उलूक टाइम्स

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

राम का भरोसा रख बहुत कुछ होने वाला है

सुनाई
दे रहा है
बहुत बड़ा
परिवर्तन
जल्दी ही
होने वाला है

चुनाव
की जगह
सरकार के
नुमाइंदो
और
अध्यक्षों के
पदों के लिये
समाचार पत्रों
में विज्ञापन
आने वाला है

ना भी
हो रहा हो
ऐसा मान लिया
सोचने में
ऐसी बात को
किसी का क्या
जाने वाला है

इस सब
के लिये
सबसे पहले
कुछ बीच के
लोगों का
चुनाव किया
जाने वाला है

उसके लिये
सबसे पहले
देख लिया
जाने वाला है
कि कौन है
ऐसा जो
इधर भी
और
उधर भी
आने जाने
वाला है

पूजा पाठ
मंदिर
आने जाने से
कुछ नहीं
कहीं होने
वाला है

अगर डंडे
पर लगे हुऐ
झंडे को
अपने घर
और
अपने सर
पर नहीं
लगाने वाला है

मंदिर की
घंटियों को
बेचने वाले को
पुजारी
छांटने के लिये
बुलाया
जाने वाला है

जमाना
बदल रहा है
बहुत तेजी से
देखता रह

कपड़े पहने
हुऐ दिखेगा
जो भी शहर
की गलियों में
अंदर कर दिया
जाने वाला है

समय की
बलिहारी है
छुप छुपा
के हो रहा है
जो भी जहां भी
खुले आम होते हुऐ
जल्दी ही दिखाई
देने वाला है ।

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

लो मित्र तुम्हारे प्रश्न का उत्तर हम यूं लेकर आते हैं


सुनो मित्र 
तुम्हारे सुबह किये गये
प्रश्न का
उत्तर देने जा रहा हूँ

पूछ रहे थे तुम
कौन सी कहानी ले कर
आज शाम को आ रहा हूँ

कहानी और कविता 
लेखक और कवि लिखा करते हैं जनाब

मैं तो
बस रोज की तरह
वही कुछ बताने जा रहा हूँ
जो देख सुन कर आ रहा हूँ

कहानियाँ बनाने वाले
कहानियाँ रोज ही बनाते हैं
उनका काम ही होता है
कहानियां बनाना
वो कहानियां बना कर
इधर उधर फैलाते हैं

कुछ फालतू लोग
जो उन कहानियों को समझ नहीं पाते हैं
उठा के यहां ले आते हैं

कहानियाँ
बनाने वाले को चलानी होती है
कोई ना कोई कार या सरकार
कहीं ना कहीं

उनके पास होते हैं
अपने काम को छोड़ कर
काम कई
वो काम करते हैं
बकवास करने से हमेशा कतराते हैं

सारे के सारे कर्मयोगी
इसीलिये
हमेशा एक साथ
एक जगह पर नजर आते हैं

कहानियाँ बनाने वाले
जन्म देते हैं
एक ही नहीं कई कहानियों को

त्याग देखिये उनका
कभी किसी कहानी को
खुद पढ़ने के लिये कहीं नहीं जाते हैं

काम के ना काज के दुश्मन अनाज के
कुछ लोग कहानियाँ 
बताने वाले बन जाते हैं

पूरा देश ही चल रहा है
कहानी बनाने वालों से

आप और हम तो बस
एक कहानी को पीटने के लिये
रोज यहां चले आते हैं । 

चित्र सभार: https://www.dreamstime.com/

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

तू आये निकले दिवाला वो आये होये दिवाली

एक तू है

कभी कहीं
जाता है

किसी को
कुछ भी
पता नहीं
चल पाता है

क्यों आता है
क्यों चला जाता है

ना कोई
आवाज आती है
ना कोई
बाजा बजाता है

क्या फर्क पड़ता है
अगर तुझे कुछ या
बहुत कुछ आता है

पढ़ाई लिखाई की
बात करने वाले
के पास पैसे का
टोटा हो जाता है

चंदे की
बात करता है
जगह जगह
गाली खाता है

नेता से सीखने में
काहे शरमाता है
कुछ ना भी बताये
किसी को कभी भी
अखबार में आ जाता है

शहर में लम्बी चौड़ी
गाड़ियों का मेला
लग जाता है

ट्रेफिक का सिपाही
कुछ कहना छोड़ कर
बस अपना सिर
खुजलाता है

चुनाव की बात
करने के लिये
किसी भी गरीब
को कष्ट नहीं
दिया जाता है

राजनैतिक
सम्मेलनों से
साफ नजर आता है

देश में गरीबों का
बहुत खयाल
रखा जाता है

दूर ही से नहीं
बहुत दूर से भी
सिखा दिया जाता है

क्यों परेशान होता है
काहे चुनावों में खड़ा
होना चाहता है

सूचना या समझने के
आधिकार से किसी भी
गरीब का नहीं
कोई नाता है

वोट देने का अधिकार
दिया तो है तुझे
खुश रह मौज कर

अगले साल
आने के लिये
अभी से बता
दिया जाता है

हम पे नजर
रखना छोड़
आधार कार्ड
बनाने के लिये
भीड़ में घुसने
का जुगाड़
क्यों नहीं
लगाता है

