उलूक टाइम्स

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

राम ही राम हैं चारों ओर हैं बहुत आम हैं रावण को फिर किसलिये किस बात पर जलाया


विजया दशमी के जुलूस में
भगदड़ मचने पर 
पकड़ कर थाने लाये गये
दो लोगों से 
जब पूछताछ हुई 

एक ने अपने को लंका का राजा रावण बताया 

दस सिर तो नहीं थे 
फिर भी हरकतों से सिर से पाँव तक
रावण जैसा ही नजर आया 

और दूसरे की पहचान
बहुत आसानी से 
अयोध्या के भगवान राम की हुई 

जिनको बिना देखे भी 
सारे के सारे रामनामी दुपट्टे ओढ़े भक्तों ने 
आँख नाक कान बंद कर के 
जय श्री राम का नारा जोर शोर से लगाया 

दोनो ने अपना गाँव 
इस लोक में नहीं 
परलोक में कहीं होना बताया 

मजाक ही मजाक में उतर गये 
उस लोक से इस लोक में 
इस बार दशहरा 
पृथ्वी लोक में आकर
खुद ही देखने का प्लान 
उन्होने खुद नहीं 
उनके लिये ऊपर उनके ही
किसी चाहने वाले ने बनाया 
ऊपर वालों ने नीचे आने जाने में अड़ंगा भी नहीं लगाया 

भीड़ से पल्ला पड़ा जब 
राम और रावण का नीचे उतर कर 

भीड़ में से किसी ने अपने आप को राम का भाई 
किसी ने चाचा 
किसी ने बहुत ही नजदीक का ताऊ बताया 

रावण के बारे में पूछने पर 
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया 
इसने उससे और उसने किसी और से
पूछने की राय दे कर अपना 
मुँह इधर और उधर को किया 
सभी ने अपना अपना पीछा रावण को देखते ही छुड़ाया 

राम की बाँछे खिली 
सामने खड़ी सारी जनता से उनकी 
खुद की रिश्तेदारी मिली 

और 
रावण बेचारा
सोच में पड़े खड़ा रह पड़ा 
किसलिये और किस मुहूर्त में 

राम के साथ रामराज्य की ओर 
ऊपर से नीचे एक बार 
और 
अपनी जलालत देखने निकल पड़ा ? 

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

शव का इंतजार नहीं शमशान का खुला रहना जरूरी होता है

हाँ भाई हाँ
होने होने की
बात होती है
कभी पहले सुबह
और उसके बाद
रात होती है
कभी रात पहले
और सुबह उसके
बाद होती है
फर्क किसी को
नहीं पड़ता है
होने को जमीन से
आसमान की ओर
भी अगर कभी
बरसात होती है
होता है और कई
बार होता है
दुकान का शटर
ऊपर उठा होता है
दुकानदार अपने
पूरे जत्थे के साथ
छुट्टी पर गया होता है
छुट्टी लेना सभी का
अपना अपना
अधिकार होता है
खाली पड़ी दुकानों
से भी बाजार होता है
ग्राहक का भी अपना
एक प्रकार होता है
एक खाली बाजार
देखने के लिये
आता जाता है
एक बस खाली
खरीददार होता है
होना ना होना
होता है नहीं
भी होता है
खाली दुकान को
खोलना ज्यादा
जरूरी होता है
कभी दुकान
खुली होती है और
बेचने के लिये कुछ
भी नहीं होता है
दुकानदार कहीं
दूसरी ओर कुछ
अपने लिये कुछ
और खरीदने
गया होता है
बहुत कुछ होता है
यहाँ होता है या
वहाँ होता है
गन्दी आदत है
बेशरम ‘उलूक’ की
नहीं दिखता है
दिन में उसे
फिर भी देखा और
सुना कह रहा होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

बहुत बार मन गधा गधा हो जाता है गधा ही बस अपना सा लगता है और बहुत याद आता है

कई बार
लिखते समय
कई संदर्भ में

याद
आये हो
गधे भाई

बहुत दिन
हो गये

मुलाकात
किये हुऐ

याद किये हुऐ
बात किये हुऐ

कोई खबर
ना कोई समाचार

आज
तुम्हारी याद
फिर से है आई

जब से सुनी है

जानवर के
चक्कर में

आदमी की
आदमी से हुई है
खूनी रक्तरंजित हाथापाई

आये भी
कोई खबर कैसे तुम्हारी

ना किसी
खबरची ने
ना ही किसी
अखबार ने

तुममें
कोई दिलचस्पी

आज तक
महसूस ही
नहीं हुआ
कि हो कभी दिखाई

मुलाकात
होती तो
होती भी कैसे

ना
अरहर की दाल से ही
तुम्हें कुछ लेना देना

ना
मुर्गे से ही
होता है तुम्हारा कभी
कुछ सुनना कहना

गाय
और भैंस में से

एक भी
नहीं कही
जा सकती तुम्हारी

नजदीक की
या बहुत दूर की बहना

बस
तालमेल दिखता है
तुम्हारा अगर कहीं तो

सिर्फ
और सिर्फ
अपने धोबी से

कुछ गंदे
कुछ मैले कुचैले
कुछ साफ सुथरे धुले हुऐ

कपड़ों के थैले से

अब
ऐसा भी होना
क्या होना

देश के
किसी भी
काम के नहीं

शरम
तुम्हें पता नहीं
कभी आई की नहीं आई

घास खाना
हिनहिनाना
और बस
खड़े खड़े ही सोना

ना खाने के काम के
ना दिखाने के काम के

चुनाव चिन्ह
ही बन जायें
ऐसा जैसा भी
तुमसे नहीं है
कभी भी होना

कितना
अच्छा है
ना भाई गधे

ना तुम्हें
किसी ने पूछना

ना तुम्हें
छेड़ने के कारण

किसी पर
किसी को
काली स्याही भी
कभी फेंकने के लिये

किसी को
ढकोसला
कर कर के रोना

आ भी जाया करो
दिखो ना भी कहीं
याद में ही सही

गर्दभ मयी
हो गया हो
जहाँ सब कुछ

बचा हुआ ही

ना लगे
कि है कहीं कुछ

तुमसे
गले मिल कर
ढाड़े मार मार कर

आज तो
‘उलूक’
को भी है

देश के नाम पर

देशभक्ति दिखाने

और
ओढ़ने
के लिये रोना ।

चित्र साभार: www.cliparthut.com

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

बातें बनाने तक की बात है चल ही जाती हैं नहीं चलती है तो फौज लगा कर चला दी जाती हैं

