के सपने देखते हैं
कुछ बिना कविता भी कवि हो लेते हैं
कुछ महाकवि के ताज पा जाते हैं
कुछ सदी के कवि हो जाते हैं

कुछ एक दिन की एक कविता कर चुक जाते हैं
कुछ बस कविता जी लेते हैं कुछ कविता सी लेते हैं
कुछ कविता उड़ा ले जाते हैं पतँग की डोर से
कुछ कविता जिता ले जाते हैं 
कविता दौड़ में  

कुछ
अपनी कविता को
पड़ोसी की कविता से मिलाते हैं
कुछ
अपने घर की कविता बाजार में  दे आते 
हैं

बहुत हैं
कविता बेच भी लेते हैं
कुछ उधार की कविताएं यूं ही सड़‌क पर बिखेर जाते हैं

अदभुद है
कविताओंं  का सँसार
गृह भी हैं यहाँ ब्लैक हॉल यही हैं
सूरज भी यहीं है पृथ्वी भी है
एस्टरोइड भी घूमते नजर आ जाते हैं

पूरा ग्रँथ तैयार हो जायेगा
अगर कोई बैठ के कविताओं के
गिरह खोलने के लिये कहीं बैठ जायेगा

कविताओं में
चुम्बक भी होते हैं
उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव
कविताओं को खींचने और प्रतिकर्षित करने के काम आते हैं

दाऊद भी है यहां कश्मीर भी है आतंकवादी भी हैं
देशभक्ती पुलिस सेना और बंदूक भी
शब्दों के ऊपर मिलेगी 
भूनते मूँगफली और चना थोथा ही सही
बजते चलता रहता है 
साथ में थोथा घना

कविता को कतार में लगाना भी यहीं दिखाई देता है
कविता का बाजार सजाना भी यहीं दिखाई देता है

कविता एक लिखता है
कविता दूसरा पढ़‌ता है
तीसरा कविता पर मुहर लगाता है
चौथा दस्तखत कर ले जाता है
पाँचवा कविता अग्रसारित करता है
छटा कविता पर ही कविता कह जाता है

कविता की नदियाँ बहती हैं दूर नहीं जाना होता है
लिखी दिखी नहीं कविता के समुन्दर में तरतीब से रखी होती हैं

'उलूक’
कविता में बकवास और बकवास में कविता से उबर नहीं पाता है
कवि
कविता और कविता की किताबों को
उलटता पलटता बाजार में आता है
और चला जाता है
किसने कितनी कविता बेची किसने कितनी कविता खरीदी
हिसाब कहीं से भी नहीं मिल पाता है

सारे कवि लगे हुऐ दिखते 
हैं
मुफ्त की कविता खोदने में जहां
वहां उसे अपनी कविता की कब्र के लिये
दो गज जमीन ढूँढना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।

चित्र साभार: https://owlcation.com/humanities/Poems-about-Animals-Represtning-Death

शनिवार, 30 अप्रैल 2022

अल्विदा ‘ऐलैक्सा’

अल्विदा ‘ऐलैक्सा’ एक मई से अवकाश में जा रही हो आभार हौसला अफजाई के लिये एक लम्बे अर्से से आभासी दुनियाँ के आभासी पन्नों का साथ निभा रही हो
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गुरुवार, 31 मार्च 2022

फाईल होना ही बहुत है कभी खाली खोलने ही क्यों नहीं चले आते

 



बन्द दिमाग की झिर्री से दिखी थोड़ी सी रोशनी
किसलिये घबराते
महीने बन्द फाईल-ए-उलूक फिर पड़ी भी अगर खोदनी
सबको जा जा कर बताते

कतरा कतरा कतरा कतरा
बामुश्किल खींच तान कर कुछ बने चाहे बने सात चाहे बने सतरा
क्यों खिसियाते

कतर दी गयी सोच में बस डर बचा
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हर शय अब समझ लिया खतरा
एक चेहरा ओढ़ कर मुस्कुराते

कुछ परायों की दुआएं लपेटी कुछ अपनों की बद्दुआएं समेटी
अरे इस हाथ ले उस हाथ दे आते
कर्मों के हिसाब किताब किसे पता ऊपर वाला ही बनायेगा कमेटी
भाई मंदिर चले जाते घंटी बजाते