समझा कर
गरीबी की
रेखा का सम्मान
इस देश में हमेशा
ही किया जाता है

सेहत के लिये जो
अच्छा नहीं होता
ऐसा कोई भी ठेका
उनको नहीं
दिया जाता है ।

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

मान लीजिये नया है दुबारा नहीं चिपकाया है

हर दिन का
लिखा हुआ
कुछ अलग
हो जाता है
दिन के ही
दूसरे पहर
में लिखे हुऐ
का तक मतलब
बदल जाता है
सुबह की कलम
जहां उठाती सी
लगती है सोच को
शाम होते होते
जैसे कलम के
साथ कागज
भी सो जाता है
लिखने पढ़ने और
बोलने चालने को
हर कोई एक सुंदर
चुनरी ओढ़ाता है
अंदर घुमड़
रहे होते हैं
घनघोर बादल
बाहर सूखा पड़ता
हुआ दिखाता है
झूठ के साथ
जीने की इतनी
आदत हो जाती है
सच की बात
करते ही खुद
सच ही
बिफर जाता है
कैसे कह देता है
कोई ऐसे में
बेबाक अपने आप
आज की लिखी
एक नई चिट्ठी
का मौजू उतारा
हुआ कहीं से
नजर आता है
जीवन के शीशे
में जब साफ
नजर आता है
एक पहर से
दूसरे पहर
तक पहुंचने
से पहले ही
आदमी का
आदमी ही
जब एक
आदमी तक
नहीं रह पाता है
हो सकता है
मान भी लिया
वही लिखा
गया हो दुबारा
लेकिन बदलते
मौसम के साथ
पढ़ने वाले के लिये
मतलब भी तो
बदल जाता है ।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

कहानी की भी होती है किस्मत ऐसा भी देखा जाता है

कहानियाँ
बनती हैं
एक नहीं बहुत

हर जगह पर
अलग अलग

पर
हर कहानी
एक जगह नहीं
बना पाती है

कुछ
छपती हैं
कुछ
पढ़ी जाती हैं

अपनी अपनी
किस्मत होती है
हर कहानी की

उस
किस्मत के
हिसाब से ही
एक लेखक
और
एक लेखनी
पा जाती हैं

एक
बुरी कहानी
को एक अच्छी
लेखनी ही
मशहूर बनाती है

एक
अच्छी कहानी
का बैंड भी एक
लेखनी ही बजाती है

पाठक
अपनी
सोच के
अनुसार ही
कहानी का
चुनाव कर पाता है

इस मामले में
बहुत मुश्किल
से ही अपनी
सोच में कोई
लोच ला पाता है

मीठे का शौकीन मीठी
खट्टे का दीवाना खट्टी
कहानी ही लेना चाहता है

अब कूड़ा
बीनने वाला भी
अपने हिसाब से ही
कूड़े की तरफ ही
अपना झुकाव
दिखाता है

पहलू होते हैं ये भी
सब जीवन के ही

फ्रेम देख कर
पर्दे के अंदर रखे
चित्र का आभास
हो जाता है

इसी सब में
बहुत सी
अनकही
कहानियों की
तरफ किसी का
ध्यान नहीं जाता है

क्या किया जाये
ये भी होता है
और
बहुत होता है

एक
सर्वगुण
संपन्न भी
जिंदगी भर
कुँवारा
रह जाता है ।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'मोतिया' कहीं लिखता नहीं पर मेरा जैसा कैसे हो जाता है


बहुत सालों से 
सड़क पर
कहीं ना कहीं रोज टकराता है

एक आदमी
जैसा था तीस साल पहले
अभी भी वैसा ही नजर आता है

बस थोड़ा सा पके हुऐ बाल
अस्त व्यस्त कपड़े

चाल में थोड़ा सा
सुस्ती सी दिखाई देती है

लेकिन
सोचने का ढंग वही पुराना
अब तक वैसा ही नजर आता है

उसी मुद्रा में
आज भी
अखबारों की कतरनों को
बगल में दबाता है

अभी भी
जरूरत होती है उसे
बस एक रुपिये के सिक्के की

जिसका आकार अब
अठन्नी से चवन्नी का होने को आता है

वो आज भी
किसी से कुछ नहीं कहने को जाता है

अपनी ही धुन में रहता है

कहीं कुछ नहीं बोलते हुऐ भी 
बहुत कुछ यूं ही कह जाता है

सामने से उसके आने वाला
समझ जाता है

समझ गया है
बस ये ही नहीं कभी बताता है

उसके हाव भाव इशारों से
आज भी ऐसा महसूस
कुछ हो जाता है

जैसे
रोज का रोज कुछ ना कुछ
दीवार पर लिखने 
कोई यहां बेकार में चला आता है

बहुत से लोगों का उसको जानने से 
कुछ भी नहीं हो जाता है

एक शख्स मेरे शहर की
एक ऐसी ही पहचान हो जाता है

जिस के सामने से
हर कोई उसी तरह से निकल जाता है

जिस तरह से
यहां की भीड़ में कभी कभी
अपने आप को ही ढूंंढ ले जाना
एक टेढ़ी खीर हो जाता है ।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

जरूरी नहीं सब सबकुछ समझ ले जायें


विचारधाराऐं 
नदी के दो किनारों की धाराऐं 

किसी एक को अपनायें 

सोचें कुछ नहीं
बस आत्मसात करें और फैलायें 
लोगों को अनुयायी बनायें 

सबको बतायें 
किनारे कभी मिलते नहीं 
किनारे किनारे तैरें तो कभी डूबते नहीं 
संभव नहीं 
इस किनारे वाले उस किनारे पर चले जायें 

अवसर होती हैं 
नदी के बीच बह रही धाराऐं 
जब भी कभी नजर आयें किसी को ना बतायें 
खुद डुबकी लगायें 

बस ध्यान रहे इतना 
किसी भी अनुयायी को इसकी भनक ना हो पाये 
संगम होता दिखे किनारे किनारे चलते चलते
कभी दो नदियों का रुक जायें मनन करें 
खोज करने से पहले परहेज करना होता है
बेहतर के फलसफे को अपनायें 