बातें
कितनी भी
बना ली जायें

लगता है
अभी कुछ ही
कहा गया है

बहुत कुछ है
जो बचा हुआ
रह गया है

जल की
इतनी बूँदें
होती और
जमा हो
गई होती

जलजला
ला देती
बहा देती

बहुत कुछ
छोड़ दिया
जाता

समय
के साथ
बहने के
लिये अगर

फिर
लगता है
बातें भी बूँद बूँद
ही जमा होती हैं

जैसी
जगह मिले
उसी की जैसी
हो लेती हैं

सामंजस्य
हो बात का
बात के साथ
जरूरी
नहीं होता है

कुछ बातें
खुद ही
तरतीब से
लग जाती हैं

कुछ
अपने ही आप
एक दूसरे पर
चढ़ जाती हैं

निकलना
चाहती हैं 
अंदर से बाहर


बेतरतीबी से
ऊँची नीची
सोच के साथ

उसी सोच
पर चढ़ कर
या उतर कर

आसान भी
नहीं होता है
बाँधें रखना

या फिर यूँ ही
छोड़ देना
बातों की
नकेल को

बातें एक साथ
अगर कह भी
दी जाती हैं

बाढ़ फिर भी
नहीं कभी
आ पाती है

बातें
पानी की तरह
बह तो जाती हैं

पर
दूर तक कहीं भी
नजर नहीं आती हैं

उनके
निशान भी
समय की रेत
पर खो जाते हैं

सबके बस में
नहीं होता है
जमा किये
रहना बातों को

कुछ
बहा देते हैं
यूँ ही कहीं भी
बातों को
बातों ही
बातों में

बातों
के बादल
भी नहीं बनते हैं

बात बात में
फटते भी नहीं हैं

बातें
निचोड़नी
पड़ती हैं

कुछ पीनी
पड़ती हैं
कुछ जीनी
पड़ती हैं

बात तो
तब बनती है

जब
कोई बात
बहुत ही
धीरे धीरे
हौले हौले से

बात
की बात में
बातों के बीच
छोड़ दी जाती है

कब काट
जाती है
कब फाड़
जाती है

कब कहाँ
किस को
चीर जाती है

उसके बाद
मटकती
उछलती
चल देती है

हर जगह
जा जा कर
नाच दिखाती है

देखते
रह जाते हैं
बातें बनाने वाले

उनकी
खुद की
कही बात
उन्हीं को
लपेट ले जाती है

‘उलूक’
जानता है
बहुत अच्छी तरह

सबसे
अच्छी बात

ऐसी ही
एक बात
होती है

जो
किसी
के भी
समझ में
कभी भी
नहीं
आ पाती है

बातें
बनाना
वैसे भी
किसी को भी

कहीं भी
नहीं सिखाया
जाता है

बातें तो
बात ही बात में

यूँ ही
चुटकी में
बना दी जाती हैं

मुश्किल
तब होती है

जब बातों
में से ही
एक बात

च्यूइंगम
हो जाती है ।

चित्र साभार:
www.shutterstock.com

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

सावन गुजरा इक्कीस इक्यावन ऐक सौ एक होते होते हो गये ग्यारा सौ हरा था सब कुछ हरा ही रहा

सावन निकल गया 
कुछ नया नहीं हुआ 

पहले भी सारा 
हरा हरा ही नजर आया है

अब तो
हरा जो है 
और भी हरा हरा हो गया है

किससे कहूँ किसको बताऊँ 
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है 
ना ही जरूरत है सावन की 

मेरे शहर में 
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ 
हाय 
उस समय सोचा भी नहीं 

किसी ने बहुत जोर देकर 
हरे को हरा ही कहा 
एक दिन नहीं कई बार कहा 
यहाँ तक कहा हरा 
कि 
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया 

होते होते 
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया 
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही 
पागलों का हो गया 

ऐसा भी क्या हरा हुआ 
हरा भरा शहर 
बचपन से हरा होता हुआ 
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया 
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी 
और क्या बताऊँ 
जो हरा नहीं भी था 
वो सब कुछ हरा हो गया 

इस सारे हरे के बीच में 
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद 

बस
जो नहीं बचा था 
वो ‘उलूक’ का हरा था

हरा
नजर आया ही नहीं 
हरे के बीच में 
हरा ही खो गया । 

चित्र साभार: www.vectors4all.net

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

लिखे पर चेहरा और चेहरे पर लिखा हुआ दिखता

कभी किसी दिन
चेहरे लिखता तो कहीं कुछ दिखता 
बिना चेहरे के लिखा भी क्या लिखा 

गर्दन से कटा
बचा कुचा
बाकी शरीर के नीचे का बेकार सा हिस्सा 

चेहरा लिखने का मतलब
चेहरा और बस चेहरा 
आईने में देखी हुई शक्ल नहीं 

छोटे कान नहीं ना ही बहुत लम्बी नाक
ना पतली गर्दन ना काली आँख 
ना वैसा ना वैसे जैसा कुछ 
कुछ नहीं तो पैमाना लिखता 

कहीं
नपता पैमाना सुनता
मदहोश होता 
कुछ कभी
कहीं किसी के लिये 
क्या पता अगर मयखाना लिखता 

लिखना और नहीं लिखना
बारीक सी रेखा
बीच में लिखने वालों और नहीं लिखने वालों
के बीच की