दवात स्याही कलम कागज बही खाते दिन हो गये अब
सपनों में भी नहीं आते
आभास भी आभासी हो चले कुछ लिखे का मतलब लोग
कुछ और ही लगाते

कुछ बने इसकी तरह कुछ उसकी तरह का कुछ
नहीं तो बीच का ही सही अलग सा कुछ
बता ले जाते

फिर आना अगले महीने की अंतिम तारीख को ‘उलूक’
फाईलों के दिन हैं करोड़ों एक ही से
कमाये हैं जाते

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

कई दिन के सन्नाटे के बाद किसी दिन भौंपू बजा लेने में क्या जाता है

 



कुछ बहुत अच्छा लिखने की सोच में
बस सोचता रह जाता है

कुकुरमुत्तों की भीड़ में खुल के उगना
इतना आसान नहीं हो पाता है

महीने भर का कूड़ा
कूड़ेदान में ही छोड़ना पड़ जाता है

कई कई दिनों तक मन मसोस कर
बन्द ढक्कन फिर खोला भी नहीं जाता है

दो चार गिनती के पके पकायों को पकाने का शौक
धरा का धरा रह जाता है

कूड़ेदान रखे रास्तों से निकलना कौन चाहता है
रास्ते फूलों से भरे एक नहीं बहुत होते हैं

खुश्बू लिखे से नहीं आती है अलग बात है
खुश्बू सोच लेने में कौन सा किसी की जेब से
कुछ कहीं खर्च हो जाता है

समय समय की बात होती है
कभी खुल के बरसने वाले से निचोड़ कर भी 
कुछ नहीं निकल पाता है

रोज का रोज हिसाब किताब करने वाला
जनवरी के बाद फरवरी निकलता देखता है
सामने ही मार्च के महीने को मुँह खोले हुऐ
सामने से खड़ा हुआ पाता है

कितने आशीर्वाद छिपे होते हैं
कितनी गालियाँ मुँह छुपा रही होती है
शब्दकोष में इतना कुछ है अच्छा है सारा कुछ
सब को हर समय समझ में एकदम से नहीं आ जाता है

चार लाईन लिख कर अधूरा छोड़ देना बहुत अच्छा है
समझने वाला 
पन्ने पर खाली जगह देख कर भी
समझ ले जाता है 

पता नहीं कब समझ में आयेगा उल्लू के पट्ठे ‘उलूक’ को

आदतन कुछ भी नहीं लिखे हुऐ को
खींच तान कर हमेशा
कुछ बन ही जायेगा की समझ लिये हुऐ बेशरम

कई दिनों के सन्नाटे से भी निकलते हुऐ
भौंपू बजाने से बाज नहीं आता है।

चित्र साभार: https://www.clipartmax.com/

सोमवार, 31 जनवरी 2022

"नवीन चौरे" की उस कविता को सलाम जिसे सदी की कविता कहना जरूरी हो जाता है


कुछ भी
खौलने तक
नहीं पहुँच पाता है
गरम होना
बहुत बड़ी बात है

ठंडे रहने के फायदे में 
जब
इंसान होने से बचने के रास्ते
उँगलियों में कोई गिनाता है

गिनतियाँ सिखायी जाती हैं अब भी
भीड़ गिनना गुनाह है साथ में बताया जाता है

कई सदियों में
कोई
ऐसा भी निकल कर आता है
आँखें बन्द कर आँखों देखी कविताएं बोने वालों के लिये
मुँह छुपाने का आईना हो जाता है

आश्चर्य होता है

ऐसी
अदभुद कविता
जिसमें गणित विज्ञान से लेकर
तकनीक तक का असर
शब्द दर शब्द
बुना हुआ नजर आता है

भीड़ के बीच में भीड़ हो चुकी 
आत्मा से लेकर
परमात्मा होने के अहसास से
फिर कहाँ बचा जाता है

शब्द नहीं हैं पास में 
“नवीन चौरे” की कविता के लिये

शायद
इस सदी की 
सबसे उबलती
खौलती कविता से सामना हो चुका है
नासमझ होने के बावजूद
कुछ समझ में आ गया का अहसास हो जाता है

एक बकवास से
बन्द किया गया
पिछले साल के अंतिम दिन का बहीखाता

नये साल के पहले महीने की अंतिम तारीख को
एक कटी उँगली और उस पर लगे खून के
बहाने ही सही
कुछ हिलौरे मार जाता है