इससे पहले अनुयायिओं को दिखे 
दो किनारों का जुड़ना 
और 
विचारधाराओं का मिलना 
सबका ध्यान बटायें 

एक महाकुंभ करवाने का जुगाड़ लगवायें 
अवसरों के संगम को जाने ना दें भुनायें 
खुद किनारे को छोड़ कर 
संगम करती नदियों के बीच में 
डुबकियां लगायें 

विचारधारायें 
नदी के दो किनारों की धारायें 
संभव नहीं होता है मिलन जिनका कभी 
अनुयायियों को समझाते 
यही बस चले जायें 

आ ही गया किसी के समझ में थोड़ा बहुत 
कभी ना घबरायें 
किनारे पर ना रहने दें 
अपने साथ डुबकी लगाने नदी के बीच 
उसे भी लेते चले जायें ।

चित्र साभार: 
https://mark-borg.github.io/blog/2016/river-crossing-puzzles/

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

हैप्पी बर्थ डे गांधी जी हैप्पी बर्थ डे शास्त्री जी खुश रहिये जी !

कुछ किताबें पुरानी
अपने खुद के वजूद
के लिये संघर्षरत
पुस्तकालय में
कुछ पुराने चित्र
सरकारी संग्रहालय में
कुछ मूर्तियां खड़ी
कुछ बैठी कुछ खंडित
कुछ उदघाटन के
इंतजार में
गोदामों में पड़ी
कुछ पार्क कुछ मैदान
कुछ सड़कों कुछ गलियों
कुछ सरकारी संस्थानो
के रखे गये नाम
बापू और लाल बहादुर
के जन्मदिन दो अक्टूबर
की पहचान राष्ट्रीय अवकाश
काम का आराम
सत्य अहिंसा सादगी
बेरोजगार बेकाम
कताई बुनाई देशी श्रम
दाम में छूट कुछ दिन
खादी का फैशन
एक दुकान गांधी आश्रम
सफेद कुर्ते पायजामे
लूट झूठ की फोटोकापी
भ्रष्टाचार व्यभिचार को
ऊपर से ढकती हुई
सर पर गांधी टोपी
एक नया शब्द
एक नयी खोज
मुन्नाभाई शरीफ
की गांधीगिरी
गांधी की दादागिरी
सत्य अहिंसा और
धर्म की फाईलें
न्यायालय में लम्बित
सब कुछ सबके
व्यव्हार में साफ
साफ प्रतिबिम्बित
एक फूटा हुआ बरतन
लाभ का नहीं
मतलब का नहीं
आज के समय में
नई पीढ़ी को कहां
फुरसत ऐसी वैसी
बातों के लिये
जिसमें नहीं हो
कोई आकर्षण
वैसे भी होता होगा
कभी कहीं गांधी
और गांधी दर्शन ।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

बुजुर्गों के लिये दिन चलो एक दिन ही सही !

फिर याद आया
बनाया हुआ
आदमी के खुद
का एक दिन
खुद के लिये ही
जब शुरु होता है
उसका भूलना
सब कुछ
यहाँ तक
खुद को भी
उम्र का
चौथा पड़ाव
और उसके
अनुभव
कुछ के
लिये कड़वे
कुछ के लिये
खट्टे और मीठे
बचपन से ही
शुरु हो जाती है
एक पाठशाला
घर के अंदर ही
तैयार करते हुऐ
दिखाई दे जाते हैं
कई किसान
कई तरह के
खेतों को
बोते हुऐ
किस्म किस्म
के पौंधे
पता नहीं
चल पाता है
कौन आम का है
कौन बबूल का
और जब तक
इस सब को
समझने लायक
होने लगता है
एक आदमी
उसके सामने
भी होते हैं
कई तरह खेत
बुवाई के
लिये तैयार
उसकी खुद की
अगली पीढ़ी के
उसको दिये
अनुभव यहीं
पर काम आना
शुरु हो जाते हैं
किसी को फल वाले
पेड़ पसंद आते हैं
किसी की सोच में
कांटे उलझना
शुरु हो जाते हैं
घर से लेकर
ओल्ड ऐज होम्स
तक एक मोमबत्ती
दिखाने को ही सही
प्यार से फिर भी
आज के दिन अब
सब जलाना चाहते हैं
खुशकिस्मत होते हैं
कुछ लोग जो
चौथी पीड़ी के साथ
एक लम्बे समय
तक रह पाते हैं
भाग्यहीन लोग
खुद ही अपने लिये
एक ऐसे रास्ते
को बनाते हैं
जिस रास्ते
चौथी पीढ़ी को
छोड़ कर आते हैं
उसी रास्ते से
जाने को मजबूर
किये जाते हैं
एक परंपरा को
भूल कर हमेशा
हम क्यों साल
का एक दिन
उसके लिये
निर्धारित
करना
चाहते हैं
अंतर्राष्ट्रीय
बुजुर्ग दिवस
पर आज बस
इतना ही तो
समझना
चाहते हैं ।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

चारे ने पहुंचा दिया एक बेचारे को जेल समझ में नहीं आता है !