लिखे के बीच में से
झाँकना शुरु होता हुआ चेहरा लिखता 

चेहरे के दिखते 
पीछे का धुँधलाना शुरु होता
लिखा और लिखाया दिखता

अच्छा होता
पहाड़ी नदी से उठता हुआ सुबह सवेरे का कोहरा लिखता 

स्याही से शब्द लिखते लिखते छोड़ देता लकीर 
उसके ऊपर लिख कर देखता चेहरे बस चेहरे
चेहरे पर चेहरे लिखता 

देखता
लिखा हुआ किसे दिखता और किसे नहीं दिखता ।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

आज यानी अभी के अंधे और बटेरें

कोई भी कुछ
नहीं कर सकता
आँखों के परदों
पर पड़ चुके
जालों के लिये
साफ दिखना
या कुछ धुँधला
धुँधला हो जाना
अपना देखना
अपने को पता
पर मुहावरों के
झूठ और सच
मुहावरे जाने
कहने वाले
कह गये
बबाल सारे
जोड़ने तोड़ने
के छोड़ गये
अब अंधे के
हाथ में बटेर
का लग जाना
भी किसी ने
देखा ही होगा
पर कहाँ सिर
फोड़े ‘उलूक’ भी
जब सारी बटेरें
मुहँ चिढ़ाती हुई
दिखाई देने लगें
अंधों के हाथों में
खुद ही जाती हुई
और हर अंधा
लिये हुऐ नजर
आये एक बटेर
नहीं बटेरें ही बटेरें
हाथ में जेब में
और कुछ नाचती
हुई झोलों में भी
कोई नहीं समय
की बलिहारी
किसी दिन कभी
तो करेगा कोई
ना कोई अंधा
अपनी आँख बंद
नोच लेना तू भी
बटेर के एक दो पंख
ठंड पड़ जायेगी
कलेजे में तब ही
फिर बजा लेना
बाँसुरी बेसुरी अपनी ।

चित्र साभार: clipartmountain.com

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com

सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

शिव की बूटी के उत्थान का समय भी आ रहा है


तब सही
समझे थे
या अब सही
समझ रहे हैं
बस इतना सा
समझ में नहीं
आ पा रहा है
जो है सो है
मजा तो
आ रहा है
बहुत दिनो के
बाद कुछ कुछ
लगा जैसे
पहाड़ी राज्य
की किस्मत का
दरवाजा ऊपर वाला
अब जाकर जल्दी
खोलने जा रहा है
भाँग की खेती
करने का अधिकार
जल्दी ही सरकार
के द्वारा पहाड़ी
किसानो को
दिया जा रहा है
बहुत अच्छी बात
इसमें जो बताई
समझाई गई है
उससे कोई खतरा
किसी को नहीं होगा
जैसा आभास
पहली बार में ही
आ जा रहा है
जंगलों में इफरात
से उगती है भाँग
जिस जमीन पर
काले सोने के
नाम से आज
भी ओने कोने
में बेचा खरीदा
जा रहा है
खेतों में उगाया
जायेगा अब
काला सोना
ठेका सरकार
और सरकार के
नुमाँइंदों को ही
दिया जा रहा है
सुरा ने किये
बहुत सारे
चमत्कार
इतिहास में लिखा
है बहुत कुछ
अब वही प्रयोग
पुन: एक बार कर
भाँग और भाँग से
बनने वाले शिव
भगवान की बूटी
को पहाड़ के
कोने कोने में
पहुँचाने का
अप्रतिम प्रयास
किया जा रहा है
जय हो देव भूमी
और देवताओं की
मुँह मत बिसूर
खुश हो ले ‘उलूक’
झूठ में ही सही
असुरों के सुरों पर
शोध करने का
सामान बहुत सा
जगह जगह के
लिये जमा
किया जा रहा है ।

चित्र साभार:
www.shrisaibaba.com
legalizethecannabis.tumblr.com

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

अनदेखा ना हो भला मानुष कोई जमाने के हिसाब से जो आता जाता हो

पापों को
अगर अपने
किसी ने
कह
दिया हो
फिर सजा
देने की बात
सोचने की
सोच किसी
की ना हो

हो अगर कुछ
उसके बाद
थोड़ा कुछ
ईनाम
वीनाम हो 
थोड़ा बहुत
नाम वाम हो 

कुछ सम्मान
वम्मान हो
उसका भी हो
तुम्हारा भी हो
हमारा भी हो

झूठ
वैसे भी
बिक नहीं
सकता कभी
अगर
खरीदने वाला
खरीददार
ही ना हो

कुछ
बेचने की
कुछ
खरीदने की
और
कुछ
बाजार की
भी बात हो
चाहे कानो
कान हो

सोच लो
अभी भी
मर ना
पाओगे
मोक्ष पाने
के लिये
कीड़ा
बना कर
लौटा कर
फिर वापस
यहीं कहीं
भेज दिये
जाओगे

जमाने के
साथ चलना
इसलिये भी
सबके लिये
बराबर हो
और
जरूरी हो

सीखना
झूठ बेचना
भी सीखने
सिखाने में हो
बेचना नहीं
भी अगर
सीखना हो
कम से कम
कुछ खरीदना
ही थोड़ा बहुत
समझने
समझाने में हो

खुद भी
चैन से
रहना
और
रहने
देना हो

‘उलूक’
आदत हो
पता हो
आदमी के
अंदर से
आदमी को
निचोड़ कर
ले आना
समझ में
आता हो

अनदेखा
ना
होता हो
भला मानुष
कोई भी
कहीं इस
जमाने में
जो किताबों
से इतर
कुछ मंत्र
जमाने के
हिसाब के
नये
बताता हो
समझाता हो ।