‘उलूक’
स्वीकार करता है
उसके खुद के
उसी भीड़ का एक हिस्सा होने का

आँखों को बन्द कर
आँखों देखे हाल सुनाती
अंधी कविताओं के समुंदर के बीच में

सदियों में
एक तूफान उबलते अशआरों का
जब इस तरह का कोई
दिल खोल के सामने से ले आता है
सलाम "नवीन चौरे" जुबाँ से निकल ही जाता है।

साभार: यू ट्यूब 

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

खुजली कौन लिखता है सब बिजली लिखते हैं फिर भी नया साल मुबारक


खुजली
सब को होती है
लिखते
सब नहीं हैं

बिजली
सब लिखना चाहते हैं
वो भी
चार सौ चालीस वोल्ट की

झटके
सबको लगते हैं
दिखाते नहीं हैं
बस

बताते जरूर हैं
झटके
लगते हैं जोर के
सामने वाले को
कुछ भी
धीरे से कहने के बाद 

बंद होने
के कगार पर
लिखना लिखाना चला जाये
बुरी बात
नहीं होती है

कौन सा
बकवास को लिखना पढना
मान लेने वाले
विद्वानों की गिनती करनी है

एक दो
निकल भी गये तो
सिद्ध करवा दिया जा सकता है 
निरे बेवकूफ हैं

आध्यात्मिक लिखा हुआ
पढते समय
लेखक खुजलाता हुआ
सोच मे आ जाये
कौन सी बुरी बात है

होता है
होता रहेगा
जो लिखा दिखता है सामने
वो किसी एक घर पर
रोने वाले ने लिखा है

महीना डेढ़ से बंद लिखना
नहीं बता पाता है
लिखने वाला
कितना कितना खुजलाता है

अब
खुजलाना भी
बहुत बड़ा हो गया है
समझा और माना जाता है
जब लिखने वाला
लिखने ही नहीं आ पाता है

एक हाथ से लिखना
और दूसरे से
खुजला लेने की
महारत भी पायी जाती है
पर ना तो दिखाई जाती है
ना ही बताई जाती है

कोई बात नहीं
लिखना भी
जारी रहना जरूरी है
और खुजली को
खुजलाना भी जरूरी है

खुजलाइये प्रेम से
एक हाथ से
और लिखने भी आ जाइये
दूसरे हाथ से

‘उलूक’
ठीक बात नहीं है
खुजलाने के चक्कर में
लिख जाना भूल जाना

नया साल
नयी खुजलियाँ लाये
नयी विधियाँ पैदा की जायें 
 खुजली हो भी
और खुजली पर
कुछ लिख दिया जाये

खुजली जिंदाबाद
लिखना रहे आबाद

इसी तरह
फिर एक नये साल का हो
खुजलाता हुआ आगाज।

चित्र साभार: 
https://www.clipartmax.com/

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

माचिस की तीली कुछ सीली कुछ गीली रगड़ उलूक रगड़ कभी लगेगी वो आग कहीं जिसकी किसी को जरूरत होती है



बहुत जोर शोर से ही हमेशा
बकवास शुरु होती है

किसे बताया जाये क्या समझाया जाये
गीली मिट्टी में
सोच लिया जाता है दिखती नहीं है
लेकिन आग लगी होती है

दियासलाई भी कोई नई नहीं होती है
रोज के वही पिचके टूटे डब्बे होते हैं
रोज की गीली सीली तीलियाँ होती हैं

घिसना जरूरी होता है
चिनगारियाँ मीलों तक कहीं दिखाई नहीं देती हैं

मान लेना होता है गँधक है
मान लेना होता है ज्वलनशील होता है
मान लेना होता है घर्षण से आग पैदा होती है
मान लेना होता है आग सब कुछ भस्म कर देती है
और बची हुई बस कुछ होती है तो वो राख होती है

इसी तरह से रोज का रोज खिसक लेता है समय
सुबह भी होती है और फिर रात उसी तरह से होती है

कुछ हो नहीं पाता है चिढ़ का
उसे उसी तरह लगना होता है
जिस तरह से रोज ही
किसी की शक्ल सोच सोच कर लग रही होती है