सच में कभी कभी
अपनी होशियारी
का हमको भी पता
नहीं हो पाता है
एक बड़ी लूट को
जब अदालत में
मान लिया जाता है
तब छोटी छोटी
पाकेट मारी का
धंधा ही सबसे अच्छा
धंधा सिद्ध हो जाता है
ना सी बी आई को
पता चल पाता है
ना ही कोई अदालत
में ले जाकर सजा
का फैसला सुनाता है
छोटी छोटी बचत से
भी एक बड़ा घड़ा
भरा जाता है
फिर एक ही बार में
कोई एक बड़ा हाथ
मारने की गलती
क्यों कर जाता है
तभी तो कहा जाता है
क्यों बिना पढ़े लिखे
कोई नेतागिरी करने
चले जाता है
अपने को तो संभाल
नहीं पाता है
इतने बड़े देश को
चलाने के ख्वाब फिर
क्यों पालना चाहता है
बहुत कुछ है खाने के लिये
पर क्या किया जाये
अगर कोई घास खा कर
जेल जाना चाहता है
एक बेचारा चारे का
मारा हो जाता है
मुख्यमंत्री हो जाने से भी
कुछ नहीं हो पाता है
अपने साथ चार दर्जन
और लोगों का बंटाधार
भी करवाता है !
जो नहीं जा पाया है
किसी भी कारण से
जेल अभी भी
भविष्य के लिये ऐसी
घटनाओं को नजीर
क्यों नहीं बनाता है
अधिक से अधिक
पढ़ा लिखा होकर
छोटा मोटा रोज का
रोज खाने की आदत
क्यों नहीं बनाता है
तीस चालीस साल
की नौकरी में वो भी
जुड़ जुड़ा कर एक
करोड़ तो हो
ही जाता है
पर ऐसा दिमाग
लगाना भी सबको
कहां आ पाता है
इसीलिये कितना बड़ा
भी हो जाये नेता
कभी एक बुद्धिजीवी
नहीं कहलाता है ।

रविवार, 29 सितंबर 2013

मुड़ मुड़ के देखना एक उम्र तक बुरा नहीं समझा जाता है

समय के साथ बहुत सी
आदतें आदमी की
बदलती चली जाती हैं
सड़क पर चलते चलते
किसी जमाने में
गर्दन पीछे को
बहुत बार अपने आप
मुड़ जाती है
कभी कभी दोपहिये पर
बैठे हुऐ के साथ
दुर्घटनाऐं तक ऐसे
में हो जाती हैं
जब तक अकेले होता है
पीछे मुड़ने में जरा सा
भी नहीं हिचकिचाता है
उम्र बढ़ने के साथ
पीछे मुड़ना कम
जरूर हो जाता है
सामने से आ रहे
जोड़े में से बस
एक को ही
देखा जाता है
आदमी आदमी को
नहीं देखता है
महिला को भी
आदमी नजर
नहीं आता है
अब आँखें होती हैं
तो कुछ ना कुछ
तो देखा ही जाता है
चेहरे चेहरे पर
अलग अलग भाव
नजर आता है
कोई मुस्कुराता है
कोई उदास हो जाता है
पर कौन क्या देख रहा है
किसी को कभी भी
कुछ नहीं बताता है
सब से समझदार
जो होता है वो
दिन हो या शाम
एक काला चश्मा
जरूर लगाता है ।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

कल तक चाँद हो रहा था रात ही रात में दाग हो गया

सुबह के
अखबार से
सबको पता
हो गया
बच्चा बापू
से बहुत
नाराज हो गया
उसके जवान
हो जाने का
जैसे कहीं कोई
ऐलान हो गया
घर के अंदर
लग रहा था
कल ही कल
में कोई
संग्राम हो गया
अंदर ही अंदर
पक रहा हलुवा
पता नहीं कैसे
आम हो गया
चाँद के सुंदर
होने की बात
पीछे हो गई
दाग होने से
ही वो आज
बेकाम हो गया
माँ की
अंगुली छोड़
अचानक
बेटा खड़ा
हो कर
आम हो गया
विदेश गये
बापू जी
का वहाँ रहना
हराम हो गया
एक बड़ा
दाग होना
होने जा रहा था
सोने में सुहागा
अचानक कोड़ में
खाज हो गया
कुछ खास बड़ा
नहीं बस एक
छोटा सा
अध्यादेश
मुंह में शहद
हो रहा था
गले तक पहुंचते
पहुंचते मुर्गे की
हड्डी हो गया
सच्ची मुच्ची में
लगने लगा है
किसी को कुछ
कुछ हो गया
क्या था कल तक
घर का ही आदमी
घर ही घर में
क्या से क्या
आज हो गया
बेवफा तू ऐसे में
पूरी पूरी रात
चैन की नींद
कैसे सो गया ।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

जो भूत से डरता है पक्का श्राद्ध करता है


सोलह दिन 
के
पित्र पक्ष 
के शुरु होते ही 
पंडित जी बहुत ही व्यस्त हो जाते हैं 

श्राद्ध सामग्री 
के लिये एक लम्बी सूची भी प्रिंट कराते हैं 

दूध दही घीं शहद 
काजू किशमिश 
बादाम फल मिठाई कपड़े लत्ते 
अच्छी क्वालिटी और अच्छी दुकान से 
लाने का आदेश साथ में दे जाते हैं 

खुद ही खा कर 
पितर लोगों तक खाना पहुंचाते हैं
इसलिये भोजन छप्पन प्रकार का 
होना ही चाहिये समझा जाते हैं 

सुबह सात बजे का 
समय देकर दिन में 
दो बजे से पहले कभी नहीं आ पाते हैं 
देरी का कारण पूछने पर
बताने में भी नहीं हिचकिचाते हैं

लोग बाग जीते जी 
अपने मां बाप के लिये 
कुछ नहीं कर पाते हैं 
इसलिये मरने के बाद उनकी इच्छाओं को पूरा 
जरूर करना चाहते हैं 

अपनी इच्छाओं को 
इसके लिये मारना भी पड़े 
तब भी नहीं हिचकिचाते हैं 
मृतात्मा के जीवन काल के शौक को
पंडित से पूरा कराते हैं 