चित्र साभार: sushkrsh.blogspot.com

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

आग लिखना सरल है बाकी फालतू की आग है

आग है
बहुत है
इधर भी है
उधर भी है

जल भी
रहा है
बहुत कुछ
राख है
और
बहुत है
इधर भी है
उधर भी है

लगा हुआ है
धौंकने में
चिंगारी कोई
इधर भी है
उधर भी है

हो भी रहा है
कुछ नहीं भी
हो रहा है
इधर भी कुछ
उधर भी कुछ

अलग
अलग है
आग है
इधर की है
अलग 
है

अलग है
आग 
है
उधर की है

आग सोच की है
आग मोबाईल की है
आग फैशन की है
आग मोटर
साइकिल की है
आग पढ़ने की है
आग पढ़ाने की है
आग निभाने की है
आग पचाने की है
आग जमा करने की है
आग जलने की है
आग जलाने की है
आग लकड़ियों की है
आग जंगल और
जंगलियों की है
आग सब्सीडी की है
आग मेहनत की है
आग हराम खोरी की है

‘उलूक’
रुक जा

रुक जा
मत बाँट
आग को तो
कम से कम

आग आग है
आँख आँख है
परेशान
मत हुआ कर
हर आस्तीन
में साँप है

जरूरी भी है जो है
काटने वाला नहीं है
बस दिखाने का साँप है ।


चित्र साभार: newyork.cbslocal.com

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

ऊपर जाने के रास्ते समझो जरा नीचे से निकल कर जाने हो रहे हैं

डूबते हुऐ जहाज
में बहुत तेजी
से हो रहे हैं
एक नहीं एक
साथ हो रहे हैं
सारे हो रहे हैं
सारे के सारे
काम ही हो रहे हैं
काम का दिखना
जरूरी नहीं है
जरूरी है देखना
किनारे से
भोंपुओं के सहारे
सहारे से कई
इशारे हो रहे हैं
हो रहें हैं कि
नहीं हो रहे हैं
इतनी गजब की
बातें हो रही है
ये सब कुछ
जल्दी ही गिन कर
गिनीज बुक को
बताने हो रहे हैं
जहाज की सैल्फी
डूबती हुई जनता
खुद ही ले रही है
किस्मत बहुत ही
खराब है कुछ
लोगों की जहाँ
जहाज चलाने वाले
के लोगों के शोर
नगाड़ों के शोर
में खो रहे हैं
किसी के होश
उड़ रहे हैं जहाज
के डूबने की
सोच सोच कर
पैंट के पाँयचे
ना जाने किस डर
से गीले हो रहे हैं
बेवकूफ का बेवकूफ
रह गया ‘उलूक’
उसे तो हमेशा
दिखा है सोचने
समझने के
लाले हो रहे हैं
वादा किया भी है
ऊँचाईयों में ले
जाने का जहाज
वादा निभाने के
लिये ही तो काम
सारे हो रहे हैं
किसने कह दिया
ऊपर को ही जाना
जरूरी है ऊँचाईयाँ
छूने के लिये
मन लगा कर
इच्छा से डूब कर
भी ऊपर को ही
जाने के रास्ते
जब बहुत
आसान और
बहुत सारे हो रहे हैं ।

चित्र साभार: blogs.21rs.
es  

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

ना इसका हूँ ना उसका हूँ क्या करूं इधर भी हूँ उधर भी रहना ही रहना है


मत नाप
लिखे हुऐ वाक्यों की लम्बाई को 
पैमाना हाथ में लेकर अपने 
कुछ भी तो कहीं भी नहीं होना है 

दो इंच बड़ा भी हो जाये
या तीन इंच आगे या पीछे से कहीं 
कम भी अगर
कहीं किसी बात को होना है 

इधर का इधर और उधर का उधर
बस बहस के लिये 
कैमरे के सामने बैठ कर दिखाने सुनाने का रोना है 

नहीं समझेगा फिर भी 
पता है तुझे
तेरे अपने फटे में खुद ही हाथ डाल कर 
सोचना अपने ही खेलने के लिये कोई खिलौना है 

लिख कुछ बोल कुछ दिखा कुछ बता कुछ 
छपा कुछ दे कुछ दिला कुछ 
पता किसी को कुछ भी नहीं होना है 

काले कोयले का धुआँ सफेद राख सफेद 
बचा कहीं उसके बाद कहीं कुछ नहीं होना है 

लगा रह
देखने में कुछ कलाबाजी कुछ कलाकारी 
दिखना
सब सफेद है साफ सुथरा 
कुछ दिनो के बाद
कौन सा किस को कहाँ उसी जगह पर 
लम्बे समय तक
खसौटे गये को दिखने दिखाने के लिये रहना है 

‘उलूक’ की आदत है 
उसको भी कुछ भी कभी भी कहीं भी 
कहने के लिये ही बस कुछ कहना है । 

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

गाय बहुत जरूरी होती है श्राद्ध करने के बाद पता चल रहा था


श्राद्ध पक्ष अष्टमी पिता जी का श्राद्ध 
सुबह सुबह पंडित जी करवा कर गये आज 

साथ में श्राद्ध में प्रयोग हुऐ व्यँजनों को 
किसी भी गाय को खिलाने का निर्देश भी दे गये 

गलती से भी 
कौर खाने का किसी बैल के मुँह में 
गाय से पहले ना लगे जरा सा 
खबरादर भी कर के गये 

श्राद्ध करने कराने तक तो सब 
आसान सा ही लग रहा था 

कोई मुश्किल नहीं पड़ी थी 
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था 

गाय की बात आते ही 
समस्या लेकिन बड़ी एक खड़ी हो गई थी 

रोज कई दिनों से अखबार टी वी रेडियो 
जगह जगह से गाय गाय की माला जपना 
हर किसी का दिखता हुआ मिल रहा था 

गाय को देखे सुने कई जमाने हो चुके थे 
घर के आस पास दूर दूर तक 
गाय का पता नहीं मिल रहा था 