खिसियानी बिल्ली के लिये
हर शख्स खम्बा होना कब शुरु हो लेता है
खुद की सोच ही को नोच लेने की सोच
रोज का रोज पैदा हो रही होती है

रोज का रोज मर रही होती है
तेरे जैसे पाले हुऐ कबूतर बस एक तू ही नहीं
पालने वाले को
हर किसी में तेरे जैसे एक कबूतर की जरूरत हो रही होती है

‘उलूक’ खुजलाना मत छोड़ा कर कविता को
इस तरह रोज का रोज
फिर रोयेगा
नहीं तो किसी एक दिन कभी आकर
कह कर
खुजली किसी और की खुजलाना किसी और का
बिल्ली किसी और की खम्बा किसी और का
तेरी और तेरे लिखने लिखाने की
किसे जरूरत हो रही होती है ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 6 नवंबर 2021

रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

 


सब कुछ समेटने के चक्कर में बहुत कुछ बिखर जाता है
जमीन पर बिखरी धूल थोड़ी सी उड़ाता है खुश हो जाता है

आईने पर चढ़ी धूल हटती है कुछ चेहरा साफ नजर आता है
खुशफहमियाँ बनी रहती हैं समय आता है और चला जाता है

दिये की लौ और पतंगे का प्रेम पराकाष्ठाओं में गिना जाता है
दीये जलते हैं पतंगा मरता है बस मातम नजर नहीं आता है

झूठ एक बड़ा सा हसीन सच में गिन लिया जाता है
लबारों की भीड़ के खिलखिलाने से भ्रम हो जाता है

पर्दे में रखकर खुराफातें अपनी एक होशियार खुद कभी आग नहीं लगवाता है
रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

कोई कुछ कर ले जाता है
कोई कुछ नहीं कर पाता है तो कुछ लिखने को चला आता है
कुछ समझ ले कुछ समझा ले खुद को ही ‘उलूक’
हर बात को किसलिये यहां रोने चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

बुधवार, 3 नवंबर 2021

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

 

मरने की बात अपनी सुनकर
बहुत डरा करता है आदमी
खुद के गुजरने की बात भूलकर भी
नहीं करा करता है आदमी

दो बाँस चार कँधे लाल सफेद कपडे‌
कहीं भी जमा नहीं करा करता है आदमी
अजीब चीजें इकट्ठा करता हुआ एक ही जीवन में
कई बार मरा करता है आदमी

देखना सुनना फिर कहना देखा सुना
अपनी फितरत से जरा करता है आदमी
कान आँख जुबाँ हर आदमी की अलग होती हैं
साबित करा करता है आदमी

रोज मरना कई बार मरना और फिर इसी मरने को अन्देखा
हमेशा करा करता है आदमी
इसके मरने को उसने देखा उसके मरने को इस ने देखा
बस खुद अपने मरने पर पर्दा करा करता है आदमी

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है
रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है
रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

किसलिये माँगते हो ‘उलूक’ से जिंदा आदमी होने का एक सबूत
इतना मरता है
मरते मरते मरा करता है
उसका मरना ही उसके जिंदा होने का है सबूत
हर समय दिया करता है आदमी
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान यूँ ही नहीं कहा गया है सरकार

 



मन होता ही है
कुछ लिखा जाये कभी
जैसा लेखक साहित्यकार बुद्धिजीवी विद्वान लिख ले जाते हैं
कतार दर कतार

नकल करने के चक्कर में लेकिन
निकल जाती है हवा कलम की
उड़ जाता है कागज
रह जाते हैं शब्दों के ऊपर चढ़े शब्द
एक के ऊपर कई कई हजार

शब्दकोष कर रहा हो जैसे उदघोष
मूँगफली बेचने वाले की आवाज की नकल
और एक के साथ ले लो
दो नहीं जितने चाहो मुफ्त में शब्द
खरीदने बेचने के लिये नहीं
बिखेरने के लिये इधर भी और उधर भी
दे रही है छूट जैसे बिजली पानी और मिट्टी के तेल के लिये
सबसे मजबूत सदी की एक सरकार

गिरगिट आते हैं याद और याद आते हैं रंग साथ में
कला और कलाकारी है वो भी तो बहुत गहरी
समझाते ही हैं प्रहरी समाज के
खबरों में चरचाओं में
जब भी होती है बहस हर बार