जजमान
आप इतना भी 
नहीं समझ पाते हैं 

मरने के बाद
मरने वाले 
क्योंकि भूत बन जाते हैं 

उसके डर से
अपने को 
निकालने के लिये लोग 
कुछ भी कर जाते हैं 

कुछ दिन
हमारी भी 
चल निकलती है गाड़ी 
ऐसे लोग वैसे तो कभी हाथ नहीं आते हैं 

कुछ जजमान
पीने के 
शौक रखने वाले 
पितर के नाम से पंडित जी को अंग्रेजी ला कर दे जाते हैं 

उनके यहां
पहले जाना 
बहुत जरूरी होता है इन दिनो 
इसलिये
आपके यहां 
थोड़ा देर से आते हैं । 

चित्र साभार: https://marathi.webdunia.com/

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

याद नहीं रहा आज से पहले खतड़ुवा कब था हुआ

बरसात जब
कुछ कम हो गई
घर की सफाई
कुछ शुरु हो गई
काम पर लगे नंदू
से पूछ बैठा यूं ही
ठंड भी शुरु
हो गई ना
हां होनी ही है
खतड़ुवा भी हो गया
उसका ये बताना
जैसे मुझे धीरे से
छोटा करते हुऐ
कहीं बहुत
पीछे पहुंचाना
याद आने लगा मुझे
पशु प्रेमी ग्वालों
का पारंपरिक पर्व
का हर वर्ष अश्विन
माह की संक्रांती
को मनाना और
याद आया
भूलते चले जाना
घास का एक
त्योहार पशुधन
की कुशलता और
गौशालाऐं गाय से
भरी रहने की कामना
गाय के मालिकों की
वंशवृद्धि होती रहे
गाय का सम्मान भी
करती रहे की भावना
त्योहार मनाना
ना होता हो जैसे
कोई खेल होता हो
भांग के पौंधे के एक
सूखे से डंडे को
सुबह से घास फूल
पत्तियों से सजाना
गाय के जाने के
रास्ते के चौराहे पर
घास के चार हाथ पैर
बनाकर फुलौरी
एक बनाना
शाम ढले सपरिवार
उस आकृति
को आग लगाना
सुबह बनायी गई
सजायी गई
लकड़ी से आग को
पीटते चले जाना
'भैल्लो जी भैल्लो
भैल्लो खतड़ुवा
भाग खतड़ुवा भाग'
साथ साथ चिल्लाते
भी चले जाना
जली आग का एक
हिस्सा ले जा कर
गाय के गौठ और
घर पर ला
कर घुमाना
पीली ककड़ी
काट कर बांटना
और मिलकर खाना
फिर याद आया
खो जाना शहर के
पेड़ और घास
घर से गायों
का रंभाना
गायों का
कारें हो जाना
दूध का
यूरिया हो जाना
हर हाथ का
कान से जा कर
चिपक जाना
सड़क पर
चलते चलते
बोलते चले जाना
पड़ोसी की
मौत की खबर
अखबार से
पता चल पाना
ऐसे में बहुत
 बड़ी बात है
खतड़ुऐ की याद
भर आ जाना ।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अपने कैलेंडर में देख अपनी तारीख उसके कैलेंडर में कुछ नया नहीं होने वाला है

रोज एक कैलेंडर
नई तारीख का
ला कर यहां लटका
देने से क्या कुछ
नया होने वाला है
सब अपने अपने
कैलेंडर और तारीख
लेकर अपने साथ
चलने लगे हैं आजकल
उस जगह पर तेरे
कैलेंडर को कौन देखेने
आने वाला है
अब तू कहेगा तुझे
एक आदत हो गई है
अच्छी हो या खराब
किसी को इससे
कौन सा फर्क जो
पड़ने वाला है
परेशानी इस बात
की भी नहीं है
कहीं कोई कह रहा हो
दीवार पर नये साल पर
नया रंग होने वाला है
जगह खाली पड़ी है
और बहुत पड़ी है
इधर से लेकर उधर तक
जहां जो मन करे जब करे
लटकाता कोई दूर तक
अगर चले भी जाने वाला है
सबके पास हैं बहुत हैं
हर कोई कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं पर
ला ला कर
लटकाने वाला है
फुरसत नहीं है किसी को
जब जरा सा भी कहीं
देखने कोई किसी और का
कैलेंडर फिर क्यों कहीं
को जाने वाला है
अपनी तारीख भी तो
उसी दिन की होती है
जिस दिन का वो एक
कैलेंडर ला कर यहां
लटकाने वाला है
मुझे है मतलब पर
बस उसी से है जो
मेरे कैलेंडर की तारीख
देख कर अपना दिन
शुरु करने वाला है |