घर से निकला 
हर दुकान में गाय का 
प्लास्टिक का पुतला जरूर दिख रहा था 

पीठ में एक छेद था पैसा डालने के लिये 

आगे कहीं एक नगरपालिका का कूड़ेदान दिख रहा था 

एक घायल बैल 
प्लास्टिक के एक बंद थेले के अंदर के 
कचरे के लिये जीजान से उस पर पिल रहा था 

‘उलूक’ चलता ही जा रहा था 
गाय की खोज में 
गाय गाय सोचता हुआ चल रहा था 

खाने से भरा थैला 
उसके दायें हाथ से कभी बायें हाथ में 
कभी बायें हाथ से दायें हाथ में 
अपनी जगह को बार बार बदल रहा था ।

चित्र साभार: www.allfreevectors.com

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

गांंधी बाबा देखें कहाँ कहाँ से भगाये जाते हो और कहाँ तक भाग पाओगे

गांंधी जी

मैं कह
ही रहा था

कल परसों
की ही
बात थी

कब तक
बकरी की
माँ की तरह
खैर मनाओगे

दो अक्टूबर
तुम्हारी
बपौती नहीं है

किसी दिन
मलाई में
गिरी मक्खी
की तरह
निकाल कर
कहीं फेंक
दिये जाओगे

हो गया शुरु
तुम्हारा भी
देश निकाला

आ गई है खबर
सरकार ने सरकारी
आदेश है निकाला

‘गांंधी आश्रम’
के सूचना पटों
से अभी
निकाले जाओगे

‘खादी भारत’
होने जा रहा है
नया नामकरण

खादी
बुनने बुनाने
की किताबों
से भी भगा
दिये जाओगे

काम
हो रहा है
हर जगह तेजी से

नाम से
नाम को

हर जगह
मिटता मिटाता
लुटता लुटाता

अब आगे
यही सब
देख पाओगे

बहुत
कर लिये मौज
बाबा गांंधी

इतिहास
की किताबों से
खोद निकाल कर

जल्दी ही
खेतों के
गड्ढों में भी
बो दिये जाओगे

देख रहा है
‘उलूक’

बहुत कुछ
देखना है

अच्छा
होने वाला
अच्छे दिनों में

राष्ट्रपिता
की कुर्सी पर
जल्दी ही
किसी नेता जी को

ऊपर से अपने
बैठा हुआ पाओगे ।


चित्र साभार: news.statetimes.in

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

लिखना सीख ले अब भी लिखने लिखाने वालों के साथ रहकर कभी खबरें ढूँढने की आदत ही छूट जायेगी

वैसे कभी सोचता
क्यों नहीं कुछ
लिख लेना सीख
लेने के बारे में भी
बहुत सी समस्याँऐं
हल हो जायेंगी
रोज एक ना एक
कहीं नहीं छपने
वाली खबर को
लेकर उसकी कबर
खोदने की आदत
क्या पता इसी
में छूट जायेगी
पढ़ना समझना
तो लगा रहता है
अपनी अपनी
समझ के
हिसाब से ही
समझने ना
समझने वाले
की समझ में
घुसेगी या
बिना घुसे ही
फिसल जायेगी
लिखने लिखाने
वालों की खबरें ही
कही जाती हैं खबरें
लिखना लिखाना
आ जायेगा अगर
खबरों में से एक
खबर तेरी भी शायद
कोई खबर हो जायेगी
समझ में आयेगा
तेरे तब ही शायद
‘उलूक’
पढ़े लिखे खबर वालों
को सुनाना खबर
अनपढ़ की बचकानी
हरकत ही कही जायेगी
खबर अब भी होती
है हवा में लहराती हुई
खबर तब भी होगी
कहीं ना कहीं लहरायेगी
पढ़े लिखे होने के बाद
नजर ही नहीं आयेगी
चैन तेरे लिये भी होगा
कुछ बैचेनी रोज का रोज
बेकार की खबरों को
पढ़ने और झेलने
वालों की भी जायेगी ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

जन्म दिन अभी तक तो तेरा ही हो रहा है आज के दिन कौन जाने कब तक

कुछ देर के लिये
याद आया तिरंगा

उससे अलग कहीं
दिखी तस्वीर
संत की
माने बदल गये

यहाँ तक आते आते
उसके भी इसके भी

एक
डिजिटल हो गया
दूसरे की याद भी
नहीं बची कहीं

दिखा थोड़ा सा बाकी
अमावस्या के चाँद सा

समय के साथ साथ
कुछ खो गया

सोच सोच में पड़ी
कुछ डरी डरी सी

कहीं किसी को
अंदाज
आ गया हो
सोचने का
श्राद्ध पर्व
पर जन्मदिन
के दिन का

दिन भी सूखा
दिन हो गया
याद आया कुछ
सुना सुनाया

कुछ कहानियाँ
तब की सच्ची
अब की झूठी

बापू
कुछ नहीं कहना
जरूरतें बदल गई
हमारी वहाँ से
यहाँ तक आते आते

तेरे जमाने
का सच
अब झूठ

और झूठ
उस समय का
इस समय का
सबसे बड़ा सच भी
निर्धारित हो गया

जन्मदिन
मुबारक हो
फिर भी बहुत बहुत

बापू
दो अक्टूबर
का दिन अभी तो
तेरा ही चल रहा है

भरोसा नहीं है
कब कह जाये कोई
अब और आज
से ही इस जमाने के
किसी नौटंकी बाज की
नौटंकी का दिन हो गया ।

चित्र साभार: caricaturez.blogspot.com

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

बेचिये जो भी बिक सकता है और जो तैयार है

पिछले
महीने से

निकल रहे हैं
जलूस
मेरे शहर में

क्यों निकल
रहे हैं
कोई पूछने
वाला नहीं है

ना ही कोई
अखबार में
कोई खबर है

जिलाधीश भी
सो रहा है
थानेदार भी
बहुत होशियार है

निमंत्रण मिला है
मुजफ्फर नगर
काण्ड के
खलनायकों पर
बहस करने का

बहुत पुरानी बात
हो गई है सुनने को
अभी की बात
को कौन तैयार है

नहीं देखा
मंजर इस तरह का
अभी तक की
जिंदगी में कभी

लोग कह रहे हैं
अच्छे दिन हैं
अच्छी बयार है

बुलाया गया है
निमंत्रण भी है
मुजफ्फर नगर
काण्ड के खलनायक
व उत्तराखण्ड पर
बहस के लिये