‘उलूक’ लगा रह घसीटने में शब्दों को अपनी सोच के तार पर बेतार
कभी तो लगेगी लाटरी तेरी भी
मान लिया जायेगा बकवास को लेखन और तुझे लेखक
मिलेंगी टिप्पणियाँ भी
लेखकों की साहित्यकारों की
बुद्धिजीवियों की भी और विद्वानो की भी हर बार।

चित्र साभार: https://learnodo-newtonic.com/

बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

कूड़ा लिख ‘उलूक’ परेशानी एक है साथ में डस्टबिन क्यों नहीं ले कर के आता है






लिखे की गिनती करने के चक्कर मे हमेशा
क्या लिखना है भूला जाता है
कूड़े के ऊपर कहीं के
कहीं और का कूड़ा आ कर बादलों सा छा जाता है


कूड़ा कोई नहीं लिखता है
ना ही किसी को कूड़ा पढ़ लेना ही आता है
कूड़ा फेकने वाला भी नहीं देखता है कभी
कूड़ा बस उठाता है और फेंक आता है


सकारात्मकता बेचने खरीदने के खेल से कमाने वालों के बटुवे में
कूड़ा कभी नहीं पाया जाता है
कूड़ा बेचने खरीदने वालों की हमेशा विजय होती है
नीरमा की सफेदी एक विज्ञापन होता है रह जाता है


कूड़े की राजनीति एक सफल राजनीति होती है बल
ऐसा कहा लेकिन कभी नहीं जाता है
कूड़ा ढक कर सफेद कपड़े से लेकिन
उजाले का आभास कराने वाले को मेडल दिया जाता है


सारे कूड़े पर बैठे हुऐ कूड़े
अपने अपने दाँत निपोर कर दिखाते हैं
कूड़ा समेटने वाला हमेशा घबराता है शर्माता है
पर्यावरण के पाठ में और उसी विषय की किताब में
कूड़ा ही होता है
जो गालियाँ कई सारी हमेशा खाता है


‘उलूक’ कूड़ा सोचा मत कर
कूड़ा किया कर फैलाया कर
समझा कर
कूड़ा नियामत है हजूर की
वो हजूर जो कूड़े की ही खाता है
लिख जितना लिख सकता है कूड़ा
सफाई लिखने वाला
सफाई लिखने वाले के यहाँ ही दिखाई देता है
और
झाड़ू साफ़ सफाई कहता हुआ भी पाया जाता है ।


चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/



रविवार, 24 अक्तूबर 2021

ग़ाँधी को लगी गोली को आज सलाम मिल रहा है

 


सब कुछ ठीक है बस कुछ बुलबुले हैं कुछ भी कहीं नहीं उबल रहा है
सूरज सुबह और चाँद शाम को ही हमेशा की तरह निकल रहा है

सब खुश हैं सब ही मौज में हैं दिल भी सुना यूँ ही बहुत बहल रहा है
चेहरों की चमक देखिये गालों का रंग भी जरा सा नहीं बदल रहा है

चारों तरफ चैन है बैचेन एक भी कहीं ढूँढे नहीं मिल रहा है
संत हो गये हैं सारे इतना संतोष है सम्भाले नहीं सम्भल रहा है

लिखा हुआ बोरों के हिसाब से गोदामों में लाईन लगा तुल रहा है
कुछ पढ़ दिया जा रहा है कुछ इंतजार में है करवट बदल रहा है

कुछ लिखने को कहीं कुछ बकने को कहीं कुछ ईनाम मिल रहा है
‘उलूक’ अच्छा है कम कर दिया बकना तूने
ग़ाँधी को लगी गोली को आज सलाम मिल रहा है ।


चित्र साभार: https://indianexpress.com/

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

हर आदमी एक गिरोह होता है उसे भी पता होता है बस कहने में कुछ शर्माता है

 

पता
कहाँ चल पाता है

कब
एक आदमी
एक गिरोह हो जाता है

लोग
पूछते फिरते हैं
पता उस एक आदमी का

वो
कहीं नहीं मिल पाता है

गिरोह होना
बुरी बात नहीं होती है

सब जानते हैं
काम गिरोह ही आता है

सरदार कौन है
इस से क्या फर्क पड़ता है

काम हो जाना
महत्वपूर्ण माना जाता है

घर से लेकर
मोहल्ले
मोहल्ले से शहर
शहर से जिले
जिले से राज्य
राज्य से
देश में पाया जाता है