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

मर गयी बीमार नहीं थी बहुत खुश हो गयी थी

एक लड़की
हमेशा बहुत
खुश दिखती थी

शादी के सोलह
साल बाद
उम्मीद होने
से उसकी
खुशी दुगुनी
हो गयी थी

इंतजार की
घड़ियां कुछ
लम्बी जरूर
हो गयी थी

मगर होते
होते बहुत
छोटी हो
गयी थी

दो दिन
पहले
ही उससे
राह चलते
मुलाकात
भी हो
गई थी

कल हुई
थी सर्जरी
जो आजकल
के जमाने में
आम बात
हो गयी थी

बेटा हुआ
था और
खुशी की
बरसात
हो गयी थी

बस एक दिन
के बाद की
खबर आम
हो गई थी

खुशी खुशी
वो इस दुनिया
से ही विदा
हो गई थी

 डाक्टर ने
बताया
इतना खुश
हो गई थी
कि हमेशा
के लिये ही
सो गई थी

पहली बार
ही ऐसी बात
कुछ सुनी थी

मेरे लिये नयी
बस नयी सी थी
बीमारी से नहीं
खुशी से
हो गई थी

एक खुश
मिजाज लड़की
इतना खुश
हो गयी थी

मौत के साथ
खुशी खुशी
विदा हो गयी थी ।

सोमवार, 23 सितंबर 2013

एक सही एक करोड़ गलत पर भारी होता है

ऐसा
एक नहीं
कई बार
होता है

जब
ऊपर
वाले का
अपना कोई

नीचे
आकर के
जन्म लेता है

हर कोई
उसे उसका
एक अवतार
कहता है

सुना गया है

बैकुंठ में
वैसे तो
सब कुछ
होता है
और
अलौकिक
होता है

फिर
इस लोक में
क्यों कोई
आने को

इतना
आतुर होता है

ये
उसकी
समझ में
आने से
बहुत
दूर होता है

जो
खुद के
यहां होने से

बहुत
दुखी होता है

जब देखो
बैकुंठ
जाने के लिये
रोता रहता है

पर
जो जो
यहां होता है

वो
बैकुंठ में
कभी नहीं
होता है

लूटमार
भ्रष्टाचार
सड़क का
ब्लात्कार

बीस गोपियां
बीबी चार
मैं और मेरे
को लेकर
मारामार

केवल
यहीं होता है

और

यहां
सब की
नजर में
ये सब कुछ
ठीक होता है

वो
कहता है

कि
सबको
ठीक करने
के लिये ही

उसे
ऊपर से

नीचे
उतरना
होता है

किसी को
पता नहीं
होता है

जब भी
उसका मन

इस
लोक में
आने का
होता है

उसके
इशारे
पर ही

यहां
बहुत
कुछ
होता है

उस बहुत
कुछ को

देखने
सुनने
के लिये
ही तो

वो
यहां होता है

अकेले
होता है से

क्या होता है

परलोक
का एक
इस लोक के
अनेक के ऊपर

बहुत
भारी होता है

कोई भी
कहीं भी
कुछ भी
करता रहे

जब वो
यहां होता है

तो फिर

किसी के
भी किये गये

गलत सलत से
क्या होता है

उसका
होना ही

अपने आप में

क्या 

नहीं होता है ।

रविवार, 22 सितंबर 2013

छुट्टी पर जा कुछ लिख पढ़ के आ

लम्बे अर्से के बाद
मिले एक मित्र से
पूछ बैठा यूं ही
क्या बात है
बहुत दिनों के बाद
नजर आ रहे हो
आजकल काम पर
क्या किसी दूसरे
रास्ते से जा रहे हो
जवाब मिला कुछ ऐसा
काम के दिनों में
ज्यादातर छुट्टी पर
चला जाता हूं
कभी आप भी
चलिये ना मेरे साथ
चलकर आपको भी
किसी दिन वो
जगह दिखाता हूं
जहां चैन से बैठ कर
कुछ लिख पढ़
ले जाता हूं
काम का क्या है
बहुत से पागल होते हैं
काम के दीवाने
उनको थोड़ा थोड़ा
बांट के आता हूं
कागज कलम लेकर
लिखने में अब वो
मजा कहां रह गया
अखबार में लिखने पर
पता चला कि सब को
कहां हूं मैं का कुछ
पता चल गया
इसी लिये यहां
पर लिखता हूं
कौन हूं बस ये बात
किसी को नहीं बताता हूं
अंदर की बातें अपने
अंदर ही रखकर एक
छद्मरुप हो जाता हूं
बहुत सुकून मिलता है
उधर अपने किये हुऐ
इधर उधर का प्रायश्चित
इधर लिख लिख कर
पा जाता हूं
बस यही कारण है
काम के बोझ को
कम करने के लिये
लिखने पढ़ने को
कहीं को भी कभी भी
चला जाता हूं ।

शनिवार, 21 सितंबर 2013

सजाये मौत पहले बहस मौत के बाद !


अलग अलग जगहें
अलग अलग आदमी
कई किताबों में
कई जगह लिखी
हुई कुछ इबारतें
समय के साथ
बदलते हुऐ उनके मायने
मरती हुई एक लड़की
कोख में सड़क में
ससुराल में घर में
कभी एक औरत
कभी अर्धांगिनी
कभी बेटी कभी बहन
कहीं दुपट्टे से लटकी हुई
कहीं कटी हुई टुकड़ों में
कहीं जलती हुई खेत में
कहीं बीच सड़क पर
टी वी के एक प्रोग्राम
के बहस का मुद्दा
एक लाश एक फोटो
एक अखबार के लिये
बस एक खबर
सड़क पर एक भीड़
हर मौत पर एक गुस्सा
पता नहीं किस पर
मौत भी ऐसी जो
दे दी जाती है
बिना किसी
सजा के सुनाये
समय के साथ
इबारत नहीं बदली
ना ही आदमी बदला
मौत की सजा जारी है
अपनी जगह बादस्तूर
दे दी जाती है
बहस भी होती है
हमेशा की तरह पर
सजाऐ मौत के बाद
आदमी के पास
कानून नहीं है
पता नहीं क्यों
नहीं है अभी तक
पता चलती है ये बात
अगर देखेने लगे कोई
कितनी लड़कियों को
मारा गया सजाये
मौत देने के बाद ।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

एक भीड़ एक पोस्टर और एक देश



इधर
कुछ 
पढ़े लिखे कुछ अनपढ़
एक दूसरे के ऊपर चढ़ते हुऐ

एक सरकारी 
कागज हाथ में
कुछ जवान कुछ बूढ़े
किसी को कुछ पता नहीं
किसी से कोई कुछ पूछता नहीं