बतायें जरा अपने
घर के काण्डों पर
बात करने को
कौन तैयार है

माना कि
‘उलूक’
को अंधों मे
गिना जाता है

फिर भी
दिखता है
कोने से कहीं
उसको भी कुछ

कहना ही है
मानकर
कि कहना है
और कहना
भी बेकार है।

चित्र साभार: www.anninvitation.com

बुधवार, 30 सितंबर 2015

निराशा सोख ले जाते हैं कुछ लोग जाते जाते नहीं लौटने का बताकर भी


आयेंगे 
उजले दिन जरुर आएँगे 
उदासी दूर कर खुशी खींच लायेंगे 
कहीं से भी अभी नहीं भी सही कभी भी 

अंधेरे समय के 
उजली उम्मीदों के कवि की उम्मीदें 
उसकी अपनी नहीं 
निराशाओं से घिरे हुओं के लिये
आशाओं की 
उसकी अपनी बैचेनी की नहीं 
हर बैचेन की
बैचेनी की 

निर्वात पैदा ही नहीं होने देती हैं
कुछ हवायें 
फिजांं से कुछ इस तरह से चल देती हैं 
हौले से जगाते हुऐ आत्मविश्वास 
भरोसा टूटता नहीं है जरा भी 
झूठ के
अच्छे समय के झाँसों में आकर भी 

कलम एक की
बंट जाती है एक हाथ से कई सारी 
अनगिनत होकर कई कई हाथों में जाकर भी 

साथी होते नहीं
साथी दिखते नहीं 
पर समझ में आती है थोड़ी बहुत 
किसी के साथ चलने की बात 
साथी को
पुकारते हुऐ 
कुछ ना बताकर भी

मशालें बुझते बुझते
जलना शुरु हो जाती हैं 
जिंदगी हार जाती है
जैसा महसूस होने से पहले 
लिखने लगते हैं लोग थोड़ा थोड़ा उम्मीदें 
कागजों के कोने से कुछ इधर कुछ उधर 
बहुत नजदीक पर ना सही 
दूर कहीं भी
नहीं कुछ भी कहीं भी
सुनाकर भी। 

चित्र साभार: www.clker.com

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

उतनी ही श्रद्धांजलि जितनी मेरी कमजोर समझ में आती है तुम्हारी बातें वीरेन डंगवाल

बहुत ही कम
कम क्या
नहीं के बराबर
कुछ मकान
बिना जालियाँ
बिना अवरोध
के खुली मतलब
सच में खुली
खिड़कियों वाले
समय के हिसाब से
समय के साथ
समय की जरूरतें
सब कुछ आत्मसात
कर सकनें की क्षमता
किसी के लिये नहीं
कोई रोक टोक
कुछ अजीब
सी बात है पर
बैचेनी अपने
शिखर पर
जिसे लगता है
उसे कुछ समझ
में आती हैं कुछ
आती जाती बयारें
बेरंगी दीवारें
मुर्झाये हुई सी
प्रतीत होती
खिड़कियों के
बगल से
निकलती
चढ़ती बेलें
कभी मुलाकात
नहीं हुई बस
सुनी सुनाई
कुछ कुछ बातें
कुछ इस से
कुछ उस से
पर सच में
आज कुछ
उदास सा है मन
जब से सुना है
तुम जा चुके हो
विरेन डंगवाल
कहीं पर बहुत
मजबूती से
इतिहास के
पन्नों के लिये
गाड़ कर कुछ
मजबूत खूँटे
जो बहुत है
कमजोर समय के
कमजोर शब्दों पर
लटके हुऐ यथार्थ
को दिखाने के लिये
ढेर सारे आईने
विनम्र श्रद्धांजलि
विरेन डंगवाल
'उलूक' की अपनी
समझ के अनुसार।


चित्र साभार: http://currentaffairs.gktoday.in/renowned-hindi-poet-viren-dangwal-passes-09201526962.html

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

पागलों के साथ कौन खड़ा होना चाहता है ?

किसी को कुछ
समझाने के लिये
नहीं कहता है
‘उलूक’ आदतन
बड़बड़ाता है
देखता है अपने
चश्मे से अपना
घर जैसा
है जो भी
सामने से
नजर आता है
बक बका जाता
है कुछ भी
अखबार में जो
कभी भी
नहीं आता है
तेरे घर में नहीं
होता होगा
अच्छी बात है
उसके घर में
बबाल होता है
रोज कुछ ना
कुछ बेवकूफ
रोज आकर
साफ साफ
बता जाता है
रुपिये पैसे का
हिसाब कौन
करता है
सामने आकर
पीछे पीछे
बहुत कुछ
किया जाता है
अभी तैयारियाँ
चल रही है
नाक के लिये
नाक बचाने
के लिये झूठ
पर झूठ
अखबार में दिखे
सच्चों से बोला
जाता है
कौन कह रहा है
झूठ को झूठ
कुछ भी कह
दीजिये हर कोई
झूठ के छाते के
नीचे आकर खड़ा
होना चाहता है
किसी में नहीं है
हिम्मत सच के
लिये खड़े होने
के लिये हर कोई
सच को झूठा
बनाना चाहता है
‘उलूक’ के साथ
कोई भी नहीं है
ना होगा कभी
पागलों के साथ
खड़ा होना भी
कौन चाहता है ।