छोटे से गिरोह का एक गिरोहबाज ही
देश सम्भालने की ताकत रखता है
यही सत्य होता है माना जाता है

लगता है
कि
गिरोह में नहीं शामिल है
ना ही गिरोह से कोई
कहीं ढेले भर का नाता है

सरदार को
पता होता है सबकुछ
खबर अखबार में जब वो छपवाता है
नाम
सबसे पहले दे कर आता है

उलूक
देखता रहता है गिरोह गिरोहबाज

मानकर
उसे क्या करना
वो तो बस यहां बकने आता है

फैलाते चलते हैं गिरोहबाज
खबर

उलूक के लिये भी
भ्रष्ट है पीता है
और
बहुत कुछ खाता है

चित्र साभार: https://www.subpng.com/

शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

कई दिन हो गये बके कुछ आज कर ही लेते हैं तिया पाँचा इस से पहले कोशिश करे पन्ना आज का भी कुछ खिसक जाने की


काले श्यामपट पर
सफेद चौक से लकीरें खींच कर

कोशिश कर लेना
खुद पढ़ लेने की तैयारी 

जैसे
किसी को भी कुछ भी
पढ़ा ले जाने की


रेत पर बना कर
यूँ ही कुछ आढ़ा तिरछा
सोच कर बन गया लो ताजमहल

खुश हो लेना
कौन देख रहा है
नूरजहाँ और शाहजहाँ की बात

वो भी
पुराने किसी फसाने की


इतिहास और भूगोल

तराजू हैं ना
दशमलव के पाँच छ: सात या
और भी स्थान तक
तौल सकने वाले

एक पन्ना इस किताब का 
उधर कर लेना

खेलना
खेल से ही नहीं होता
बाजीगरी सीख
कुछ तो कभी इस जमाने की

हवा के साथ
फोटो खींच रहे होते हैं कुछ जवान
जोशे जवानी के साथ

हवा हवा हो गयी 
कब कहाँ पता चलता है
सब भरम होता है

बातें बहुत करते हैं लोग बेबात में
बात ही बात में
कोशिश कर के बात को भरमाने की

कुछ नहीं लिखने का गम ठीक है
कुछ भी नहीं लिखने से

कोशिश करते करते 
जमाना गुजर जाता है

कुछ नहीं से कुछ हो लेने के ख्वाब
सबसे अच्छे होते हैं
हवाई जहाज सोच कर
मक्खियाँ और मच्छर उड़ाने की

‘उलूक’
कलाबाजी बाजीगरी
पता नहीं 
और भी बहुत कुछ है जरूरी
आज के जमाने में

शऊर
जिसे मानता है हर दूसरा
काम नही आनी है शराफत
तेरे जैसे खामख्याली दीवाने की


चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

रविवार, 26 सितंबर 2021

ताजा खबर है आई है अभी

 


घूल हटे आँखों से
और कागज से भी
कोई कोशिश तो करे पलटने की
पन्ने को
यूँ ही कभी

कोहरा धूल नहीं होता है
पता होता है
जम भी जाता है चश्मा चश्मा
काँच एक से होते हैं सभी

उनको पता होता है
कोई रोज पढ़ लेता है उन्हें आकर
लिख कर नहीं जाता है
कुछ भी कभी

 वो कभी नहीं जाते हैं
कुछ भी पढ़ने किसी गली मोहल्ले
इश्तिहार दीवार में लगे
कभी या अभी

कई दिन तक कुछ लिखो या ना लिखो
कुछ फर्क नहीं पड़ता है
पूछ लो लिखने वालों से कभी

आज लिख के रख जाओ धूप में
कुछ सूखने के लिये
बारिश आयेगी हटा लेना
उस समय तभी

 लिखना एक रस्म है पढ़ना दूसरी
किस लिये लिखना पढ‌ना एक साथ
अच्छा है समझ लें सभी

उलूक
फिर कुछ
लिखने आ गया आज
कुछ नहीं जैसा आदतन
बदलेगा भी नहीं कुछ कभी

बहुत कुछ पर
लिखने वाले सुना है
पूछे जा रहे हैं आजकल हर जगह
ताजा खबर आई है अभी 

चित्र साभार:
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