भीड़
जैसे भेड़ 
और बकरियों का एक रेहड़
कुछ लैप टौप तेज रोशनी फोटोग्राफी
अंगुलियों और अंगूठे के निशान
सरकार बनाने वालों को मिलती एक खुद की पहचान
एक कागज का टुकड़ा 'आधार' का अभियान

उसी भीड़ का अभिन्न 
हिस्सा 'उलूक'
गोते लगाती हुई उसकी अपनी पहचान
डूबने से अपने को बचाती हुई

दूसरी तरफ
शहर की सड़कों पर बजते ढोल और नगाड़े
हरे पीले गेरुए रंग में बटा हुआ देश का भविष्य

थम्स अप लिमका 
औरेंज जूस 
प्लास्टिक की खाली बोतलें 
सड़क पर बिखरे
खाली 
यूज एण्ड थ्रो गिलास 
हजारों पैंप्लेट्स

नाच और नारे
परफ्यूम से ढकी सी आती एल्कोहोल की महक
लड़के और लड़कियां
कहीं खिसियाता हुआ
लिंगदोह

फिर कहीं 'उलूक'
बचते बचाते अपनी पहचान को
निकलता हुआ दूसरी भीड़ के बीच से

और
तीसरी तरफ 
प्रेस में छपते हुए
एक आदमी के पोस्टर

जो कल 
सारी देश की दीवार पर होंगे

और
यही भीड़ पढ़ रही होगी
दीवार पर लिखे हुऐ
देश के भविष्य को
जिसे इसे ही तय करना है ।

चित्र साभार: https://www.pikpng.com/

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

सोचता हूं कुछ अलग सा लिखूं पर जब ऐसा देखता हूं तो कैसे लिखूं


बंदर को नहीं पता होता है 
उसका एक एक करतब 
मदारी के कितने काम का होता है 

बंदर को बंदर से जब लड़ाया जा रहा होता है 
मदारी भी मदारी की
टांग खींचने 
का गणित लगा रहा होता है 

मदारी भी क्या करे 
उसके ऊपर भी एक मदारी होता है 
बंदर तो पूरी श्रंखला का एक छोटा सा 
बस खिलाड़ी होता है 

बंदर की हार या बंदर की जीत तय करती है 
मदारी उसके अपने मदारी के कितने काम होता है 

जरुरी नहीं होता है कि हरेक मदारी 
अपने अपने बंदर के साथ होता है 
मौका पड़ता है तो 
दूसरे मदारी के बंदर का हाथ भी उसके हाथ होता है 

बंदर और बंदरों की लड़ाईयां 
मौके बे मौके प्रायोजित करवाई जाती हैं 

बंदर इस काम के लिये 
बहुत से बंदरों को अपने साथ लेता है 

बंदर कभी नहीं सोचता है 
वो क्यों और किसके लिये मैदान में होता है 

मदारी का काम भी अपने मदारी के लिये होता है 

हर मदारी के ऊपर भी एक मदारी होता है 
बंदर बस मैदान का एक खिलाड़ी होता है 
बंदर का बंदर भी उसका अपना नहीं होता है 
एक बंदर एक मदारी के लिये कुर्बान होता है 

ये सब कुछ तो हर समय हर जगह पर हो रहा होता है 

मेरे देश की एक खासियत है ये 
मजमा जरूर होता है हर समय होता है 
हर जगह हो रहा होता है 

'उलूक' खुद भी कभी एक मूक दर्शक होता है 
और कभी 
एक बंदर भी किसी का हो रहा होता है । 

चित्र साभार: 
http://kolkataphotoframes.blogspot.com/

बुधवार, 18 सितंबर 2013

किसी का ठेका कभी तू भी तो ले, नहीं तो सबका ठेका हो जायेगा !

हर काम को ठेके के
हिसाब से करने की
आदतें हो जाती है
ठेकेदारी घर से ही
जब शुरु की जाती है
गली मौहल्ले शहर
राज्य से होते हुऐ
देश तक भी तभी
ले जाई जाती है
कहीं कोई निविदा
नहीं निकाली जाती है
काम ठेकेदार के हाथ में
दिखने के बाद ही
ठेके की कीमत
आंकी जाती है
ठेके लेने के लिये
किसी भी तरह की
योग्यता एक बना
ली जाती है जो
कभी कभी ठेके देने
वाले की मूंछ की
लम्बाई से भी
निकाली जाती है
आकाश पृथ्वी हवा
के ठेके तक भी
लिये जाते हैं
किसने दिये किससे लिये
कौन कहां किस किस को
जा जा कर बताते हैं
कोई भी अपने आप
को एक ठेकेदार
मान ले जाता है
जिस चीज पर दिल
आ जाये उस का वो
एक ठेकेदार हो जाता है
किसी दूसरी चीज पर
दूसरा ठेकेदार अपनी
किस्मत आजमाता है
ठेकेदार की भाषा को
ठेकेदार ही बस
समझ पाता है
एक ठेकेदार हमेशा
दूसरे ठेकेदार से
रिश्तेदारी पर
जरूर निभाता है
कभी खुद के लिये
एक तलवार कभी
दूसरे के लिये ढाल
तक हो जाता है
छोटे छोटे ठेकों से
होते हुऐ ठेकेदार
कब एक बड़ा
ठेकेदार हो जाता है
ठेकेदार को भी पता
नहीं चल पाता है
अपने घर को ठेके
पर लगाते लगाते
जिस दिन पूरे देश को
ठेके पर देने के लिये
उतर आता है
उसी दिन समझ में
ये सब आता है
ठेका लेना हो अगर
किसी भी चीज का
तो किसी से कुछ कभी
नहीं पूछा जाता है
बस ठेका ले ही
लिया जाता है।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