 चित्रसाभार: www.clipartsheep.com

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

लिंगदोह कौन है ? पता करवाओ

लिंगदोह
कौन है
है अभी
कि
नहीं है

होगा
कितने
होते हैं
ये भी कोई
होता होगा

शासन को
पता नहीं
दुश्शासन
को पता नहीं

अनुशासन
कुशासन
शासन
प्रशासन
रहने दो

आसन करो
योग करो

भोग मत करो

अच्छा सोचो
अच्छा देखो
कुछ गलत हो
रहा हो तो
जब तक होये
तब तक
मत देखो

जब हो जाये
तब सब आ
आ कर देखो

हल्ला गुल्ला
सुनो तो
सो जाओ

शांति होने
के बाद
मुँह धो के
पोछ के
मूँछों को
घुमाओ

अब
हर जगह
थाने हों
और
थानेदार हो

ऐसी सोच
मत बनाओ

कुर्सियाँ
बैठने
के लिये
होती हैं
बैठ जाओ

गुस्सा
दिखाओ
एक दो
अच्छे भले
सीधे साधे
को डंडा
मार के
चूट जाओ

लिंगदोह
कौन है
कोई पूछ
रहा है क्या
किसी से ?

बेकार
की बातें
बेकार
जगह पर
बेकार में
मत फैलाओ

खबर देने
की जरूरत
अभी से
नहीं है
खबरची को

साफ सफाई
रंग चूना
करने के
बाद ही
बुलाओ

उसी को
बुला कर
उसी से
किसी से
पुछवाओ

लिंगदोह
के बारे में
पता कर
उसे नोटिस
भिजवाओ

आओ
मिल बाँट
कर चाय
समोसे खाओ

बिल
थानेदार
के नाम
कटवाओ

शासन के
जासूसों के
आँख में
घोड़ों के
आँख की
पट्टियाँ
दोनो ओर
से लगवाओ

सामने
से हरी
घास
दिखवाओ

सब कुछ
चैन से
है बताओ

बैचेनी की
खबरों को
घास के
नीचे दबवाओ

‘उलूक’
की मानो
और
कोशिश करो

लिंगदोह
के लिये
दो गज
जमीन का
इंतजाम
करवाओ

पर पहले
पता तो
करवाओ
लिंगदोह
कौन है ?

चित्र साभार: www.christianmessenger.in

बुधवार, 23 सितंबर 2015

भगदड़ मच जाती है जब मलाई छीन ली जाती है

चींंटियाँ
बहुत कम 
अकेली दौड़ती नजर आती है 

चीटियाँ
बिना वजह लाईन बना कर 
इधर से उधर कभी नहीं जाती हैं 

छोटी चींंटियाँ एक साथ 
कुछ बड़ी अलग कहीं साथ साथ 

और बहुत बड़ी 
कम देखने वाले को भी दूर से ही दिख जाती हैं 

लगता नहीं कभी 
छोटी चींंटियों के दर्द और गमो के बारे में 
बड़ी चीटियाँ
कोई संवेदना जता पाती हैं 

चींंटियों की किताब में लिखे
लेख कविताऐं भी कोई संकेत सा नहीं दे पाती हैं 

चींंटियों के काम कभी रुकते नहीं है 
बहुत मेहनती होती हैं चींंटियाँ हमेशा 
चाटने पर आ गई तो मरा हुआ हाथी भी चाट जाती हैं 

छोटी चींटियों के लिये
बड़ी चीटियों का प्रेम और चिंता 
अखबार के समाचार के ऊपर छपे समाचार 
से उजागर हो जाती है 

पहले दिन छपती है 

चींंटियों से
उस गुड़ के बरतन को छीने जाने की खबर
जिसे लूट लूट कर चींंटियाँ 
चीटियों की लाईन में रख पाती हैं 

खबर फैलती है 
चींंटियों में मची भगदड़ की 
दूसरे किस्म की चीटियों के कान में पहुँच जाती है 

दूसरे दिन

दूसरी चींंटियाँ 
पहली चींंटियों की मदद के लिये
झंडे लहराना शुरु हो जाती है

पूछती हैं 
ऐसे कैसे सरकार
अपनी चींंटियों में भेद कर जाती है 

इधर भी तो लूट ही मची है
चींंटियाँ ही लूट रही हैं 
उधर की चींंटियों को गुड़ छीन कर
दे देने का संकेत देकर
सरकार आखिर करना क्या चाहती है 

ये सब रोज का रोना है
चलता हुआ खिलौना है 
चाबी भरने की याद आती है तभी भरी जाती है 

कुछ समझ में आये या ना आये 
एक बात पक्की सौ आने समझ में आती है 

लाईन में लगी चींंटियों की मदद करने
लाईन वाली चींंटियाँ ही आती है 
लाईन से बाहर
दौड़ भाग कर
लाईन को देखते रहने वाली चींंटियाँ 
गुड़ की
बस खुश्बू दूर से ही सूँघती रह जाती हैं । 

चित्र साभार: www.gettyimages.com

सोमवार, 21 सितंबर 2015

दुकान के अंदर एक और दुकान को खोला जाये


जब दुकान खोल ही ली जाये 
तो फिर क्यों देखा जाये इधर उधर 
बस बेचने की सोची जाये 

दुकान का बिक जाये तो बहुत ही अच्छा 
नहीं बिके अपना माल किसी और का बेचा जाये 

रोज उठाया जाये शटर एक समय 
और एक समय आकर गिराया भी जाये 

कहाँ लिखा है जरूरी है 
रोज का रोज कुछ ना कुछ बिक बिका ही जाये 

खरीददार 
अपनी जरूरत के हिसाब से 
अपनी बाजार की अपनी दुकान पर आये और जाये 

दुकानदार 
धार दे अपनी दुकानदारी की तलवार को 
अकेला ना काट सके अगर बीमार के ही अनार को 

अपने जैसे लम्बे समय के 
ठोके बजाये साथियों को साथ में लेकर 
किसी खेत में जा कर हल जोत ले जाये 