उनकी मजबूरी के खेत मेरे सपनों के पेड़

किसी की
मजबूरी भी

किसी का
सपना हो
जाती है

ये बात
बहुत आसानी
से कहां समझ
में आ पाती है

आश्चर्य तो
तब होता है

जब एक ऐसे ही
सपने के आते ही
किसी की बांछें
खिल जाती हैं

यही सोच एक
दुधारू गाय
बन कर
सामने आ
जाती है

जितने ज्यादा
मजबूर लोग
होते हैं
उतना
ज्यादा दूध
बहाती है

किसी की
मजबूरी को
एक सपना
बनाना

उस सपने
को पूरा
करने के लिये
तन मन
धन लगाना

सपने की
बात को
किसी को
भी ना बताना

इसके बावजूद
उस सपने को
पूरा करने
के लिये
मिनटों में
मददगारों
के एक
जमघट का
जुट जाना

सपने का
फलना फूलना
शुरु हो जाना

दूध का
निकलने से
पहले ही
बंट जाना

कुछ लोगों
की मजबूरी पर
एक पूरा उद्योग
खड़ा हो जाना ही
एक आदमी की
प्रबंधन क्षमता
को दिखाती है

देश को चलाने
के लिये ऐसे ही
सक्षम लोगों की
जरूरत महसूस
की जाती है

इसीलिये
हर सरकार
हर जगह पर
छांट छांट कर
ऐसे महागुरुओं को
ला कर बिठाती है

इन
महागुरुओं की
मदद लेकर ही
मजबूर देश के
मजबूरों को वो
हांक ले जाती है ।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बाघ तू तो खाली बाघ हो रहा है

सुबह से शोर
मच रहा है
शहर के किसी
मौहल्ले में आज
झाड़ियों के बीच
एक बाघ
दिख रहा है
ऐसा आज
पहली बार
नहीं हो रहा है
कि बाघ आबादी
के बीच में
आकर के
घुस रहा है
या तो बाघ
जंगल में बहुत
हो रहे हैं
या जंगल में
बाघ बहुत
बोर हो रहे हैं
इसीलिये शायद
जंगल छोड़
शहर की ओर
हो रहे हैं
बाघ को कौन
समझाये जाकर
कि शहर के लोग
भी अब बहुत
बाघ हो रहे हैं
बाघ कुछ भी
नहीं है
उनके सामने
बताया नहीं
जा सकता कि
वो कितने
घाघ हो रहे हैं
कंकरीट के जंगल
शहर में हर ओर
बो रहे हैं
बाहर से मुलायम
दिखा कर अंदर से
कठोर हो रहे हैं
बाघ माना कि
तेरे पास खाने को
नहीं हो रहा है
तभी तो तू शहर
की ओर हो रहा है
शहर में लेकिन
बस वो ही बाघ
हो रहा है
जिसका पेट पूरे
गले गले तक
भरा हो रहा है
तू तो बाघ है
और रहेगा भी
बाघ हमेशा ही
पर वो जब जब
लाल देख रहा है
तब तब वो एक
बाघ हो रहा है ।

रविवार, 15 सितंबर 2013

गर्व से कहो फर्जी हैं


देश में
फर्जी लोगों की
कमी नहीं है

ये मैं नहीं कह रहा हूं

आज के
हिंदुस्तान के
मुख्य पृष्ठ में छपा है
और
इस बात को
देश का सुप्रीम कोर्ट
सुना है कह रहा है

फर्जी डाक्टर
फर्जी पुलिस
फर्जी पायलट
जैसे और कई
खुशी हुई बस
ये देख कर
फर्जी मास्टर कहीं
भी नहीं लिखा है

मजे की
बात देखिये
कोर्ट को जैसे
बहुत
गर्व हो रहा है

कि
इन फर्जी लोगों
के कारण ही तो
देश सही ढंग से
चल रहा है

कोर्ट
मानता है
हजारों फर्जी वकील
रोज वहां आ रहे हैं
अच्छा काम कर रहे हैं
समय पर लोगों को
न्याय दिलवा रहे हैं

ऐसे में
आप लोग
क्यों परेशान
इतना
हो जा रहे हैं

क्यों
फर्जी पायलटों
की बात
हमें बता रहे हैं

एक दो
हवाई जहाज
अगर वो कहीं
गिरा रहे हैं
तो कौन सा
देश के लिये
खतरा हो जा रहे हैं

थोड़े कुछ
अगर मर
भी जा रहे हैं
तो देश की
जनसंख्या
कम करने में
अपना योगदान
कर जा रहे हैं

देख
क्यों नहीं रहे हैं
बहुत से ऐसे लोग
देश को तक
चला रहे हैं

इतना बड़ा देश
हवा में उड़ रहा है
कई साल हो गये
इसे उड़ते उड़ते
आज तक तो कहीं
भी नहीं गिरा है

फिर काहे में कोर्ट
का समय आप
लोग खा रहे हैं

फर्जी होना ही
आज के समय में
बहुत जरूरी
हो गया है

जो
नहीं हुआ है
उसने कुछ
भी नहीं
अभी तक
किया है

सही समय पर
सही निर्णय जो
लोग ले पा रहे हैं

किसी ना किसी
फर्जी को अपना
गुरु बना रहे हैं

और
जो लोग फर्जी
नहीं हो पा रहे हैं

देश के नाम पर
कलंक एक हो
जा रहे हैं

ना ही
अपना भला
कर पा रहे हैं
ना ही किसी के
काम आ पा रहे हैं

आपको
शरम भी
नहीं आ रही है

ऐसे में भी

एक
फर्जी के ऊपर
मुकदमा ठोकने
कोर्ट की शरण में
आ जा रहे हैं ।