कौन देख रहा है क्या बिक रहा है 
किसे पड़ी है कहाँ का बिक रहा है 
खरीदने की आदत से आदतन कुछ भी कहीं भी खरीदा जाये 

माल अपनी दुकान का ना बिके 
थोड़ा सा दिमाग लगा कर पैकिंग का लिफाफा बदला जाये 

मालिक की दुकान के अंदर खोल कर एक अपनी दुकान 
दुकान के मालिक का माल मुफ्त में 
एक के साथ एक बेचा जाये 

मालिक से की जाये मुस्कुरा कर मुफ्त के बिके माल की बात 

साथ में बिके हुऐ दुकान के माल से 
अपनी और ठोके पीटे साथियों की पीछे की जेब को 
गुनगुने नोटों की गर्मी से थोड़ा थोड़ा रोज का रोज 
गुनगुना सेका जाये । 

चित्र साभार: www.fotosearch.com

रविवार, 20 सितंबर 2015

देखा कुछ ?

देखा कुछ ?
हाँ देखा
दिन में
वैसे भी
मजबूरी में
खुली रह जाती
हैं आँखे
देखना ही पड़ता है
दिखाई दे जाता है
वो बात अलग है
कोई बताता है
कोई चुप
रह जाता है
कोई नजर
जमीन से
घुमाते हुऐ
दिन में ही
रात के तारे
आकाश में
ढूँढना शुरु
हो जाता है
दिन तो दिन
रात को भी
खोल कर
रखता हूँ आँखें
रोज ही
कुछ ना कुछ
अंधेरे का भी
देख लेता हूँ
अच्छा तो
क्या देखा ? बता
क्यों बताऊँ ?
तुम अपने
देखे को देखो
मेरे देखे को देख
कर क्या करोगे
जमाने के साथ
बदलना भी सीखो
सब लोग एक साथ
एक ही चीज को
एक ही नजरिये
से क्यों देखें
बिल्कुल मत देखो
सबसे अच्छा
अपनी अपनी आँख
अपना अपना देखना
जैसे अपने
पानी के लिये
अपना अपना कुआँ
अपने अपने घर के
आँगन में खोदना
अब देखने
की बात में
खोदना कहाँ
से आ गया
ये पूछना शुरु
मत हो जाना
खुद भी देखो
औरों को भी
देखने दो
जो भी देखो
देखने तक रहने दो
ना खुद कुछ कहो
ना किसी और से पूछो
कि देखा कुछ ?

चित्र साभार: clipartzebraz.com

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

भाई कोई खबर नहीं है खबर गई हुई है


सारे के सारे खबरची 
अपनी अपनी खबरों के साथ 
सुना गया है टहलने चले गये हैं 

पक्की खबर नहीं है 
क्योंकि किसी को कोई भी खबर
बना कर नहीं दे गये हैं 

खबर दे जाते
तब भी कुछ होने जाने वाला नहीं था 

परेशानी बस इतनी सी है 
कि समझ में नहीं आ पा रहा है 
इस बार ऐसा कैसे हो गया 

खबर दे ही नहीं गये हैं 
खबर अपने साथ ही ले गये हैं 

अब ले गये हैं
तो कैसे पता चले खबर की खबर 
क्या बनाई गई है कैसे बनाई गई है 
किस ने लिखाई है किस से लिखवाई गई है 

किसका नाम कहाँ पर लिखा है 
किस खबरची को नुकसान हुआ है 
और किस खबरची को फायदा पहुँचा है 

बड़ी बैचेनी हो गई है 
जैसे एक दुधारू भैंस दुहने से पहले खो गई है 

‘उलूक’ सोच में हैं तब से 
खाली दिमाग को अपने हिला रहा है 
समझ में कभी भी नहीं आ पाया जिसके 
सोच रहा है
कुछ आ रहा है कुछ आ रहा है 

बहुत अच्छा हुआ खबर चली गई है 
और खबरची के साथ ही गई है 

खबर आ भी जाती है 
तब भी कहाँ समझ में आ पाती है 

खबर कैसी भी हो माहौल तो वही बनाती है । 

चित्र साभार: www.pinterest.com

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

औरों के जैसे देख कर आँख बंद करना नहीं सीखेगा किसी दिन जरूर पछतायेगा

थोड़ा
कुछ सोच कर
थोड़ा
कुछ विचार कर

लिखेगा तो

शायद
कुछ अच्छा
कभी लिख
लिया जायेगा

गद्य हो
या पद्य हो
पढ़ने वाले
के शायद

कुछ कभी
समझ में
आ ही जायेगा

लेखक
या कवि
ना भी कहा गया

कुछ
लिखता है
तो कम से कम
कह ही दिया जायेगा

देखे गये
तमाशे को
लिखने पर

कैसे
सोच लेता है

कोई
तमाशबीन
आ कर
अपने ही
तमाशे पर
ताली जोर से
बजायेगा

जितना
समझने की
कोशिश करेगा
किसी सीधी चीज को

उतना
उसका उल्टा
सीधा नजर आयेगा

अपने
हिसाब से
दिखता है
अपने सामने
का तमाशा
हर किसी को

तेरे
चोर चोर
चिल्लाने से
कोई थानेदार
दौड़ कर
नहीं चला आयेगा

आ भी गया
गलती से
किसी दिन
कोई भूला भटका

चोरों के
साथ बैठ
चाय पी जायेगा

बहुत ज्यादा
उछल कूद
करेगा ‘उलूक’
इस तरह से हमेशा

लिखना
लिखाना
सारा का सारा
धरा का धरा
रह जायेगा

किसी दिन
चोरों की रपट
और गवाही पर
अंदर भी कर
दिया जायेगा

सोच
कर लिखेगा

समझ
कर लिखेगा

वाह वाह
भी होगी

कभी
चोरों का
सरदार

इनामी
टोपी भी
पहनायेगा । 


चित्र साभार: keratoconusgb.com